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सपादशत ग्रन्थ प्रणेता योगनिष्ट श्रीमद बुद्धिसागर सूरीश्वरजी महाराज साहब
आध्यात्मिक हरि या ली
-पन्यास धरणेन्द्रसागर
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"कैलाशकल्याणपद्मसागर सूरी गुरुभ्यो नमोनमः"
मक हरि
रियाली
आध्यादि
SOHAMPHATED : आ श्री कैलालनागर सरि ज्ञान मंदिर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा "अध्यात्म ज्ञाननी गंगा बहावे,
अजित ऋद्धि कोति पावे । कैलाश सुबोध मनोहर भावे,
जागा कल्याण पद्म बुद्धि गुण गावे ॥"
कार: lulell.
RIME-पत्यास धरणोन्दसागर ( ग)
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* पुस्तक का शीर्षक : आध्यात्मिक हरियाली * पुष्पांक * सम्पादक पन्यास श्री धरगोन्द्रसागरजी म. सा. * संकलन कर्ता पन्यास श्री धरगोन्द्रसागरजी म. सा. * श्री वीर संवत् : २५१५ * श्री विक्रम संवत् : २०४४ * ईस्वी सन् १९55 * प्रथमावृत्ति प्रतियां: २५०० * मूल्य
: सात रुपये * मुद्रक
: श्री प्रिन्टर्स, कबुतरों का चोंक, जोधपुर * अक्षर योजक : मो. हसन शेख, रवि मोझा, किशोर
प्रति स्थान: हु क म ज्ञान ट्रस्ट विजय कुमार मोहणोत, एडवोकेट ढढ्ढ़ा भवन, डबगरों की गली, बाईजीका तालाब, जोधपुर (राज.) मोती चौक,जोधपुर-३४२००१ फोन : २५४४१ पी. पी. श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ संघ
श्री रत्नप्रभ धर्म गुरु भवन, जमालगांव आहोर की हवेली के पास,
जोधपुर (राजस्थान) आ.श्री. कैलासमागर सरि ज्ञान मंदिर श्री महावीर जैन साधना केन्द्र, कोबा मा .
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-: प्रस्तावना :हरियाली साहित्य का एक ऐसा गंभीर सागर है, जिसमें गोता लगाने पर गोताखोर को अनायास ही अनेक अनमोल मोती प्राप्त हो जाते हैं। हरियाली का अर्थ है बुद्धि को तीक्ष्ण करने वाला यंत्र ।
साथ ही हरियाली के पद्य लोगों का मनोरंजन भी करते हैं और यात्रा आदि में समय व्यतीत करने का एक अच्छा साधन भी है। समयव्यतीत करने के लिये ताश खेलने या सस्ते कामोत्तेजक उपन्यास पढ़ने की अपेक्षा हरियाली के पद्यों के उत्तर ढूंढ़ने पर आपकी बुद्धि भी बढ़ेगी और साहित्य का ज्ञान भी होगा।
जैन परिभाषा में हरियाली का अर्थ है ऐसा पद्य जो सरसरी दृष्टि से देखने पर विचित्र और परस्पर विरोधी लगे किंतु उसका वास्तविक अर्थ कुछ और ही हो। गुजराती में इसे विपरीत वाणी, अव्वल वाणी या अवली वाणी भी कहते हैं। हिन्दी में इसे द्विअर्थात्मक व्यंग पद्य भी कह सकते हैं। संस्कृत अलंकार साहित्य में इसे विपर्यय अलंकार कहा जाता है।
सत्य बात को विपरीत भाषा में कहने की कला, जिससे वह सत्य भी पढ़ने वाले को असंभव सा लगे, इसी को विपर्यय कहा जाता है।
सुन्दर विलास में ऐसे अनेक विपर्यय दिखाये गये हैं, जैसे :अंधा तीन लोक कुं देखे,
बरा सुने बहुत विध नाद। नकटा बास कमल की लेवे,
गूंगा करे बहुत संवाद ॥१॥ ठ्ठा पकरी उठावे परवत,
पंगु करे निरत प्रहलाद । जो कोउ या को प्ररथ विचारे, ज
न -सुन्दर सोई पामे स्वाद ॥२॥
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ज्ञानी पुरुष अपने केवलज्ञान से ब्रह्म रूप तीनों लोकों के सर्व किंतु अपने नेत्रों द्वारा राग द्वेष इसीलिये पद्य में कहा है कि अंधा
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कल्पित संसार का अनुभव करता है पूर्वक बाह्य पदार्थो को हनीं देखता, तीन लोक को देखे ।
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अनुकूल प्रतिकूल बाह्य शब्दों को राग द्वेष पूर्वक सुनने के स्वभाव से जो निवृत्त हो चुके हैं, वे ध्यान मग्न होने से कुछ भी बाह्य शब्द नहीं सुनते इसलिये उन्हें बहरे की उपमा दी गई है, किंतु वे अनहद ध्वनि रूपी अनेक प्रकार के नाद को सुनते हैं ।
नासिका द्वारा आते जाते प्राण और अपान वायु को वश में रखने वाले और प्रतिष्ठा की स्पृहा नहीं रखने वाले योगी को नकटे की उपमा दी गई है, वे अपने हृदय स्थित ब्रह्म रूपी कमल के आनन्द रूप गंध का अनुभव करते हैं ।
THIFFOR
वाणी से सत्य, हित, प्रिय और मित बोलने वाले या वारणी से परे रहने वाले योगी को गूंगे की उपमा दी गई है, ऐसी योगी अजपाजाप रूपी सुन्दर वाद करते हैं, अतः गूंगे का संवाद करना कहा गया है ।
कर्त्ता या भोक्ता के अभिमान से दूर हैं उनके राग द्वेष रूपी दोनों हाथ न होने से उन्हें ठूंठा कहा गया है, ऐसे व्यक्ति अपने अन्तःकरण रूपी पृथ्वी से बड़े पर्वत को भी उठा देते हैं ।
संकल्प विकल्प रूपी पाँव से जो रहित हैं, ऐसे ज्ञानी व्यक्ति को पंगु की उपमा दी गई है, वे स्वयं के सर्व व्यापक स्वरूप का अनुभव करते हैं अत: उन्हें नृत्य का आनन्द लेना बताया गया है । सुन्दरदासजी कहते है कि जो व्यक्ति इस पद्य के गूढ अर्थ पर विचार करेंगे, वे ब्रह्म रूपी उत्तम सुख का अनुभव करेंगे ।
fp TS राजस्थानी भाषा में इसको 'हींयाली' कहते हैं । यह पद्य में है और गेय है । हींयाली साहित्य १२ वीं १३ वीं शताब्दी तक का मिलता है । हरियाली को सुनकर बच्चे, युवा, वृद्ध सभी अपनी बुद्धि को दौड़ाते हैं । किंतु जब उत्तर नहीं मिलता तो पूछने वाले का मुँह
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तकने लगते हैं। उत्तर बता देने पर जब वह उत्तर उनका जाना पहचाना लगता है तो तिलमिला ठते हैं। उन्हें अपनी यह हार बड़ी मीठो लगती है।
राजस्थान हीयाली के एक-दो उदाहरण देखिये !- ऊंडो रोटो घी घणो रे, बैरे माँय उडदों दाल, म्होरा राज । पुरीसण आली पदमणी रे, पो तो जीमण पालो गंवार, म्होंरा०॥
म्होरो हीयाली रो अरथ करो। जे थाने अरथ न उकल रे, थारे बडौर वीर ने तैडावो, म्होंरा० ।।
म्होंरी हीयाली रो अरथ करो।
(उत्तर :- मतीरा, तरबूज, खरबूजा) आठ कूपा रे नव बावडी रे, वो तो दोसै समद तलाब, म्होंरा० । हाथी घोड़ा डूब यया रे, मणिहारी खाली जाय, म्होंरा० ।
म्होरी रे हीयाली रो अरथ करो ॥ जे थांने अरथ न उकलै रे, थारे काकोजो ने तैडावो, म्होंरा राज। ग
म्होरी रे हीयाली रो अरथ करो। RISTIPTIST (उत्तर :- काच, दर्पण, आदर्श)
इस प्रकार हरियाली या हीयाली प्राचीन गुजराती राजस्थानी साहित्य की एक मनोरंजक विद्या है, जिसके पठन पाठन द्वारा पाठक अपनी बुद्धि को तीक्ष्ण करते हुए साहित्य का रसास्वादन तो करेंगे ही, साथ ही उसके गूढ अर्थ को जान कर धार्मिक आध्यात्मिक ज्ञान की वृद्धि भी कर सकेंगे।
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SITE
जज जोधप
-पन्यास धरोन्द्र सागर 23-11-1987
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*
दा
शब्द
*
ध्यान-योगीयों में यह भाषा बहुत ही प्रचलित है- करीब २००० वर्षों से यह भाषा-योगीयों द्वारा-एक दूसरे योगी या-शिष्य को समझाने में उपयोग होती रही। कबीर और दूसरे ध्यान-योगीयों ने इस संधा-भाषा या सैना-बैना और "उलटबाँसीया" कहा है । कबीर की "उलटबाँसीया" बहत प्रसिद्ध है। ये ज्यादातर पद्यों में है।
उलट बाँसीया यानी बाँस को उलटना। उल्टो को सीधा करने का जबाव देना । ये भाषा अजब है।
चीनी ध्यान साहित्य में तो ऐसी भाषा की भरमार है। ऐसे विचित्र भाषा प्रसंगों की करीब ६०० जिल्द मिलती है। इन्हें वे "कोआन" कहते हैं । जब इन ध्यानियों ने जापान में प्रवेश किया तो ये "को-आन" वहाँ भी प्रचलित हो गये।
