SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष ३, किरण ११] पंडितप्रवर पाशाधर ६७३ बीचमें इसमें सुन्दर पद्य भी प्रयुक्त हुए हैं। अभी पहले शोलापुरसे अपराजितसूरि और अमितगति तक यह कहीं प्राप्त नहीं हुआ है। की टीकाओंके साथ प्रकाशित हो चकी है। जिस __२ भरतेश्वराभ्युदय—यह सिद्धयङ्क है । अर्थात् प्रति परसे वह प्रकाशित हुई है उसके अन्तके कुछ इसके प्रत्येक सर्गके अन्तिम वृत्तमें 'सिद्धि' शब्द पृष्ठ खो गये हैं जिनमें पूरी प्रशस्ति रही होगी। आया है । यह स्वोपज्ञ टीका सहित है । इसमें इष्टोपदेश टीका-आचार्य पूज्यपादके सुप्रसिद्ध प्रथम तीर्थकरके पुत्र भरतके अभ्युदयका वर्णन ग्रन्थकी यह टीका माणिकचन्द जैन-ग्रन्थमालाके होगा। सम्भवतः महाकाव्य है। यह भी अप्रा- तत्त्वानुशासनादि-संग्रहमें प्रकाशित हो चुकी है। _____८ भूपालचतुर्विन्शतिका-टीका-भूपालकविके प्र३ ज्ञानदीपिका-यह धर्मामत (सागार-अन- सिद्ध स्तोत्रकी यह टीका अभी तक नहीं मिली। गार)की स्वोपज्ञ पंजिका टीका है। कोल्हापुरके जैन आराधनासार टीका-यह आचार्य देवसेनके मठमें इसकी एक कनड़ी प्रति थी, जिसका उपयोग आराधनासार नामक प्राकृत पन्थकी टीका है। स्वः पं० कल्लापा भरमाप्पा निटवेने सागारधर्मा- १० अमरकोष टीका-सुप्रसिद्ध कोषकी टीका । मृतकी मराठी टीकामें किया था और उसमें अप्राप्य । टिप्पणीके तौर पर उसका अधिकांश छपाया था। क्रियाकलाप-बम्बईके ऐ० पन्नालाल उसी के आधारसे माणिकचन्द-ग्रन्थमाला द्वारा सरस्वती-भवनमें इस ग्रंथकी एक नई लिखी हुई प्रकाशित सागारधर्मामृत सटीकमें उसकी अधि- अशुद्ध प्रति है, जिसमें ५२ पत्र हैं,और जो १९७६ काँश टिप्पणियाँ दे दी गई थीं। उसके बाद निट• श्लोक प्रमाण है । यह ग्रन्थ प्रभाचन्द्राचार्यके क्रियावेजीसे मालूम हुआ था कि उक्त कनडी प्रति जल- कलापके ढंगका है । ग्रंथमें अन्त-प्रशस्ति नहीं है। कर नष्ट हो गई ! अन्यत्र किसी भण्डारमें अभी प्रारम्भके दो पद्य ये हैंतक इस पंजिकाका पता नहीं लगा। जिनेन्द्रमुन्मूलितकर्मबन्धं प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूपं । ___४ राजीमती विप्रलंभ-यह एक खण्डकाव्य है अनन्तबोधादिभवं गुणौघं क्रियाकलापं प्रकटं प्रवषये ॥१॥ और स्वोपज्ञटीकासहित है। इसमें राजमतीके योगिध्यानैकगम्यः परमविशदग्विश्वरूपः सतच्च । नेमिनाथ-वियोगका कथानक है। यह भी अप्राप्य स्वान्तस्थे मैव साध्यं तदमलमतयस्तत्पदध्यानबीनं, चित्तस्थैर्य विधातुं तदनवगुणग्रामगाढ़ामरागं, ५ अध्यात्म-रहस्य-योगाभाष्यका आरम्भ करने तत्पूजाकर्म कर्मच्छिदुरमति यथा त्रमासूत्रयन्तु ॥ २॥ वालोंके लिये यह बहुत ही सुगमयोगशास्त्रका १२ काव्यालंकार टाका-अलंकारशास्त्रके सुप्रग्रंथ है । इसे उन्होंने अपने पिताके आदेशसे लिखा सिद्ध आचार्य रुद्रटके काव्यालंकार पर यह टीका. था। यह भी अप्राप्य है। लिखी गई है । अप्राप्य । ६ मूलाराधना-टीका-यह शिवार्य की प्राकृत १३ सहस्रनामस्वतन-सटीक-पण्डित आशाधर भगवती आराधनाकी टीका है जो कुछ समय का सहस्रनाम स्तोत्र मवत्र सुलभ है । छप भी
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy