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अनेकान्त
[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४६६
में उल्लिखित भाष्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय-द्वारा मान्य क्या अर्थ है ? इसका उत्तर है कि यहाँ पंचत्व प्रस्तुत उतास्वातिके स्वोपज्ञभाष्यको छोड़कर अन्य कहनेसे उमास्वातिका अभिप्राय पाँच द्रव्योंमे न कोई भाष्य नहीं। तथा इसमें षड्द्रव्यका उल्लेख होकर पाँच अस्तिकायोंस है । उमास्वाति कहना भी मिलता है।
___ चाहते हैं कि अस्तिका यरूपमे पाँच द्रव्य हैं; काल श्वेताम्बर आगमोंमें कालद्रव्य-सम्बन्धी दो का कथन आगे चलकर 'कालश्चेत्येके' सूत्रस किया मान्यताओंका कथन आता है । भगवतीसूत्रमें जायगा । द्रव्योंके विषयमें प्रश्न होनेपर कहा गया है- कहनेकी आवश्यकता नहीं कि हमारे उत्त 'कह णं भंते ! दम्वा पन्नत्ता ! गोयमा ! छ दव्वा कथनका समथन स्वयं अकलंककी राजवार्तिकमें पन्नत्ता । तं जहा-धम्मस्थिकाए जाव श्रद्धा समये"- किया गया है। वे लिखते हैं-"वृत्तौ पंचत्त्ववचननात् अर्थात द्रव्य छह हैं, धर्मास्तिकायसे लेकर काल- षड्दव्योपदेशव्याघात इति चेन्न अभिप्रायापरिज्ञानात् द्रव्य तक । आगे चलकर कालद्रव्यके सम्बन्धमें (वातिक)-स्यान्मतं वृत्तावमुक्त (वुक्त ? )मवस्थितानि प्रश्न होने पर कहा गया है-"किमियं भंते कालो त्ति धर्मादीनि न हि कदाचित्पंचत्वं व्यभिचरंति (अक्षपवुच्चइ? गोयमा जीवा चेव अजीवा चेव"अर्थात काल- रशः भाष्यकी पंक्तियाँ हैं) इति ततः षड्व्याणीत्युद्रव्य कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं। जीव और अजीव पदेशस्य व्याघात इति | तन्न, किं कारणं ? अभिप्रायाये दो ही मुख्य द्रव्य हैं । काल इनकी पर्यायमात्र परिज्ञानात् । अयमभिप्रायो वृत्तिकरणस्य -कालश्चेति है। यही मतभेद उमास्वातिने "कालश्चेत्येके" सूत्र पृथग्द्रव्यलक्षणं कालस्य वध्यते । तदनपेक्षादिकृतानि में व्यक्त किया है । इसका यह मतलब नहीं उमा- पंचैव द्रव्याणि इति षड्व्योपदेशाविरोधः' । अर्थात स्वाति कालद्रव्यको नहीं मानते, उन्होंने कहीं भी वृत्तिमें जो द्रव्यपंचत्त्वका उल्लेख है वह कालद्रव्य कालका खण्डन नहीं किया, अथवा उसे जीव- की अनपेक्षास ही है। कालका लक्षण आगे चल अजीवकी पर्याय नहीं बताया।,
कर अलग कहा जायगा। "कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषे- सिद्धसेन गणिने उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगम धार्थ च"--भाष्यकी इस पंक्तिका भी यही अर्थ है भाष्य पर जो वृत्ति लिखी है, उसमें भी अकलंकके कि "अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः" सूत्रमें उक्त कथनका ही समर्थन किया गया है । सिद्धसेन 'काय' शब्दका ग्रहण प्रदेशबहुत्व बताने के लिये लिखते हैं-"सत्यजीवत्वे कालः कस्मान्न निर्दिष्टः इति
और कालद्रव्यका निषेध करने के लिये किया गया चेत् उच्यते-स स्वेकीयमतेन द्रव्यमित्याख्यास्यते द्रव्य. है । क्योंकि कालद्रव्य बहुप्रदेशी होनेसे (?) लक्षणप्रस्ताव एव । श्रमी पुनरस्तिकायाः व्याचिण्याकायवान् नहीं। इससे स्पष्ट है कि उमास्वाति काल सिताः । न च कालोऽस्तिकायः, एकसमयत्वात्"को स्वीकार करते हैं, अन्यथा उसका निषेध कैसा? अर्थात् यहाँ केवल पाँच अस्तिकायोंका कथन यहाँ प्रश्न हो सकता है कि फिर "धर्मादीनि न हि किया गया है । अजीव होने पर भी यहाँ कालका कदाचिरपंचत्वं व्यभिचरन्ति" इस भाष्यकी पंक्तिका उल्लेख इसलिये नहीं किया गया कि वह एक