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________________ अनेकान्त पद, वीर निर्वाण सं०२४५६ % D . श्रीमदनकीर्तिकी बनाई हुई 'शासनचतुस्त्रिंश- हो गये हैं। उनमें विद्यापति बिल्हण बहुत प्रसिद्ध तिका' नामक ५ पत्रोंकी एक पोथी हमारे पास है। हैं, जिनका बनाया हुआ विक्रमांकदेव-चरित है। जिसमें मंगलाचरणके एक अनुष्टुप् श्लोकके अति- यह कवि काश्मीरनरेश कलशके राज्यकालमें वि० रिक्त ३४ शार्दूलविक्रीड़ित वृत्त हैं और प्रत्येकके सं० १११९ के लगभग काश्मीरसे चला था और अन्तमें 'दिग्वाससां शासन' पद है । यह एक जिस समय वह धारामें पहुँचा उस समय भोजदेव प्रकारका तीर्थक्षेत्रों का स्तवन है जिसमें पोदनपुर की मृत्यु हो चुकी थी। इससे वे आशाधरके प्रशंसक बाहुबलि, श्रीपुर-पार्श्वनाथ, शंख-जिनेश्वर, दक्षिण नहीं हो सकते । भोज की पांचवीं पीढ़ीके राजा गोमट्ट नागद्रह-जिन, मेदपाट ( मेवाड़) के नाग- विन्ध्यवर्माके मंत्री विल्हण उनसे बहुत पीछे हुए फणी ग्रामके जिन, मालवाके मङ्गलपुर के अभि- हैं। चौर-पंचासिका या बिल्हण-चरितका कर्ता नन्दन जिन आदिकी स्तुति है । मङ्गलपुरवाला बिल्हण भी इनसे भिन्न था । क्योंकि उसमें जिस पद्य यह है वैरिसिंह राजाकी कन्याशशिकलाके साथ बिल्हणश्रीमन्मालवदेशमंगलपुरे म्लेच्छप्रतापागते को प्रेम सम्बन्ध वर्णित है वह वि० सं० ९०० के भग्ना मूर्तिरथोभियोजितशिराः सम्पूर्णतामायौ। लगभग हुआ है । शार्ङ्गधर पद्धति, सूक्तमुक्तावली यस्योपद्रवनाशिनः कलियुगेऽनेकप्रभावैर्युतः, आदि सुभाषित-संग्रहोंमें बिल्हण कविके नामसे स श्रीमानभिनन्दनः स्थिरयतं दिग्वाससां शासनं ॥३४॥ बहुतसे ऐसे श्लोक मिलते हैं जो न विद्यापति बिल्हणके विक्रमांकदेवचरित और कर्णसुन्दरी इस मेजोग्लेच्छोके प्रतापका आगमन बतलाया नाटिकामें हैं और न चौर-पंचासिकामें । क्या है, उससे ये पं० आशाधरजीके ही समकालीन आश्चर्य है जो वे इन्हींमंत्रिवर बिल्हण कविके हों। मालूम होते हैं । रचना इनकी प्रौढ़ है। पं० आशाधरजीकी प्रशंसा इन्हींनेकी होगी। अभी तक इनका ___ मांडूमें मिले हुए विन्ध्यवर्मा के लेखमें इन और कोई ग्रन्थ नहीं मिला है। बिल्हणका इन शब्दोंमें उल्लेख किया है "विन्ध्यवर्म४ विल्हण कवीश-बिल्हण नामके अनेक कवि नृपतेः प्रसादभूः । सान्धिविग्रहकबिल्हण कवि।" अर्थात बिल्हण कवि विन्ध्यवर्माका कृपापात्र और परराष्ट्र * इस प्रतिमें लिखनेका समय नहीं दिया है मनिवार परन्तु दो तीनसौ वर्षसे कम पुरानी नहीं मालूम होती। ५-६० देवचन्द्र-इन्हें पण्डित आशाधरजीने जगह जगह अक्षर उड़ गये हैं जिसमें बहुतसे पथ पूरे व्याकरण-शास्त्रमें पारंगत किया था। नहीं पढ़े जाते। ६-वादीन्द्र विशालकीर्ति - ये पूर्वोक्त मदतकीति ___xश्रीजिनप्रभसूरिके 'विविध-तीर्थकल्प' में 'अवन्ति के गुरू थे। ये बड़े भारी वादी थे और इन्हें देशस्थ अभिनन्दनदेवकल्प'नामका एक कल्प है जिसमें पण्डितजीने न्यायशास्त्र पढ़ाया था। सम्भव है, ये अभिनन्दनजिनकी भग्न मूर्तिके जुड़ जाने और अतिशय धारा या उज्जैनकी गद्दीके भट्टारक हों। प्रकट होनेकी कथा दी है। (आगामी किरणमें समाप्त)
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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