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वर्ष ३, किरण ११]
पंडितप्रवर पाशाधर
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बीचमें इसमें सुन्दर पद्य भी प्रयुक्त हुए हैं। अभी पहले शोलापुरसे अपराजितसूरि और अमितगति तक यह कहीं प्राप्त नहीं हुआ है।
की टीकाओंके साथ प्रकाशित हो चकी है। जिस __२ भरतेश्वराभ्युदय—यह सिद्धयङ्क है । अर्थात् प्रति परसे वह प्रकाशित हुई है उसके अन्तके कुछ इसके प्रत्येक सर्गके अन्तिम वृत्तमें 'सिद्धि' शब्द पृष्ठ खो गये हैं जिनमें पूरी प्रशस्ति रही होगी। आया है । यह स्वोपज्ञ टीका सहित है । इसमें इष्टोपदेश टीका-आचार्य पूज्यपादके सुप्रसिद्ध प्रथम तीर्थकरके पुत्र भरतके अभ्युदयका वर्णन ग्रन्थकी यह टीका माणिकचन्द जैन-ग्रन्थमालाके होगा। सम्भवतः महाकाव्य है। यह भी अप्रा- तत्त्वानुशासनादि-संग्रहमें प्रकाशित हो चुकी है।
_____८ भूपालचतुर्विन्शतिका-टीका-भूपालकविके प्र३ ज्ञानदीपिका-यह धर्मामत (सागार-अन- सिद्ध स्तोत्रकी यह टीका अभी तक नहीं मिली। गार)की स्वोपज्ञ पंजिका टीका है। कोल्हापुरके जैन आराधनासार टीका-यह आचार्य देवसेनके मठमें इसकी एक कनड़ी प्रति थी, जिसका उपयोग आराधनासार नामक प्राकृत पन्थकी टीका है। स्वः पं० कल्लापा भरमाप्पा निटवेने सागारधर्मा- १० अमरकोष टीका-सुप्रसिद्ध कोषकी टीका । मृतकी मराठी टीकामें किया था और उसमें अप्राप्य । टिप्पणीके तौर पर उसका अधिकांश छपाया था। क्रियाकलाप-बम्बईके ऐ० पन्नालाल उसी के आधारसे माणिकचन्द-ग्रन्थमाला द्वारा सरस्वती-भवनमें इस ग्रंथकी एक नई लिखी हुई प्रकाशित सागारधर्मामृत सटीकमें उसकी अधि- अशुद्ध प्रति है, जिसमें ५२ पत्र हैं,और जो १९७६ काँश टिप्पणियाँ दे दी गई थीं। उसके बाद निट• श्लोक प्रमाण है । यह ग्रन्थ प्रभाचन्द्राचार्यके क्रियावेजीसे मालूम हुआ था कि उक्त कनडी प्रति जल- कलापके ढंगका है । ग्रंथमें अन्त-प्रशस्ति नहीं है। कर नष्ट हो गई ! अन्यत्र किसी भण्डारमें अभी प्रारम्भके दो पद्य ये हैंतक इस पंजिकाका पता नहीं लगा। जिनेन्द्रमुन्मूलितकर्मबन्धं प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूपं । ___४ राजीमती विप्रलंभ-यह एक खण्डकाव्य है अनन्तबोधादिभवं गुणौघं क्रियाकलापं प्रकटं प्रवषये ॥१॥
और स्वोपज्ञटीकासहित है। इसमें राजमतीके योगिध्यानैकगम्यः परमविशदग्विश्वरूपः सतच्च । नेमिनाथ-वियोगका कथानक है। यह भी अप्राप्य स्वान्तस्थे मैव साध्यं तदमलमतयस्तत्पदध्यानबीनं,
चित्तस्थैर्य विधातुं तदनवगुणग्रामगाढ़ामरागं, ५ अध्यात्म-रहस्य-योगाभाष्यका आरम्भ करने तत्पूजाकर्म कर्मच्छिदुरमति यथा त्रमासूत्रयन्तु ॥ २॥ वालोंके लिये यह बहुत ही सुगमयोगशास्त्रका १२ काव्यालंकार टाका-अलंकारशास्त्रके सुप्रग्रंथ है । इसे उन्होंने अपने पिताके आदेशसे लिखा सिद्ध आचार्य रुद्रटके काव्यालंकार पर यह टीका. था। यह भी अप्राप्य है।
लिखी गई है । अप्राप्य । ६ मूलाराधना-टीका-यह शिवार्य की प्राकृत १३ सहस्रनामस्वतन-सटीक-पण्डित आशाधर भगवती आराधनाकी टीका है जो कुछ समय का सहस्रनाम स्तोत्र मवत्र सुलभ है । छप भी