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वर्ष ३, किरण ११]
पण्डितप्रवर पाशाधर
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धर्मामृत-टीका १२९६ में और अनगारधर्मामृत- हैं 'मदनकीर्ति-प्रबन्ध' नामका एक प्रबन्ध है । टीका १३०० में समाप्त हुई है । जिनयज्ञकल्पकी उसका सारांश यह है कि मदनकीर्ति वादीन्द्र प्रशस्तिमें जिन दस ग्रन्थोंके नाम दिये हैं, वे विशालकीर्तिके शिष्य थे । वे बड़े भारी विद्वान थे। १२८५ के पहले के बने हुए होने चाहिएँ । उसके चारों दिशाओंके वादियोंको जीतकर उन्होंने बाद सागारधर्मामृत टीकाकी समाप्ति तक अर्थात 'महाप्रामाणिक-चूड़ामणि' पदवी प्राप्त की थी । १२९६ तक काव्यालंकार-टीका, सटीक सहस्रनाम, एक बार गुरुके निषेध करने पर भी वे दक्षिणा सटीक जिनयज्ञकल्प, सटीक त्रिषष्टिस्मृति, और पथको प्रयाण करके कर्नाटकमें पहुँचे । वहाँ विद्वनित्यमहोद्योत ये पाँच ग्रंथ बने । अन्तमें १३०० प्रिय विजयपुरनरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्य तक राजीमती-विप्रलम्भ, अध्यात्मरहस्य, रत्नत्रय- पर मोहित हो गये और उन्होंने उनसे अपने विधान और अनगारधर्म-टीकाकी रचना हुई। पूर्वजोंके चरित्र पर एक ग्रन्थ निर्माण करनेको इस तरहसे मोटे तौरपर ग्रन्थ-रचनाका समय कहा । कुन्तिभोजकी कन्या मदन-मञ्जरी सुलेखिका मालूम हो जाता है।
थी। मदनकीर्ति पद्य-रचना करते जाते थे और त्रिषष्टिस्मृतिकी प्रशस्तिमे मालूम होता है कि मञ्जरी एक पर्देकी आड़में बैठकर उसे लिखती वह १२९२ में बना है। इष्टोपदेश टीकामें समय जाती थी। नहीं दिया।
____ कुछ समयमें दोनोंके बीच प्रेमका आविर्भाव सहयोगी विद्वान् हुआ और वे एक दूसरेको चाहने लगे। जब राजा १ पण्डित महावीर-ये वादिराज पदवीमे को इसका पता लगा तो उसने मदनकीर्तिको बध विभूषित पं० धरमेनके शिष्य थे । पं० आशाधरजी करने की आज्ञा दे दी । परन्तु जब उनके लिए ने धारामें आकर इनसे जैनेन्द्र व्याकरण और कन्या भी अपनी सहेलियोंके साथ मरनेके लिए जैन न्यायशास्त्र पढ़ा था ।
तैयार हो गई, तो राजा लाचार हो गया और ____.२ उदयसेन मुनि-जान पड़ता है, ये कोई उसने दोनोंको विवाह-सूत्रमें बाँध दिया । मदनवयोज्येष्ठ प्रतिष्ठित मुनि थे और कवियोंके सुहृद् कीर्ति अन्त तक गृहस्थ ही रहे और विशालकीर्ति थे। इन्होंने पं० आशाधरजीको 'कलि-कालिदास' द्वारा बार बार पत्रोंसे प्रबुद्ध किये जाने पर भी कहकर अभिनन्दित किया था।
टमम मस नहीं हुए। यह प्रबन्ध मदनकीर्तिसे मदनकीर्ति यतिपति-ये उन वादीन्द्र विशाल- कोई मौ वर्ष बाद लिखा गया है। इससे सम्भव के शिष्य थे जिन्होंने पण्डित आशाधरसे न्याय- है इसमें कुछ अतिशयोक्ति हो अथवा इसका शास्त्रका परम अस्त्र प्राप्त करके विपक्षियोंको जीता अधिकांश कल्पित ही हो परन्तु इसमें सन्देह नहीं था । मदनकीर्तिके विषयमें राजशेखरसूरिके 'चतु- कि मदनकीर्ति बड़े भारी विद्वान् और प्रतिभाशाली विन्शति-प्रबन्ध' में जो वि० सं० १४०५ में निर्मित कवि थे । और इसलिये उनके द्वारा की गई हुआ है और जिसमें प्रायः ऐतिहासिक कथायें दी आशाधरकी प्रशंसाका बहुत मूल्य है ।