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________________ वर्ष ३, किरण ११ ] ज्ञात या अज्ञात रूपसे अर्जित कर्मोंके फल हैं। जिस प्रकार जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, अर्थात् कर्म फलका प्रदाता ईश्वर नहीं है फल तो स्वाभाविक रूप से प्राप्त हो जाते हैं । जिस प्रकार एक व्यक्ति मदिरा पान करता है तो वस्तु स्वभावके गुणसे नशेका श्राना स्वाभाविक प्रत्येक भांति पदार्थ अपने अपने गुणों की अपेक्षा सत् है, कस्तूरी में गर्मी है अतः उसे खाते ही शरीर में गरमी अपने आप आ जाती है, जैसी वस्तु खाते हैं उसके गुण-दोष शरीरमें स्वाभाविक रूपसे अनुभूत होते हैं। देश काल, परिस्थिति, जल-वायु सारे पदार्थों के गुण दोष स्वाभाविक रूप से ही अनुभूत होते रहते हैं, उसी प्रकार कर्मका भी जीवके साथ जैसे रूप-स्वभावमें बंध होता है, उससे उन कर्मोंमें तदनुरूप फल प्रदानकी शक्ति उत्पन्न होती है, और जब जिस कर्मका उदय होता है, तब वह अपने स्वभावानुसार फल उत्पन्न करता है । यह तो हुई जीव कर्मके सम्बंधकी बात, अब यह सम्बन्ध किस प्रकार से अलग हो सकता है उस पर विचार करना है । जीवके साथ कर्मके सम्बन्ध होने के जितने भी मार्ग हैं जैन दर्शन में उन्हें 'आसव' तत्व कहते हैं और कर्म आनेके मार्गोंका विरोध 'संवरतत्व' कर्मोंसे सम्बन्ध हो जाना 'वन्ध तत्व' जिन कर्मों द्वारा जीवसे कर्म विनास होते हैं; उसे 'निर्जर - तत्व' और सम्पूर्ण रूप से स्वाभाविक अवस्था प्राप्त कर लेना अर्थात् कर्मोंसे मुक्ति हो जाना 'मोक्षतत्व' है । इस प्रकार जीव और जीव दो मुख्य तत्वोंके साथ इन पाँच तत्त्वोंको जोड़ देनेसे तत्त्वोंकी संख्या ७ हो जाती है । कहीं कर्म व तत्त्व के विशेष स्पष्टीकरण के लिये पुण्य और पाप इन दोनों को पृथक् तत्त्व माना गया है, इससे नव तत्त्व कहे गये हैं । इनमेंसे हमें साधना मार्ग में तीन तत्वों की जानकारी परमावश्यक है, अतः जैन दर्शन में मुक्ति-साधना ६४१ उनका स्वरूप दृष्टान्त द्वारा नीचे समझानेका प्रयत्न किया जाता है । एक सुन्दर सरोवर में जल भरा हुआ है, समय समय पर उसमें नवीन जल श्रोता रहे और वह परि पूर्ण भरा रहे । इसके लिये जलागमनके कई मार्ग रखे जाते हैं। जब हमें उस सरोवरको जलसे खाली करना होता है । तो प्रथम जलके श्रानेके मार्गको बन्द कर देते हैं और पुराने जलको गरमी द्वारा शोषण करके या ऐंच कर निकाल डालना पड़ता है; जब ऐसी क्रिया की जाती है अर्थात् नवीन जल नहीं आने दिया जाता और पुराने जलको बाहर फेंक दिया जाता है, तभी वह खाली हो सकता है। यदि नवीन जल श्रनेके मार्ग बन्द नहीं किये जाते तो चाहे कितना ही प्रयास क्यों न करें सरोवर कभी खाली नहीं हो सकता । इधर जल निकालते जायेंगे, उधर भरता रहेगा । फलतः - सिद्धि नहीं होगी । इसी प्रकार जीवरूप सरोवर में कर्मरूप जल भरा है; जब हमें जीवको कर्मोंसे मुक्त करना है, तो श्रावश्यक है कि हम कर्मके आने के मार्गों रूप श्रास्रव द्वारोंको रोकें, और पूर्व बँधे हुये कर्मोंको तप-संयमादिके द्वारा बाहर निकाल कर फेंक दें या शोषित करदें | इससे नये कर्मोंका बँध होगा नहीं और पूर्वके कर्म भोगकर या तपादि सद्नुष्ठानोंसे नष्ट कर देने पर जीवकी मुक्ति होना अनिवार्य एवं स्वाभाविक है 1 जैनदर्शनकी साधन प्रणालियें अब यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि कर्मों के आगमनके मार्ग स्रव द्वार कौन कौनसे हैं, कैसे उनको रोका जाता है व पूर्व संचित कर्मोंका शोषण किस प्रकार हो सकता है ? इन बातों की जानकारी व उसके अनुसार आचरण करना ही साधना है ।
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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