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________________ जैनदर्शनमें मुक्ति-साधना [ले० श्री अगरचन्द नाहटा,-सम्पादक "राजस्थानो”] भारतीय समग्र दर्शनोंमें जैन दर्शनका भी महत्त्वपूर्ण स्वीकार किया है । गीतामें समत्व के विषय में बहुत स्थान है, तत्व ज्ञानका विचार इस दर्शनमें बड़ी सुन्दर विवेचन पाया जाता है । एवं कर्मफल की ही सूक्ष्मतासे किया गया है । प्राचारोंमें 'अहिंसा' और आसक्तिका स्याग अर्थात् अनासक्तयोगको प्रधानता विचारोंमें 'अनेकान्त' इस दर्शनकी खास विशेषता है। दी है। इन दोनों साधनोंके विषय में गीता और जैन इस लेखमें जैनदर्शनानुसार जीव और कर्मका स्वरूप दर्शनकी महती समानता व एकता है। एवं सम्बन्ध बतलाकर मुक्ति और उसकी साधनाके जीवसे कर्मका सम्बन्ध कबसे और क्यों है ? कहा विषयमें विचार किया जायगा। नहीं जा सकता, क्योंकि वह राग द्वेष-रूप विकारी अनादि-अनन्त संसार चक्रमें जीव और अजीव दो परिणामों या भावोंसे होता है; यह ऊपर कहा ही जा मुख्य पदार्थ हैं। चैतन्य-लक्षण-विशिष्ट जीव और चुका है; पर वह स्वर्ण और मिट्टीके सम्बन्धके सदृश अचेतन-जड़-स्वरूप अजीव है। जीव असंख्यात् प्रदेश अनादिकालसे है, इतना होने पर भी जैसे स्वर्णको वाला, शाश्वत, अरूपी पदार्थ है, उसके मुख्य दो मिट्टीसे अलग किया जा सकता है, उसी प्रकार भेद हैं 'सिद्ध' और संसारी। सिद्धावस्था जीवका शुद्ध श्रात्मारूप स्वर्णसे कर्म-मिट्टी अलगकी जा सकती है, स्वरूप है, और संसारी अवस्था कर्म-संयोग जन्य और इस कार्यमें जो जो बातें सहायक है उन्हें ही 'साधन' अर्थात् विकारी अवस्थाका नाम है । दृश्यमान पदार्थ कहते हैं एवं साधनोंका व्यवहारिक उपयोग ही 'साधना' सारे पुद्गल द्रव्यके नानाविधरूप हैं । जब श्रात्मा अपने कही जाती है । साधना करने वाला ही 'साधक' कहा स्वरूपसे विचलित होकर या भूलकर पुद्गल द्रव्य जाता है, और साधनाके चरम विकाश अर्थात् इष्ट फल अर्थात् पर पदार्थोकी ओर प्रवृत्त होता है, भ्रमसे उन्हें प्राप्तिको 'सिद्धि' कहते हैं । अपना मान लेता है या उन पर आसक्त हो जाता है, जीवके विकारी भावोंकी विविधता एवं तरतमताके तभी अात्मामें राग भावका उदय होता है, राग-से कारण कर्म भी विविध प्रकारके होते हैं, अतः उनके द्वेष उत्पन्न होता है, और इन राग-द्वेषरूप विकारी फलोंमें भी विविधता होना स्वाभाविक है । इसी विविधता भावोंसे आत्माके साथ कर्म पुद्गलोंका संयोग सम्बन्ध के कारण जीवोंमें पशु, पक्षी, मनुष्य, देव नारक भेद हो जाता है । राग-द्वेषरूप चिकनाहटके अस्तित्वमें और उनमें भी फिर अनेक प्रकार कहे जाते हैं । कोई कर्मरज आकर जीवके साथ चिपट जाती है । जहाँ राजा, कोई रंक, कोई । 'डित कोई मूर्ख, कोई अल्पायु राग और द्वेष नहीं है, वहाँ पर पुद्गलोंके हज़ारों रूप कोई दीर्घायु, कोई रोगी कोई निरोगी कोई सुखी कोई सन्मुख रहने पर भी कर्म-बन्धन नहीं होता । इसीलिये दुखी इत्यादि असंख्य प्रकारकी तरतमता और विविधता साधनामें समभावका महत्व सभी आस्तिक दर्शनोंने नज़र आती है । वास्तवमें ये सारे खेल जीवके अपने ही
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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