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वर्ष ३, किरण ११]
जैनदर्शनमें मुक्ति-साधना
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निर्जरा तस्वके प्रकार
१ पूर्वोक्त ५ ब्रतोंको अपनी शकिके अनुसार अंशतः १ अनशन-श्राहारका त्याग, २ ऊनोदर क्षुधासे पालन करना अणुव्रत है जैसे निरपराधी जीवको कम भोजन करना, वृत्तिसंक्षेप-विविध वस्तुओंके।
मारनेकी बुद्धिसे नहीं मारना, २-३ विशेष अनिष्ट कारक लालचको कम करना, ४ रस त्याग-घी, दूध, दही, राजदण्ड व लोक निंदा होने वाला असत्य न बोलना व गुड़, तेल, व पक्वानका त्याग और मधु, मांस,
वैसी चोरी नहीं करना, ४ पर स्त्री गमनका त्याग, मक्खन व मदिराका सर्वथा त्याग । ५ कायक्लेश
धनधान्यादिका परिमाण कर लेना, उससे अधिक न ठंड गर्मी या विविध अासनादि द्वारा शरीरको कष्ट
रखना। देना, ६ संलीनता-अंगोपांग संकोच कर रहना,
तीन गुण व्रत-१ चारों दिशाओंमें गमनागमनका एकान्तस्थान में संयत भावसे रहना।
परिमाण दिग् ब्रत, भोग और उपभोगकी वस्तुओंका
परिमाण देशव्रत ३ अनावश्यक अनर्थ पापोंका त्याग ऊपरके ६ भेद बाह्य तपके हैं, आभ्यंतरिक ६ भेद
अनर्थदण्डत्यागवत और ४ शिक्षाव्रत
१ सामायिक ( नियत समय तक सम भावसे रहना) १ प्रायश्चित-दोष शोधन, २ विनय, ३ वैयावृत्य
२ देशावकालिक-पूर्व परिमाण जो जीवन भरके सेवा, ४ स्वाध्याय-वाचना पृच्छना, परावर्त्तना
लिये किया है प्रत्येक दिन व समयके लिये संक्षेप, (श्राम्नाय ) अनुप्रेक्षा, धर्मोपदेशरूप, ५ ध्यान, ..
३ पोषध-उपवासपूर्वक शरीर विभूषाका त्याग कर ६ उत्सर्ग-धनधान्य एवं शरीरादिका ममत्व हटाना धर्ममें तत्पर होना ४ सुपात्र साधुओं श्रादिको दान । और काषायिक विकारोंमें तन्मयताका स्याग ।
__ जीवका कर्म बन्धनसे मुक्त हो जाना ही 'मुक्ति' है, यहां पर लेख विस्तार भयसे मुख्य भेदोंका ही इस अवस्थाको प्राप्त होने पर आत्मा निर्लेप, निर्विकार निर्देश किया है इनमेंसे एक एक भेद भी अनेक प्रकार एवं अनन्त शक्तिको प्राप्त होता है । जीवका स्वभाव हैं, उन सबका स्वरूप जानने के लिये तत्वार्थसूत्र, ऊर्ध्वगती-गामी कहा जाता है । अतः बन्धनके कारण नवपदार्थ ज्ञानसार आदि ग्रन्थोंका अध्ययन करना जीवका स्वभाव आच्छादित था, वह मुक्त होते ही प्रगट चाहिये ।
होता है, और उसके कारण श्रात्मा सब देव लोकोंके . सब साधकोंकी योग्यता एकसी नहीं होती, अतः ऊपर जो स्फटिक रत्नकी सिद्ध शिला है उससे एक योग्यताके तारतम्यके अनुसार दो प्रकारकी साधना योजनके बाद लोकका अन्त आता है, वहाँ जाकर बतलाई गई हैं:-१ गृहस्थ और २ मुनि । इनमेंसे निवास करता है । मुक्तावस्था प्राप्त श्रात्माएँ अपने ध्येय मुनियों के ५ ब्रत होते हैं १ अहिंसा, २ त्याग, ३.अचौर्य की सम्पूर्ण सिद्धि कर लेती हैं अतः वे 'सिद्ध' कहलाते ४ ब्रह्मचर्य ५ अपरिग्रह इन पांचों व्रतोंको सम्पूर्ण रूपसे हैं । ऐसे सिद्ध अनन्त हैं, फिर भी अरूपी होनेके कारण पालन करना मुनिका धर्म है और अंशतः पालन करना न तो स्थानाभाव एवं भीड़ ही होती है और न शरीर के गृहस्थका धर्म है । गृहस्थके ब्रत १२ कहे जाते हैं, वे अभावके करण वहां जगह रुकती है, एक ही स्थानमें इस प्रकार हैं:
अनन्त श्रात्माअोंके रहने पर भी एक दुसरेके लिये