ये रहस्य मय संकेत ज्यादातर गुरु शिष्य के प्रश्नोत्तर में ही होते थे। साधारण जन को थोड़ा कठिन अवश्य होता था-पर रोचक भी।
जैन परम्परा में भी ऐसे अनेक ध्यान योगी हुए हैं। जिनमें आनन्द घन का पहला स्थान है। इन्होंने ऐसे अनेक पद संघा-भाषा (संकेतिक भाषा) में कहे हैं जो साधारण तथा समझने में मुश्किल है क्योंकि भाषा लोकिक पर अर्थ है-लोकोत्तर । और कभी कभी तो परिपक्व बुद्धिमान भी अर्थ का अनर्थ कर लेते हैं । या फिर इन्हें सस्ता, मनोरंजन, कहकर टाल देते हैं। और इसका कारण है कि इसके पीछे छीपे रहस्य पर हम ध्यान न देकर सिर्फ शब्दों पर ही ध्यान देते हैं या अपने परिवेश में ही देखते हैं।
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विद्वान पन्यास जी म.सा. ने पाठकों को इन पदों का रहस्य अच्छी तरह से समझ में आवे ऐसी सुन्दर शैली में उसका अर्थ-विवेचन किया है। जो-सामयिक एवं उपयोगी है।
हर पाठक एवं अध्यात्म में रूचि लेने वाला इससे जरुर लाभान्वित होगा। यह प्रकाशन अपूर्व लगता है। शायद हमारे जाने हिन्दी में यह प्रथम प्रयास है । और भी भविष्य में ऐसे ही अपूर्व साहित्य की आशा रखते हैं।
माना
-मुनि जगतचन्द्र विजय
राजेन्द्रसूरी ज्ञान मन्दिर खैरादियों का बास, जोधपुर ११-२-८८
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तल्या
किन पन्यास प्रवर श्री धरणेन्द्र सागरजी महाराज ने हरियाली साहित्य का गंभीर अध्ययन, मनन एवं चिन्तन कर प्रस्तुत पुस्तिका का संपादन किया है। इसमें आध्यात्म योगी श्रीमद् आनंदघनजी महाराज उपाध्याय श्री यशोविजय महाराज, मुनिराज श्री विनयसागरजी महाराज, एवं मुनिराज श्री ज्ञानविजयजी महाराज आदि की कृतियों को उजागर किया हैं। अवधूत ज्ञानयोगी श्रीमद् आनन्द घनजी महाराज सत्रहवीं अठारहवीं सदी की एक महान् विभूति हुए है जिनके द्वारा रचित स्तवन, सज्झाय आदि में तर्क शास्त्र एवं अलंकार शास्त्र की पूर्ण दक्षता परिलक्षित होती है। उन्होंने अपने पदों में विरही स्त्री को दशा के चित्रण में आध्यात्म को उतारने का प्रयास किया है जिसका प्रमुख उदाहरण पुस्तक का प्रथम सोपान 'ससरो मारो बालो भोलो' है। इस पद में श्रीमद् ने क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों को समझाने का अद्भूत प्रयास किया है । उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज भी उनके समकालीन थे। श्रीमद् आनंदघनजी का विचरण मारवाड़ व आबू प्रदेश में विशेष रुप से जुड़ा हुआ तथा मेड़ता सिटी में ही आप कालधर्म को प्राप्त हुए। वहां विक्रम संवत् १७५३ की आपकी एक देहरी अभी भी विद्यमान हैं तथा अब वहाँ एक भव्य समाधि मंदिर निर्णाम की योजना बनाई जा रही है।
ऐसा प्रतीत होता है कि हरियाली साहित्य मारवाड़ी व गुजराती में अलग-अलग एवं दोनों को मिश्रीत भाषा में भी उपलब्ध है क्योंकि इसकी रचना मारवाड़ व गुजरात के जुड़े हुए प्रदेशों में विशेष रुप से हुई है। आज हिन्दी साहित्य में समस्या पूत्ति व पहेलियों तथा आंगल साहित्य में क्यूज (Quitz) आदि की जो पद्धति प्रचलित है। मध्यकालीन युग का हरियाली साहित्य उसी का प्राचीनतम रुप हैं।
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यह साहित्य बुद्धि विनोद पर आधारित है और गूढ़ रहस्य से भरा हुआ है । अतः इसे समझने हेतु जिज्ञासु को अपने मस्तिष्क को व्यायाम करना पड़ता है। इसमें तर्क की प्रधानता है और बिना तार्किक बुद्धि के इसे समझना संभव नहीं हैं । इस साहित्य में सांसारिक जीवन की बातों के माध्यम से आध्यात्म के गंभीर विषय को समझाने का अद्भुत प्रयास किया गया है जिसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत है ।
प्रस्तुत पुस्तक में पृष्ट २६ पर मुनिराज श्री विनयसागरजी द्वारा रचित यह एक पद्य है
TELY
आठ नारी मली एक सुत जायो, बेटे बाप वधार्यो । चोर वस्यो मंदिर मां आवी, घरथी साह कढ़ायो ||
यहाँ ज्ञानावरणय, दर्शनावरर्णीय, वेदनीय, मोहनी, आयुष्यं, नाम, गोत्र एवं अंतराय के आठों कर्मो की उपमा आठ नारियों से दी गई है जिन्होंने मिलकर संसार रुपी पुत्र को जन्म दिया है जिसने मोह रुपी पिता को बढ़ाया है । परिणाम स्वरुप विषय वासना रूपी चोर शरीर रुपी मंदिर में जम कर बैठ गया है और शील रूपी सेठ को घर से निकाल कर बाहर कर दिया है ।
मुनिराज श्री ज्ञानविजयजी ने मोती को समझाने के लिये उसकी उपमा जल में उत्पन्न होने वाले फल से दी है । पुस्तक के पृष्ट ३२ पर यह पद्य इस प्रकार है :
जल मांही फल नीपजे, वरण डांडी फल होय । रावां के घर ही हौवे, रांका के घर नांहि ॥
FIVE
अर्थात् मोती एक ऐसा फल है जो समुन्द्र में ही उत्पन्न होता है और उस फल में कोई डांडी या डंठल भी नहीं होता । परिवारों में ही होता है निर्धनों में नहीं । मुनि श्री ने
यह फल संपन्न इसी कड़ी में
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आगे पृष्ठ ३३ पर 'रावरण मंदोदरी' का वर्णन निम्न पद्य में उनके कानों की संख्या के माध्यम से किया गया है
च्यारै पाया च्यारै ईस, बै जण बैठा करे जगीस । खाय काथो ने पान, बेइ जणां के कान बावीस ।।
अर्थात् चार पागे और चार ईस वाले पलंग पर दो जणे बैठे अठखेलियाँ करते हुए कत्था व पान खा रहे हैं परन्तु उनके दोनों के मिलाकर बाईस कान है। चुकि रावण के दस सिर थे, कान बीस
और मंदोदरी के दो कान जोड़ने पर यह संख्या बाईस होती है तो इससे यह कथन रावण मंदोदरी पर ही लागू पड़ता है अन्य किसी पर नही ।
मुनि श्री विनयप्रभ सूरि जी कृत आत्मोपदेश सज्जाय पृष्ठ ४३ में गुजराती निम्न पद्य में ससुराल के जीवन के माध्यम से विरक्ति मार्ग को समझाने का सुन्दर प्रयास किया गया है
सासरिये अम जइये रे भाई, सासरिये अम जइये ।
जिन धर्म ते सासरु कहिये, जिनेश्वरदेव ते ससरो ।। जिन आणा सासु रहियाली, तेना कह्यामां विचरो रे बाई । अरारे परां कयांहि न भभीये, ममता जस नवि लहिये रे बाई॥
इस पद्य में सुशील स्त्री कह रही है कि मैं ससुराल जाऊँगी, अवश्य जाऊँगी। परन्तु वह आगे कहती है कि जिन धर्म मेरा ससुराल है, जिनेश्वर देव मेरे श्वसुर है, जिनाज्ञा मेरी सुन्दर सास है। मैं सदैव उसी की आज्ञानुसार विचरण करती हूँ। इसलिये इधर-उधर कहीं भटकना व्यर्थ है क्योंकि इधर उधर भटकने से कभी यश प्राप्त नहीं होता है।
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उपरोक्त चन्द उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि हरियाली साहित्य गागर में सागर की तरह है । अतः हम जितना ही अधिक इसकी गहराई में गोता हम लगायेंगे, उतने ही अधिक मोती इसके भू-गर्भ से निकाल कर बुद्धिमान एवं तर्कशील बन सकेंगे । इस दृष्टि से इस अनमोल साहित्य की सेवा करते हुए इसे उजागर करने का जो पुनीत कार्य पन्यास जी श्री घरणेन्द्रसागर जी महाराज ने किया है । वे हमारे साधुवाद के पात्र हैं ।
जोधपुर
दिनांक २१-२-८८
मेरा मंतव्य है कि प्रस्तुत पुस्तिका समस्त जिज्ञासु पाठकों के के लिये जीवनोपयोगी प्रमाणित होगी तथा उससे प्रेरित होकर विद्वान संपादक इसी प्रकार के साहित्य का आगे भी प्रकाशन करवाने की चेष्टा व प्रयास कर समाज को लाभान्वित करेंगे । इसी शुभ आशा के साथ ।
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15
डॉ० अमृतलाल गांधी प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, विश्वविद्यालय जोधपुर (राज०)
