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वर्ष ३, किरण ११ ]
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और कलंक
समय वाला है उसका कथन 'कालश्चेत्येके' सूत्र में उद्धृत करते हैं ।
किया जायगा ।
स्वयं भाष्यकारने "तस्कृतः कालविभागः " सूत्र व्याख्या में 'कालोऽनन्तसमयः वर्तनादिलक्षण इत्युकम्' आदि रूपसे कालद्रव्यका उल्लेख किया है । इतना ही नहीं मुख्तारसाहबको शायद अत्यन्त आश्चर्य हो कि भाष्यकारने स्पष्ट लिखा है - "सर्व पंचध्वं अस्तिकायावरोधात् । सर्व षट्स्वं षड्व्यावरोधातू" । वृत्तिकार सिद्धसेनने इन पंक्तियोंका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है--“तदेव पंचस्वभावं षट्स्वभावं षड्द्रव्यसमन्वि तत्त्वात् । तदाह-सर्वं षट्कं षड्द्रव्या`वरोधात् । षड़द्रव्याणि । कथं, उच्यते -पंच धर्मादीनि कालश्चेत्येके”। इससे बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उमास्वाति छ द्रव्यों को मानते हैं । छह द्रव्योंका स्पष्ट कथन उन्होंने भाष्य में किया है। पांच अस्तिकायोंके प्रसंग पर कालका कथन इसीलिये नहीं किया गया कि काल कायवान नहीं । अतएव अकलंकने षड्द्रव्य वाले जिस भाष्य की ओर संकेत किया है, वह उमास्वातिका प्रस्तुत तत्वार्थाधिगम भाष्य ही । इस भाष्यका सूचन अकलंकने 'वृत्ति' शब्द से किया है ।
मुख्तार साहब लिखते हैं- "अत्प्रवचन" का तात्पर्य मूल तत्रर्थाधिगमसूत्र से है, तत्वार्थभाष्य से नहीं ।" अच्छा होता. यदि पं० जुगलकिशोरजी इस कथन के समर्थन में कोई युक्ति देते । आगे चल कर आप लिखते हैं- "सिद्धसेनगणिके वाक्यमें अर्हत्प्रवचन विशेषण प्रायः तत्वार्थाधिगमसूत्र के लिये है, मात्र उसके भाष्य के लिये नहीं ।" यहाँ 'प्रायः ' शब्द से आपको क्या इष्ट है, यह भी स्पष्ट नहीं होता। हम यहाँ सिद्धसेनगणिका वाक्य फिर से
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" इति श्रीमदर्हस्प्रवचने तत्वार्थधिगमे उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिण्यां च टीकायां सिद्धसेनगणिविरचितायां अनगारगारिधर्मप्ररूपकः सप्तमो ऽध्यायः” ।
यहाँ अर्हत्प्रवचने,तत्वार्थाधिगमे और उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये – ये तीनों पद सप्तम्यन्त हैं । उमास्वातिवाचकोपज्ञ सूत्रभाष्यसे स्पष्ट है उमास्वातिवाचकका स्वोपज्ञ कोई भाष्य है । इसका नाम तत्वार्थाधिगम है । इसे अर्हत्प्रवचन भी कहा जाता है। स्वयं उमास्वातिने अपने भाष्यकी निम्न कारिकामें इसका समर्थन किया है
तत्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थ संग्रहं लघुग्रंथं । वयामि शिष्यहितमिममद्वचनैकदेशस्य ॥ आगे चलकर तो मुख्तार साहबने एक विचित्र कल्पना कर डाली है । आपका तर्क है, क्योंकि राजवार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है, अतएव राजवार्तिक में “उक्तं हि अर्हस्प्रवचने" पाठ भी अशुद्ध है; तथा 'अर्हत्प्रवचन' के स्थान पर 'अर्हत्प्रवचनहृदय' होना चाहिये । कहना नहीं होगा इस कल्पना का कोई आधार नहीं । यदि पं० जुगलकिशोरजी राजवार्तिककी किसी हस्तलिखित प्रति से उक्त पाठको मिलान करनेका कष्ट उठाते तो शायद उन्हें यह कल्पना करनेका अवसर न मिलता। मेरे पास राजवार्तिक के भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट की प्रतिके आधार पर लिये हुए जो पाठान्तर हैं, उनमें 'ईप्रवचन' हीं पाठ है। अभी पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बनारस से सूचित करते हैं कि "यहाँ की लिखित राजवार्तिक में भी वही पाठ है जो मुद्रितमें है ।"