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m :-प्रकाशकीय -:
पन्यास प्रवर श्री धरणेन्द्रसागर जी म. सा. द्वारा संकलित व संपादित पुस्तक प्राध्यात्मिक हरियाली का प्रकाशन करके मुझे अपूर्व संतोष व पानंद प्राप्त हुना है। पूर्व में भी अनेक धार्मिक पुस्तके प्रकाशित करने का अवसर मिला है। लेकिन इस पुस्तक को भाषा व लिखने के विशिष्ट तरीके के कारण पुस्तक का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। ना
वैसे तो पुस्तक के प्रकाशन में कोई त्रुटि व अशुद्धिन रहे इसके लिये पूरा प्रयास किया गया है परंतु उसके उपरांत भी कुछ त्रुटि व अशुद्धि का रह जाना स्वाभाविक है । मुझे माशा कि जागरुक व प्रबुद्ध पाठकगण अशुद्धियों को सुधार कर इसका वाचन करेंगे।
महाराज श्री को इस पुस्तक के प्रकाशन में मेरे पूरे स्टाफ व विशेष रूप से श्री विजयकुमार जी मोहरणोत, एडवोकेट का सहयोग व प्रयास रहा है। जिसके लिये में उनका विशेष आभारी हूं क्योंकि महाराज श्री की इस पुस्तक के सारे पृष्ठों का पू. फ संशोधन तथा पुस्तक का सुव्यवस्थ रूप इन्होंने किया है।
पुस्तक की छपाई व इसके मुखपृष्ठ को अधिकाधिक आकर्षक बनाने का हमारा पूरा प्रयास रहा है। आशा है कि यह पाठकों को अवश्य पसंद नायेगी । श्री प्रिण्टर्स, रावजी की हवेली,
नरपतसिंह लोढ़ा कबूतरों का चौक, जोधपुर (राज.)
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-प्राक्कथन :Har अध्यात्म मानव का वास्तविक मार्गदर्शक है। इस के बिना जीवन अधूरा है, भटकाव वाला है। परन्तु अध्यात्म में रुचि पैदा कैसे हो?
जीवन के दैनिक व्यवहार में मनुष्य के समक्ष समय-समय पर अनेक समस्याएँ आती है । क्यों आती हैं, और उनके प्रति सजग कैसे रहा जा सकता है ? समस्याएँ ही रूपान्तरण में सुख-दुःख का कारण बन जाती हैं। सुख-दुःख में भटकने के कारण जीवात्मा को सही रास्ता नहीं मिल पाता, इसीलिए अध्यात्म का महत्व है, जो प्राणी को सही मार्ग दिखा कर जीवात्मा को अग्र-गति प्रदान करने में समर्थ है। ज्ञान की प्राप्ति होकर मोक्ष का अधिकार सम्भव है।
इस दृष्टिकोण से इस पुस्तिका में प्रस्तुत साहित्य का महत्व है। इधर-उधर बिखरा हुआ साहित्य, जो जन-साधारण को साधारणतया उपलब्ध न था, इकठ्ठा किया गया है। हिन्दी अनुवाद ने चार चाँद लगा दिए हैं। इस प्रकार जनसाधारण के लिए समझना सुलभ हो गया है।
इस महत्वपूर्ण साहित्य के प्रकाशन हेतु संग्रहकर्ती पन्यास श्री धरणेन्द्रसागरजी महाराज के प्रति जन-साधारण आभारी रहेगा। शिव रोड़, रातानाडा, गोविन्द नारायण मौहणोत जोधपुर(राज.)
एडवोकेट दिनांक 29-2-88
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* निवेदन-* •पन्यास प्रवर श्री धरणेन्द्रसागर जी महाराज साहब ने अपनी पूर्व में सम्पादित पुस्तक “योग-शास्त्र" में भी मुझे सेवा करने का अवसर दिया उसके लिये मैं महाराज श्री का परम आभारी हूँ। इसी कड़ो में महाराज श्री द्वारा प्रस्तुत यह पुस्तक "आध्यात्मिक हरियाली" को सुव्यवस्थित रूप से क्रमबद्ध करके इसे प्रकाशित कराने का कार्य भी मुझे सुपुर्द किया जो मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है।
महाराज श्री ने प्रस्तुत पुस्तक का संकलन विभिन्न गुजराती भाषा में प्रकाशित पुस्तकों व लेखों से किया जिसका हिन्दी में अनुवाद करवा कर प्रकाशित किया गया है। मेरी समझ में यह हिन्दी भाषा में इस तरह की आध्यात्मिक रहस्य की प्रथम पुस्तक है। इस पुस्तक में महाराज श्री ने गहन व गूढ़ भाषा का भावार्थ आध्यात्मिक दृष्टि से समझाने का पूर्ण प्रयास किया है। इस तरह की भाषा में वास्तविक अर्थ कुछ और ही निकलता है व पढ़ने पर पाठक को अर्थ कुछ और ही समझ में आता है। इस तरह की भाषा को महाराज श्री की इस पुस्तक के जरिये आप सभी तक पहुंचाने का प्रयास किया है।
● प्रस्तुत पुस्तक में मेरे द्वारा हर संभव प्रयास करके अपनी बोलचाल की भाषा प्रत्येक पद का हिन्दी भावार्थ व अनुवाद के साथ प्रकाशित कराने का प्रयास किया है। और महाराज श्री द्वारा इस प्रकार की एक गम्भीर एवम् महत्वपूर्ण पुस्तक समाज के लिए प्रस्तुत की है जो साहित्य के क्षेत्र में एक विशेष उल्लेखनीय योगदान है। भविष्य में महाराज श्री इसी तरह से और भी हमारे लिए जीवनोपयोगी पुस्तकें सम्पादित करके हमारे जीवन में मार्ग दर्शन प्रदान करते रहें। यही हमारी महाराज श्री से मंगलकामना है।
विजयकुमार मोहणोत
एडवोकेट (राजस्थान उच्च न्यायालय)
बाईजी का तालाब, दिनांक : 29-2-88
जोधपुर (राज)
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:- आशीर्वचन -
संगीत की मधुरता प्राणी मात्र को आनन्द प्रदान करती है। शास्त्रीय संगीत के रसपूर्ण गीत आत्म-विभोरता के लिये प्रभावशाली होते हैं उसी तरह जीवन में मनोरंजन हेतु साहित्य भी अपना एक विशेष स्थान रखता है।
- विश्व में विविध प्रकार का साहित्य विद्यमान हैं। उसमें 'हरियाली-हीयाली साहित्य भी अति सुन्दर सिन्धु-सागर के समान है जिसमें अनेक अनमोल मोती पडे हैं उसको सही रुप में डुबकी लगाने वाले अनायास ही वे प्राप्त करते हैं।
इस हरियाली-हीयाली प्राचीन साहित्य का सर्जन गुजराती और राजस्थानी इत्यादि भाषा में गूढार्थ गद्य रुपे कृत्ताओं ने अति सुन्दर और मनोरंजक किया है । जो व्यक्ति इस पद्य के गूढार्थ पर अपनी बुद्धि को सही रुप में लगायगे और विचार-विमर्श करेंगे, वे ब्रह्मरुपी उत्तम सुख का सुन्दर अनुभव करेंगे।
इस पुस्तिका में प्राचीन हरियाली-हीयाली साहित्य का संग्रह करके सम्पादन कार्य विद्वान पन्यास प्रवर श्री धरणेन्द्र सागरजी ने किया है, वह बहुत ही प्रशंसनीय है।
गांव-पोस्ट-चान्दराई जिला-जालोर (राज.) दिनांक १-३-८८
-प्राचार्य विजय सुशील सूरी
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- अनुक्रमणिका - क्रम संख्या विवरण
पृष्ठ संख्या 2. ससरो मारो बालो भोलो
१- ३ जिजा (कृत : श्रीमद् अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी महाराज) या २. एक पद का भावार्थ
४- ६ (विरचित : श्रीमद् अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी महाराज)
(संग्राहक : मुनिराज श्री यशोभद्र विजयजी) ३. हरियाली
७-१२ (कृत : श्रीमद् अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी महाराज) ४. हरियालिये (कृत : सुधन हर्ष)
१३-२४ ५. हरियाली (कृत अर्थयुक्त : श्री विनयसागर मुनि) २५-२७ ६. हरियाली: कुछ समस्याओं का संग्रह
२८-३१ ( संग्राहक : मुनिराज श्री ज्ञानविजय जी ) ७. हरियाली: कुछ उद्धरण-समस्याएँ
(संग्राहक : मुनिराज श्री ज्ञानविजय जी) ८. हरियाली
३६-३७ (कृत : उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी) ६. हरियाली और उसका अर्थ
३८-३६ (कृत : कवि कान्तिविजय जी) १०. आध्यात्मिक ससुराल और शृंगार
४०-४२ ११. प्रात्मोपदेश - सज्झाय (स्वाध्याय)
४३-४६ (कृत : श्री विनयप्रभसूरी जी) १२. ढाई सौ वर्ष पुरानी समस्या
४७-४८ १३. हरियाली : गूढार्थ स्तुति
४९-५१ १४. हरियाली
५२-५५ १५. हरियाली
५६-६१ १६. हरियाली
६२-६७
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स्व. श्रीमान् गुलाबचन्द साहब मोहणोत
भोपालगढ़ ( राजस्थान)
* जसराज गुलाबचन्द मोहणोत चेरीटेबल ट्रस्ट
भोपालगढ़, जिला-जोधपुर (राज.)
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* ससरो मारो बालो भोलो *
(कृत : श्रीमद् अध्यात्मयोगी भानन्दघनजी महाराज ) 'अवधु ऐसो ज्ञान विचारी, वाये कोण पुरुष कोण नारी ?"
इस पद में वास्तव में पुरुष कौन है ? नारी कौन है ? सत्ता किसकी चल रही है ? स्वाधीन - स्वामी कौन है ? पराधीन दासी कौन है ?
इस पद्य में एक गूढ़ समस्या उपस्थित है कि एक स्त्री विवाहित भी नहीं और कुँवारी भी नहीं है । ऐसा कैसे हो सकता है ? तो क्या वह वैश्या है ? किन्तु पद्य में आगे कहा गया है कि 'उसने किसी काली दाढ़ी वाले को भी नहीं छोडा है, फिर भी वह ब्रह्मचारिणी है ।' इन सभी परस्पर विरोधी बातों को समझने के लिये पहले 'भवितव्यता' का स्वरुप बराबर समझ लेना चाहिये ।
अब हम पहले 'ससरो मारो बालो भोलो' पद्य का अर्थ करेंगे, पीछे 'भवितव्यता' की बात करेंगे । पद्य इस प्रकार है:
'ससरो मारो बालो भोलो, सासु बाल कुंवारी । पियुजी मारो पोढे पारणिये, तो में हुं भुलावन हारी ॥ नहीं हूं परणी नहीं हू कुंवारी, पुत्र जणावण हारी । काली दाढी को में कोई न छोड्यो, हजुए हुं बालकुंवारी ॥
वधु ऐसो ज्ञान विचारी, वाये कोण पुरुष कोण नारी ॥'
आनन्दघनजी महाराज ने तृष्णा को उपरोक्त रुपक पद्य में प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं कि "मेरे क्रोध नामक एक ससुर है, वह इतना भोला भाला है कि जहां कहीं जाता है, तुरन्त दिखाई दे जाता है । मेरी माया नामक सासु बाल कुँवारी है, क्योंकि वह बहुत चंचल होने से किसी एक घर में स्थिर होकर नहीं रहती । मेरा पति जीवात्मा तो अज्ञान के पालने में झूलता है और मैं स्वयं उसे झुलाती हूँ ।"
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( 2 )
"मैं स्वयं न तो विवाहित हूँ और न ही बाल- कुंवारी ही हूँ, फिर भी मेरे संकल्प - विकल्प नामक दो पुत्र हैं । इस संसार में मैंने किसी को नहीं छोड़ा है, फिर भी मैं तो बालकुमारी मानी जाती हूँ, क्यों कि मेरा पेट किसी दिन भरता ही नहीं। मैं तो देवताओं को भी नहीं छोड़ती । देवताओं को खाने-पीने की कोई चिंता नहीं, बाल बच्चों के शादी विवाह की कोई चिंता नही । न आभूषरण बनवाने पड़ते हैं न मकान क्योंकि उनके रहने के शाश्वत विमान होते हैं, फिर भी उनमें इतनी अधिक तृष्णा होती है कि अपने से अधिक ऋद्धि वाले देव को देखकर जल जाते है ।" आनन्दघनजी कहते है कि तृष्णा बहुत भयंकर है ।
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अब 'भवितव्यता' पर विचार करें । कर्म परिणाम राजा है, जिसके काल परिणति महाराणी है । कर्म परिणाम महाराजा को नाटक देखेने का, खेल तमाशे देखने का बहुत शौक है । वे लोगों को अनेक पात्रों के वेष देकर उनसे अनेक नाटक करवाते रहते हैं । किंतु संपूर्ण राज्य तंत्र काल परिणति महाराणी ही चलाती हैं । राजा से भी वह महाराणी अधिक प्रभावशाली है । किंतु इस महाराणी को संसार में बांझ के रुप में घोषित किया गया है ।
एक बार महाराणी को पुत्र प्राप्ति की इच्छा हुई । फलस्वरुप सुन्दर स्वप्न की पूर्व सूचनानुसार उसे सुमति नामक पुत्र हुआ। किंतु उस पुत्र को कहीं किसी की नजर न लग जाये इस हेतू मंत्रियों ने रानी को बांझ ही घोषित किया। बांझ की लोक मान्यता से घबरा कर महादेवी ने पुत्र प्राप्ति की फिर इच्छा की । राजा ने उसकी इच्छा को स्वीकार किया और कहा कि "तुझे पुत्र होगा ।"
यह दृश्य देखकर राजा-रानी की पुत्र वधु अशुद्धचेतना (भवितव्यता) नेकहा कि 'मेरा ससुर तो बहुत भोला भाला है । मेरी सास को अभी तक लाखों, करोड़ों, अरबों पुत्र हो चुके हैं, फिर भी वह अपने को अपुत्री - बांझ मानती है और पुत्र जन्म की इच्छा करती है, अत: उस सास को बालकुमारी ही मानना पड़ता है । इसी से कहा कि :
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(
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)
'ससरो मारो बालो भोलो, सासु बाल कुंवारी।'
जब संसारी जीव अव्यवहार राशि में से निकल कर व्यवहार राशि में आते हैं, तब वे कर्म परिणाम राजा और काल परिणति महारानी के पुत्र माने जाते हैं। उन पुत्रों को 'भवितव्यता' नामक स्त्री प्राप्त होती है । संसारी जीवों पर इस भवितव्यता का बहुत जोर चलता हैं ।
यह स्वाधीनता पति का भवितव्यता पतिदेव को अनेक भव संबंधी गोली खिला-खिला कर भिन्न-भिन्न भवों में(जन्मों में)भ्रमण कराती है। प्रत्येक भव की आयु पूरी होने पर वह नये भव के लिये गोली खिलाती है। उस गोली का रस पतिदेव के गले उतारना पड़ता है और उस रस के अनुसार उस जन्म में पतिदेव का नाम और रुप होता है। भवितव्यता का चेतनदेव के साथ देह संबंध थोड़ा भी नहीं होता। भवितव्यता तो प्राणी को मात्र एक भव में भोगने योग्य कर्म समूह को देती है । इस प्रकार पतिदेव को चारों गतियों में झलाती है। उस गोली के असर से पतिदेव चारों गतियों में भटकते रहते हैं।
अतः हे अवधूत ! विचार करो कि उपरोक्त पद्य में वास्तव में पुरुष कौन है ? स्त्री कौन है ? किसकी सत्ता है ? स्वाधीन कौन है ? स्वामी कौन है ? और पराधीन-दासी कौन है ?
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के एक पद का भावार्थ के (विरचित : श्रीमद् अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी महाराज) संग्राहक : मुनिराज श्री यशोभद्र विजयी
(राग - आसावरी) अवधू सो जोगी गुरु मेरा, इन पद का करे रे निवेडा ॥अवधू०॥ तरुवर एक मूल बिन छाया, बिन फूले फल बागा । शाखा पत्र नहि कछु उनकु, अमृत गगने बागा ॥अवधू०॥१॥
श्रीमान् आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि जो इस पद का अर्थ करेगा, उस अवधूत योगी को मेरा गुरु समझें ।
यहाँ आत्मा को वक्ष की उपमा दी गई है, किन्तु आत्मा अनादि काल से हैं, अत: वक्ष की भाँति आत्मा के जड़ नहीं है। आत्मा अरूपी है, इसलिये वृक्ष के समान उसकी छाया नहीं पड़ती। इसी प्रकार वृक्ष की भाँति उसके पत्ते, डालिये, फूल और फल भी नहीं है, किन्तु आत्मा रूपी वृक्ष के सिद्धशिला रूपी आकाश में अमृत रूपी मोक्ष फल लगता है, अर्थात् आत्मा संपूर्ण कर्मों का क्षय कर परमात्म पद को प्राप्त होती है । तरुवर एक पंखी दोउ बेठे, एक गुरु एक चेला। चेले ने जुग चुन चुन खाया, गुरु निरन्तर खेला ॥अवधू०॥२॥
___ शरीर रूपी वृक्ष पर आत्मा और मन रूपी दो पक्षी बैठे हैं, आत्मा गुरु है और मन शिष्य । गुरु शिष्य को हित शिक्षा देकर वश में रखने का प्रयत्न करते हैं, किंतु चंचल स्वभाव वाला शिष्य इन्द्रियों के विषयों में आसक्त हो जाता है और बाह्य पदाथ के अन्न कणों को चुन चुन कर खाता है, जबकि आत्मा रूपी गुरु तो सर्वदा अपने ज्ञानदर्शन-चारित्र रूपी गुणों में लीन रहता है।
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( 5 )
गगन मंडल के श्रध बीच कुवा, ठहां है अमी का वासा । सगुरा होवे सो भर भर पीवे, नगुरा जावे प्यासा ॥ अवधू०॥३॥
चौदह राजुलोक रूपी गगन मंडल के मध्य भाग में तिरछा लोक है, जिसमें मनुष्य क्षेत्र है । इस क्षेत्र में जिनेश्वर देवों का जन्म होता है, जो केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् धर्मोपदेश देते हैं । अतः मनुष्य क्षेत्र में श्रुत धर्म और चारित्र धर्म रूपी अमृत से भरा हुआ कुआ है । सुगुरु का सुशिष्य इस कुए में से अमृत के प्याले भर-भर कर पीता है और आनन्द का अनुभव करता है जबकि कुशिष्य प्यासा ही वापस लौटता है ।
जमाया ।
गगन मंडल में गउप्रा विहाणी, धरती दूध माखन था सो विरला पाया, छासे जगत भरमाया || श्रवधू ॥ ४ ॥ श्री जिनेश्वर देव के मुख रूपी गगन मंडल में वारणी रुपी गाय ब्यायी है । इस गाय से निकले उपदेश रुपी दूध को मानव लोक में एकत्रित किया गया है । इस दूध में से ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी मक्खन की उत्पति हुई, किंतु कुछ विरल व्यक्तियों ने ही इस मक्खन को प्राप्त किया, प्राप्त कर रहे हैं और प्राप्त करेंगे । शेष मिथ्यात्व के पंजे में फंसे हुए जीव तो स्वमत कदाग्रह, क्लेश और वितंडावाद रुपी खट्टी छाछ से ही भ्रमित हुए भ्रमित हो रहे हैं और भ्रमित होंगे ।
थड बिनुं पत्र पत्र बिनुं तुंबा, बिन जीभ्या गुण गाया । गावन वाले का रुप न देखा, सुगुरु सोही बताया || अवधू ॥ ५ ॥
तंदुरा (वाद्य) तुबे से बनता है । तुंबे की बेल के तो डाली, पत्ते, पुष्प आदि होते हैं, किंतु आत्मा रुपी तंदुरे के कुछ भी नहीं होता । इसे आत्मा रुपी गवैया बजाता है जब यह आत्मा रुपी तंदुरा प्रभु के गुण गान गाता है । तुंबे के तंदुरे के समान आत्मा का तंदुरा किसी से उत्पन्न नहीं होता अतः इसका रूप भी दिखाई नहीं देता । सुगुरु ने आत्मा का यह स्वरुप बताया है ।
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आतम अनुभव बिन नहि जाने, अन्तर ज्योति जगावे । घट अंतर परखे सोही मूरति, आनन्दघन पद पावे ॥अवधू०॥६॥
मनुष्य सम्यग ज्ञान के बिना जीव अजीव आदि नौ तत्वों का सूक्ष्म विचार करने में समर्थ नहीं हो सकता। जब तत्त्व विचार में समर्थ होता हैं तभी आत्म तत्त्व को निश्चय कर सकता हैं, तभी आत्मा की ज्ञान ज्योति को प्रकाशित करता है । इस प्रकार घट रुपी शरीर में स्थित ज्ञान आदि गुण वाली अन्तरात्मा को जो पहचान सकता है, ऐसा व्यक्ति ही शाश्वत आनन्द से व्याप्त मोक्ष पद को प्राप्त कर सकता है ।
[ इस पद के छटे छंद की अंतिम पंक्ति में कवि ने अपना नाम सूचित किया है । ]
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: हरियाली :
[ कृतः श्रीमद् अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी महाराज ] ( प्रेषक : चन्दनमल नागोरी, छोटी सादड़ी - मेवाड़ )
हरियाली
सरस्वती स्वामी करोरे पसाय, हुंरे गाउं रुडी कुलवहु रे पियुडो चाल्यो छे परदेश, घरे रही रुडं शीयल पालीये रे ।। हीरु नीरु सासरडे जाय, नानी ते धनुडी रमे ढोंगले रे । नरपत परपत निशाले जाय, नानी ते परियापत पोढयो पालणे रे ॥ बारे वर्ष आव्यो रे नहि, छोकरडा ने काजे यचकडा नवि लाविओ रे ।
तने पुछु शुकुलोणी नार, पीयु विष्णु छोकरडा क्यांथी प्राविया रे || गोत्र देवे कर्यो रे पसाय, साथ गोत्रे गोत्र वधाविया रे । एटले उडीने लाग्यो रे पाय, धन्य पनोती तूं कुलवहु रे ॥ एहनो रे अनुभव ढोरसे रे जेह, ते पामे रुढी शिववहु रे । आनंदघन भणे रे सज्झाय, सुणवां श्रवणे सुखदायी रे ॥
हिंदी शब्दार्थ :
सरस्वती देवी मुझ पर कृपा करें, मैं कुलवधु के सुन्दर गीत की रचना कर रहा हूँ । पति परदेश जा रहा है, तुम घर रह कर सुन्दरशील का पालन करना । हीरु नीरु ससुराल जा रही है, छोटी घनुड़ी कंकर खेल रही है । नरपत परपत स्कूल जा रहे हैं, छोटा परियापत झूले में झूल रहा है । बारह वर्ष तक घर नहीं लौटा। बच्चों के लिये खिलौना भी नहीं लाया । हे सुकुलवंत वधु ! मैं तुमसे पूछ रहा हूँ कि पति के बिना बच्चे कहाँ से आ गये ? गोत्र देव ने कृपा की है, गोत्र देव ने गोत्र
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( 8 ) बढ़ाया है। देव की कृपा से वे उडकर मेरे पास आये हैं। हे पवित्र कुलवधु ! तुझे धन्य है ! इसके अनुभव को जो प्राप्त करेंगे, वे सुंदर शिव-वधु को प्राप्त करेंगे। आनन्दघन यह सज्झाय पढते हैं, जिससे सुनना कानों को सुखदायी लगता है ।
हरियाली (१) कहिये पंडित कोण ए नारी, वीस वरस नी अवधि विचारी ॥१॥ दोय पिताए एह निपाई, संघ चतुर्विध मनमें आई ॥क. ॥२॥ कीडीए एक हाथी जायो, हाथी सामो ससलो धायो ॥क. ॥३॥ विण दीवे अजवाल थाये, कोडो ना दर मांहि कुंजर जाये॥क. ॥४॥ वरसे अग्नी ने पाणी दीपे, कायर सुभट तणा मद जोये ॥क. ॥५॥ ते बेटीये बाप निपायो, तेणे तास जमाइ जायो ॥क ॥६॥ मेह वरसतां बहु रज उडे, लोह तरे ने तरणु बुडे ।।क. ॥७॥ तेल फिरे ने घाणी पिलाए, घरंटी दाणे करीय दलाये ॥क. ॥८॥ बीज फले ने शाखा उगे, सरोवर आगे समुद्र न पूगे ॥क. ॥६॥ पंक जरे ने सखर जामे, भमे माणस तिहां घणे विसामे ॥क. ॥१०॥ प्रवहण उपरि सागर चाले, हरिण तणे बले डूंगर हाले॥क. ॥११॥ एहनो अर्थ विचारि कहियो, नहितर गर्व म कोइधरियो ।क.।।१२।। श्रीनयविजय विबुध ने शिष्ये, कही हरियाली मनह जगीसे।।क.॥१३॥ ए हरियाली जेनर कहेश्ये, वाचक जस जपे ते सुख लहेस्य ॥क.।।१४।। हिंदी शब्दार्थ :
हे पंडित ! बीस वर्ष तक सोच कर कहें कि वह स्त्री कौन है ? ॥१॥ दो पिता ने जिसे जन्म दिया, चतुर्विध संघ को जो पसंद आई ।।२।। चिउटी ने हाथी को जन्म दिया, हाथी के सामने खरगोश
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( 9 ) आया ।।३॥ बिना दीपक के भी प्रकाश होता है, चिउटी के बिल में हाथी समा रहा है ॥४॥ अग्नि बरस रही है और पानी जल रहा है, कायर योद्धा घमंड में जीता है ॥५॥ उस पुत्री ने पिता को जन्म दिया, उसने उसके जंवाई को जन्म दिया ॥६॥ मेह बरसने पर बहुत धूल उड़ती है, लोहा तरता है और तृण डूबता है ॥७॥ घाणी नहीं घूमती, तेल घूमता है और घाणी पीनी जाती है, चक्की दाने बन कर दली जा रही है ।।८।। बीज के फल लगता है और शाखा उगती है, तालाब के समक्ष समुद्र नहीं पहुँच सकता ॥६॥ कीचड़ जलता है और सरोवर जमता है, वहाँ मनुष्य बहुत भटकता है, जहाँ अधिक विश्राम मिलता है ॥१०॥ जहाज पर समुद्र चलता है, हरिण के बल से पर्वत हिलता है ।।११।। या तो सोच कर इसका अर्थ कहें, वरना कोई गर्व न करें ।।१२।। श्री नय विजय के शिष्य ने इस मनोरंजक हरियाली की रचना की हैं ।।१३।। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि जो इस हरियाली को पढेंगे वे सुख को प्राप्त करेंगे ॥१४॥
हरियाली (२) सखी रे में तो कौतुक दीढं, साधु सरोवर झीलता रे । स. । नाके रूप निहालता रे स., लोचनथी रस जाणता रे ॥स.॥१॥ मुनिवर नारी सुं रमे रे स., नारी हिंचोले कंथने रे । स.॥ कंथ घणा एक नारी ने रे स., सदा यौवन नारी ते रहेरे ।स.॥२॥ वेश्या विलुद्धा केवली रे स., प्रांख विना देखे घणुं रे । ऊ. । रथ बेठा मुनिवर चले रे स., हाथ जले हाथी डुबोया रे॥स.॥३॥ कूतरिये केसरी हण्यो रे स., तरस्यो पाणी नवि पोये रे । स. । पग विहुणो मारग चले रे, स. नारी नपुंसक भोगवे रे ॥स.॥४॥ अंबाडी खर उपरे रे स., नर एक नित्य उभो रहे रे । स. ।
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( 10 )
बेठो नथी नवि बेससे रे स., अधर गगन विच ते रहे रे ।। स . ।।५॥ माकड महाजन घेरीयो रेस, उंदरे मेरु हलावीयोरे । स. । सूरज अजवालुं नवि करे रे स., लघु बंधव बत्रीस गयारे ॥ स ॥ ६ ॥ शोके घडी नही बेनडी रे स., शामलो हंस में पेखीयो रे। स. । काट बल्यो कंचन गिरि रेस, अंजन गिरिउ जला थयारे ॥ स . ॥७॥ वयर स्वामी सुता पारणे रे स., श्राविका गावे हुलडा ज्ञे । स. । मोटा अर्थ ते कहेजो रे स., श्री शुभवारना वालडारे ॥स. ॥८॥ हिंदी शब्दार्थ :
हे सखी ! मैंने कौतुक देखा, साधु को तालाब में स्नान करते देखा । नाक से सौंदर्य देखते और आँख से रस का स्वाद लेते देखा ॥ १ ॥ मुनि को नारी से रमण करते देखा, स्त्री को अपने पति को झुलते देखा । एक स्त्री के कई पति देखे, फिर भी वह स्त्री सदा जवान रहती है || २ || वेश्या, विलुब्ध और केवली, आँख बिना बहुत देखते हैं । मुनि रथ में बैठ कर चलते हैं, हाथ भर जल में हाथी को डूबते देखा है || ३ || कुतिया ने केसरी सिंह को मारा । प्यासा है फिर भी पानी नहीं पीता । बिना पैर के ही मार्ग में चल रहा है । स्त्री नपुंसक से भोग कर रही है ||४|| गधे के पीठ पर अंबाडी रखी है । एक पुरुष नित्य खड़ा रहता है, कभी बैठना नहीं, न कभी बैठेगा, वह आकाश में अधर रहता है || ५ || मकड़ी ने महाजन को घेर लिया है और चूहे ने मेरू को हिला दिया है। सूर्य प्रकाश नहीं कर रहा है, बत्तीस छोटे भाई चले गये हैं || ६ || बहिन को शौक ने नहीं बनाया है, मैंने काले हँस को देखा है । कंजनगिरि पर जंग लग गया है, अंजनगिरि उजले हो गये हैं ||७|| वयरस्वामी झूले में सो रहे हैं और श्राविका हालरिया गा रही है । हे शुभवीर के प्यारे ! इस पद्य का अर्थ करिये ॥ ८ ॥
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( 11 )
हरियाली (३)
सहजानंदि शीतल सुख केशर चंनद घोली पूजे
भोगीतो, हरि दुःख हरिशता वरी । कुसुमें, अमृत वेलीन । वैरीनी बेटी तो ॥ कंत हार तेहजो अरि ॥ १ ॥ केशर. ॥ तेहना स्वामी नी कांतानं नाम तो, एक वर्णे लक्षय भरी । केशर. । ते धुर थायीने आगल हविये तो, उष्माल चंद्रक बंधरी ॥ २ ॥ केशर. ।। स्पर्शनो वर्ण ते नयन प्रमाणे तो, मात्रा सुंदर सिरधरी । केशर. । विसराज सूत्र दाहड जाये तो, तिग वर्णादि दूरे करी ||३|| केशर. ॥ एक वीशमें स्पर्शे धरी करण तो, अर्थाभिध ते समहरी । केशर. । संतस्थे जीभे स्वर टाली तो, शिवगामी गति सायरी ॥४॥ | केशर. । वीस स्पर्श वली संयम माने तो, आदि करण धरी दिल धरी । केशर. इणे नाम जिनवर नित्य ध्याउं तो, जिनहर जिकुं धरोहरो ॥५॥ केशर. ॥ siaके हत्थो वृषजन बोले तो, वात ए दिल मां न उतरे। केशर. ॥ अज ईश्वर पण सीतानी आगे तो, जस विवस जडता धरी ॥ ६॥ | केशर ॥ तेजिन तस्कर तु जिन रामतो, हरि प्रणमें तुझ पाउं परो । केशर । बाल पणे उपगारे हरिपति, सेवन छल लंछन हरि ||७|| केशर ॥ सारंग मां चंपाज्यं गरफत, ध्यान अनुभन लहरी ॥ केशर ॥ श्री शुभवीर विजय शिव बहु ने तो, घर तोडतां होय धरी ॥ ८ | केशर ॥
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( 12 ) हिंदी शब्दार्थ :
हरि ने दुःख का हरण कर लिया है और सहजानंद में शीतल सुख भोग रहा है। अमृत-बेल के वैरी की बेटी केशर चंदन घोलकर पुष्पों से पूजा करती है । उसके पति का हार उसका वैरी है ॥१॥ उसके स्वामी की स्त्री का नाम एक वर्ण का लक्षण भर है। उस ध्र व न्याय को आगे कर उष्माल चंद्रक ने बांध दिया ।।२।। स्पर्श का वर्ण उसके नेत्रों के प्रमाण से, सिर पर सुन्दर मात्रा धारण की है। विषराज सूत्र जमे तो विग वर्णादि दूर हो जाय ।।३।। एक वीसवें स्पर्श को धारण करें तो उसका सामान्य अर्थ होता है। जिह्वा के स्वर को टालकर यदि हृदयस्थ करें तो उसकी गति शिवगामी होती ।।४।। यदि बीस स्पर्श से संयम माने तो आदि कारण को दिल में धारण करें। इस नाम से नित्य जिनेश्वर का ध्यान करूं तो जिनेश्ववर को धारण करलं ॥५॥ त्र्यंषक, हत्थ या वषजन कहे तो यह बात दिल में नहीं उतरती। आज तो ईश्वर ने भी सीता के आगे जड़ता धारण करली है ॥६॥ उनके जिनेश्वर तस्कर है और तेरे जिन राम है तो हरि तेरे पैरों में पड़कर प्रणाम करते है । हरिपति ने बालकपन में उपकार के लिये छल का सेवन किया, जिससे हरि पर लांछन लगा ।।७।। ध्यान अनुभव की लहर सारंग में चंपा के समान महकती है। श्री शुभवीर विजय ने शिव वधु को घर तोड़ते हुए पकड़ लिया है ।।८।।
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हरि या लि यें
[कृत : सु धन हर्ष ] सुधन हर्ष जो द्वारा कृत ये ११ (ग्यारह) हरियालियें संवत् १७१५ वर्षे आसोज सुदि १३ दिने लिखितं सा. रतन पठनार्थे श्री शान्तिनाथाय नमः । एक चोपड़ी ना. भ. (यति नानचंदजी के शिष्य मोहनलाल के पास से प्राप्त)।
सुधन हर्ष तपगच्छ के प्रसिद्ध हीर विजयसूरिजी के शिष्य धर्म विजयजी के शिष्य थे। इन्होंने सं. १६७७ में 'जम्बूद्वीप विचार स्तवन' तथा अन्य कृतियें जैसे 'देव कुरुक्षेत्र स्तवन' और 'मंदोदरी रावण संवाद' को रचना की थी। हरियाली अर्थात् समस्या। किसी शब्द या अर्थ को गूढ रखते हुए बाद में उस गूढ शब्द या गूढार्थ को ढूंढ निकालना ऐसा लगता है कि हरियाली शब्द रूढ हो गया था । संस्कृत में इसका क्या रूप है, इस पर यदि कोई प्रकाश डालेंगे तो बड़ी कृपा होगी इस शब्द का निम्न स्थलों में प्रयोग हुआ है :
'गुणावली कहे प्रभु अवधारी, एक हरिमाली कहो सुविचारी। मोटा पांच ध्येयना नाम, पाराधइ सवि सोझह काम । त्रण भक्ष्यर मांहि ते जागि, इह परवि सुखिना मन प्रारिण' ॥55।।
'मुझ हरिमाली कवरण विचार, ते कहेजो प्रभु मरथ उदार ।।६३॥'
प्रेमलालच्छी आ. का. म. मौ. १४४३]
'काव्य सिलोक अनई हरीआली रे, गाहा पहेली कहे रसाली रे।' पृ. ४०६
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सुधन हर्ष को ग्यारह हरियालिएँ यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं । यदि कोई विद्वान इनका अर्थ बताने की कृपा करेंगे तो बहुत प्रसन्नता होगी।
हरियाली १
पुरुषि एक नपुंसक जायो, ताणी आरालि कीधो रे । जाव जीव ते उभो रहवइ, जगमा तेह प्रसिद्धो रे ॥१॥पु०॥ तेइन मंदिर छह अति उंचु, भवतां पार न आवइ रे। सहुइ माणस तेइना घर थी, जे जोई ते पावई रे ॥२॥पु०॥ जेहनई आपलि ते हुइ उभो, तेहनई ते नहि देखइ रे । प्राहि मोटा कारण पाखइ, तेहनइ को न उवेखे रे ॥३॥पु०॥ चांद सूरज पासि तस वासो, निरमल नरस्यं राचइ रे । मस्तकि मेरु तणइ ते रहवइ, ऐ मइ बोल्युं साचइ रे॥४॥पु०॥ अंबरताइते छह ऊँचो, को नवि ढांकइ तेहनइ रे । धनहर्ष पंडित इणपरि बोलइ, ऐथी रुडू सहनइ रे ॥५॥पु०॥
हिंदी शब्दार्थ :
एक नपुंसक पुरुष उसने पैदा किया, जिसे उसने आगे कर दिया। वह जीवन पर्यंत खड़ा रहता है। वह संसार में प्रसिद्ध है ।।१।। उसका महल बहुत ऊँचा है, घूम-घूम कर भी उस तक पहुँचना मुश्किल है । सभी मनुष्य उसके घर से जो चाहिये, वह प्राप्त करते हैं ।।२।। जो अपने आप ही खड़ा रहता है, उसे कोई नहीं देख सकता। उसके खड़े रहने का बड़ा कारण क्या है ? इसका अर्थ क्या होता है ।।३।। उसका निवास चंद्र सूर्य के पास है, उसे अच्छा बुरा सब पसन्द है। उसका मस्तक मेरु के पास रहता है, यह मैंने सच कहा है ॥४॥ वह आकाश तक ऊँचा
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है, उसे कोई ढक नहीं सकता कोई नहीं है ||५||
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( १५ )
सुधन हर्ष पंडित कहते हैं कि इससे सुन्दर
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हरियाली
बेउ नपुंसक एकठा रे, करिया एकज ठामि ।
मामा मेलव्या, तेत्रीजे नर नामिरे । पंडित सांभलो । अरथ कहे मुक्त एह रे, पंडित सांभलो ।। टेर॥
ते त्रणे नारीस्युं मिल्या, पुत्र हुइ ताम ।
डगलो एक न चातरे, जो होय शत काम रे || २ ||१०|| चोखा मुस्ताकल तणो, जेणे पहेर्यो हार । माणिक ठविडं हारमां, जे छे गुणनो भंडार रे || ३ || पं० ॥ रंग धरे सह तेहस्युं, ते पण रंग धरंति । बेरंगीला जो मिले, तो पूर्गे मन खंति रे ॥४॥ पं० ॥ ते सहु मुख आग़ल रहे, न होय केहने दुःख । हिंदु सहुने वल्लही, जे दीठे होय सुख रे ॥५॥ पं० ॥
गुण मोटा छे जेहमां, करे तो मंगल माल । धनहर्ष पंडित एहने, जाणे अरथ विशाल रे ॥६॥ पं०॥
हिंदी शर्थ :
दो नपुंसक एकत्रित हुए, वे दोनों एक स्थान पर आ गये, दोनों एक दूसरे से परस्पर मिले | फिर वे एक तीसरे पुरुष से मिले और उसे नमस्कार किया । हे पंडित ! सुनो, मुझे इसका अर्थ बतादो || १ || वे तीनों एक स्त्री से मिले, तब उनके एक पुत्री हुई, चाहे सौ काम हो, वह एक कदम भी नहीं चलती ||२|| उसने अच्छे मोतियों का हार
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पहन रखा है, उस हार में माणक जड़े हुए हैं, जो गुण का भंडार है ।।३।। सभी उससे रंग धारण करते हैं, वह भी रंग धारण करती है। जब दो रंगीले एक साथ मिल जाते हैं, तब मन की शांति को प्राप्त करते हैं ॥४॥ वे सबसे आगे रहते हैं, तब किसी को दुःख नहीं होता। हिन्दू सबको प्यारे होते हैं, जिन्हें देखने से सुख होता है ।।५।। जिसमें बहुत बड़े गुण हैं, जो मंगल की माला के समान है। सुधनहर्ष पंडित कहते हैं कि इसका अर्थ बहुत विशाल है ॥६॥
हरियाली ३
( राग असावरी) कान छे पण सुणे न कांई, दांत नहीं पण चाबे रे। तेहने आभडछेट न होवे रे, सहुनुं पीरस्युं खावे रे ॥१॥का० पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण, काम होय तो होंडे रे । होंडतां जे हडिए प्रावे, तेह तणुं फल फेडे रे ॥२॥का०॥ तेहने पेट थकी जे जायो, नान्हडिओ वारु रे। पर उपगारी तेह भणीजे, प्राण तणो आधारं रे ॥३॥का०॥ अर्द्ध तेहy भूमि दीसें, अर्द्ध ते गिरिने शृंगे रे । कानमांहिं जो कामिनि पेसे, तो तो आवे रंग रे ॥४॥का०॥ में जोया पण पाय ना दोसे, कर दीसे वलि तेहने रे। पांव(पग)तणुं ते काकरे रे, तो होय ऊधी गति तेहने रे ॥५॥का. मास बे चार विमासी जो जो, तेशु नर के नारी रे । धनहर्ष पंडित इणपरि पूछे. कहेज्यो अरथ विचारी रे ॥६।।का.।। हिंदी शब्दार्थ :
उसके कान है पर किसी की कुछ भी नहीं सुनता, दाँत नहीं है
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( १७ )
फिर भी चबाता है । उसे छुआछत नहीं है, किसी का परोसा हुआ खा लेता है ||१|| काम हो तो पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों ओर घूम लेता है । घूमते हुए जो भी उससे टकरा जाता है, उसे उसका फल मिल जाता है || २ || उसे जिसने पेट से जन्म दिया, वह छोटा और सुन्दर है । वह परोपकारी और प्राणों का आधार माना जाता है ||३|| उसका आधा भाग तो भूमि पर है, और आधा भाग पहाड़ की चोटी पर है । यदि उसके कान में कोई कामिनी प्रवेश कर जाये तो वह रंग पर चढ़ जाता है ||४|| मैंने देखा, पर उसके पाँव तो दिखाई नहीं देते, हाँ हाथ अवश्य दिखाई देते हैं । यदि वह पाँव का कहना माने तो उसकी गति उल्टी हो जाती है ||५|| दो चार माह विचार कर बतायें कि वह पुरुष है या स्त्री ? सुधनहर्ष पंडित पूछता है कि इस पर विचार कर इसका अर्थ बतायें ||६||
हरियाली ४
डूंगर डे रलियामणे, एक नारी चाले ।
साथै एक पुरुष भलो, वली पाछी वाले ॥ १ ॥ डूं० ॥ एकल की बहुस्युं भडे, पण तो न हारे ।
जे नर एस्युं बल करे, तस मूलथी वारे ॥ २ ॥ डूं० ॥ वदन चरण तेहने नहीं, नवि कांइ खावे ।
दांते छोरु प्रसवती, तस सृप्ति न आवे || ३॥डूं० ॥ ते नारी घरि घरि प्रछे, पण साधु न राखे । धनहर्ष पंडित इम कहे, जिनवर इम भाखे ॥४॥ डूं० ॥ हिंदी शब्दार्थ :
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सुन्दर पहाड़ पर एक स्त्री चल रही है, साथ में एक पुरुष भी चल रहा है, जिसे वह पीछे मुड़कर देख रही है || १ || वह अकेली
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( १८ )
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जो पुरुष उसके सामने न उसके मुँह है,
बहुत से लड़ लेती है, तब भी नहीं हारती । अपनी शक्ति बताये वह मूल से हार जाता है || २ || न पाँव, वह खाती भी नहीं । दाँत से वह पुत्र को जन्म देती है, वह कभी तृप्त नहीं होती || ३ || वह स्त्री घर-घर में है, किंतु साधु उसे नहीं रखते । सुधनहर्ष पंडित कहते हैं कि जिनेश्वर देव ने उसके लिये यही कहा है ||४||
हरियाली
५
सात नारी सिर उपरे, एक नर उपाडे ।
आप गुणे करी लोक ने, घणो हरख पमाडे || १ || सा० ॥ जे नर बहु छोरु जो, बे नर संयोगे ।
ते छोरु सघलां भलां, आवे सहुने भोगे ॥ २ ॥ सा० ॥
जोवे ॥ ३ ॥ सा० ॥
सात कान तेहने छे, चांपतां रोवे । सभा मांहि नाग़ो रहे, हने सहु एक उदर छे तेहने, मल मूत्र न राखे । अरधो केडे कंदोरडो, पंडित इम भाखे ||४|| सा० ॥
धनहर्ष पंडित इम भणे, जो तुम्ह समर्थ । गरथ न कांइ मांगिये, कहो एहनो अर्थ ॥ ५ ॥ सा० ॥
हिंदी शब्दार्थ :
एक पुरुष सात स्त्रियों को अपने सिर पर उठा लेता है । अपने गुणों से सर्व लोक बहुत हर्षित करता है ।।१।। दो पुरुषों के संयोग से जो पुरुष पुत्र को जन्म दे, वह पुत्र सबका भला करता है और वह सबको पंसद आता है ||२|| उसके सात कान हैं, जिनको सहलाने से भी वह रोता है, सभा में नग्न रहता है और सब उसे देखते हैं ||३|| उसे एक
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( १६ ) पेट है किंतु उसको मलसूत्र नहीं होता। पंडित कहते हैं कि उसकी आधी कमर पर कंदोरा बंधा हैं ।।४।। सुधनहर्ष पंडित कहते हैं कि यदि आम समर्थ हैं तो इसका अर्थ करिये, और मैं कुछ भी वस्तु नही माँगता ।।५।।
हरियाली ६
एक नगर ऊँचुं अछे, पालि नीची जोए । एक वर्ण तहमा अछ, नवि बीजो कोए ॥१॥एक०॥ साहमा पाँच जणा गया, तस आवत जाणि । तेणे आदर बहुलो करी, धरि आण्यो ताणि ॥२॥एक०॥ पाछो जइ ते नवि सके, तिणि नगर प्रधाने । बीजो तिहां आवी रहे, तेहने अभिधाने ॥३॥एक०॥ आव्यो तेहने प्राहुणे, बहु वाध्यो नेह । सर्व कुटुंब खुशी थयुं, भले प्राव्यो एह ॥४॥एक.।। धनहर्ष पंडित इम भणे, ते कवण कहोजे । जस सेवा महिमा थकी, बहु बुद्धि लहोजे ॥५॥एक.॥ हिंदी शब्दार्थ :
एक नगर ऊँचा है किंतु उसकी पाल नीची दिखाई देती है, उसमें एक रंग है, दूसरा कोई नहीं है ।।१।। उसे आती देखकर सामने पाँच व्यक्ति गये, उसका बहुत आदर कर उसे ताज कर घर ले आये ।।२।। वह नगर का प्रधान है, वह वापस नहीं जा सकता, उसके अभिधान से दूसरा वहाँ आकर रहता है ।।३।। उसको देखने आया तो बहुत स्नेह बढ़ गया । सारा कुटुब प्रसन्न हुआ, अच्छा हुआ कि यह आ गया
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( २० ) ।।४।। जिसकी सेवा, महिमा से बहुत बुद्धि प्राप्त हो, सुधनहर्ष पंडित पूछते हैं कि वह कौन है ।५।।
हरियालो ७ धवल सेठ निज नगर थी, जस मंदिर आवे । ते तेहने रहेवा भणी, घर एक करावे ॥१॥धवल०॥ चतुर ते चार दिशे थकी, आवे घर माहि । श्रवणे घूघर घमकता, सांभलतां प्राहि ॥२॥धवल०॥ तेहने अहीं आव्या पछी, बहु संतति होवे । ते तिहां इतो एकलो, पण कण जइ जोवे ॥३॥धवल०॥ निज वर्णे दूरे कर्यो, तस चोथो परिओ। कहो पंडित ते स्याभणी, जे बलनो दरियो ॥४॥धवल०।। चोथे परिएं तेहने, घणुं वाध्यं मूल । जे सेवतां सर्व ने, बल होय असूल ॥५॥धवल०॥ धनहर्ष पंडित इम भणे, कहो तेहन नाम । प्राहि सर्व मनुष्य ने, जे साथे काम ॥६॥धवल०॥ हिंदी शब्दार्थ :
धवल सेठ अपने नगर से जिसके मंदिर में आता है, वह उसके रहने के लिये एक मंदिर बनवाती है ॥१॥ वह चतुर चारों दिशाओं से घर में आता है। उसके कान में धुंधरु घमक रहे हैं, जो सुनाई देते है ॥२।। यहाँ आने के बाद उसे बहुत संतान होती है । वहाँ वह अकेला था, पर कौन जाकर देखता था ।।३।। अपने वर्ण को दूर किया, यह चौथा परिचय है, कहिये पंडित ! वह किस कारण से बल का समुद्र
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( २१ )
है ? || ४ || चौथे परिचय में उसका मूल बहुत बढ़ा, जिसके सेवन से सबका बल बढ़ता है ||५|| सब मनुष्यों को जिसके साथ काम पड़ता है, सुधनहर्ष पंडित पूछते हैं कि उसका क्या नाम है ? बतलाईये ||६||
हरियालो
( राग आसावरी )
बोलावी एक बोल न बोले, कोइक कामिनी काली रे । मोटी थइ पण लाज न आणे, नवि ते पहेरे फाली रे ॥ १ ॥ बो० ॥ अग्नि न चोले नीर न बोले, नवि ते वाये हाले रे । का करे ते निज मातानं, मातने पासे चाले रे || २ ||बो० ॥ अन्न न खावे नीर न पीवे, भूत न ग्रहवे तास रे । पंडित अरथ विचारी जुम्रो, तुम्ह पासे तस वास रे || ३ || बो० ॥ नविते राती नवि ते माती, नवि कहे ते मांडी रे । साधु तो पण पासे रहेवे, न सके को तस छांडी रे ॥४॥बो० ॥ ऐ तो कुण थकी नवि बीए, विषम ठामे पण पैसे रे । ते छोकरडी माने खोले, बेसारी नवि बेसे रे ||५|| बो० ॥
हाथ पग़ माथु तल दीसे, चांपी दुःख न पावे रे | मां बेटी ने नेह नही पण, माने पासे थावे रे || ६ || बो० ॥ काम न जागे शस्त्र न वागे, भार न लागे कोयरे । सुधनहर्ष कहे रथ कइजो, एहतणो जे होय रे ||७|| बो० ॥ हिंदी शब्दार्थ :
एक स्त्री पगली है बुलाने पर भी नहीं बोलती । बड़ी हो गई फिर भी शर्म नहीं आती, वह घाघरा भी नहीं पहनती || १ | | उसे न
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( २२ ) अग्नि जलाती है, न पानी डबता है, न हवा हिला सकती है। वह अपनी माता का कहना मानती है और उसके पास रहती है ॥२॥ न अन्न खाती है, न पानी पीती है। उसे भूत भी नहीं पकड़ सकता। उसका निवास तुम्हारे पास ही है । हे पंडित ! सोचकर इसका अर्थ कहो ।।३।। न वह लाल है, न ही मोटी है, वह दुभली भी नहीं है। वह साधुओं के पास भी रहती है, कोई उसे छोड नहीं सकता । ४।। वह किसी से नहीं डरती, विषम स्थान में भी प्रवेश कर जाती है, वह छोकरी माँ की गोद में बैठाने पर भी नहीं बैठतो ।।५।। उसके हाथ पाँव और सिर दिखाई देता है । दबाने से उसे दु:ख नहीं होता। माँ बेटी में स्नेह नहीं है फिर भी माँ के पास रहती है ॥६॥ उसे काम वासना जागृत नहीं होती, शस्त्र का घाव उसे नहीं लगता, किसी को उसका भारी पन भी नहीं लगता । सुधनहर्ष कहते हैं कि इसका जो अर्थ होता है, वह कहिये ।।७।।
हरियाली ९
(राग आसावरी) मंगलकारी अंत्याक्षर विण, सहुये जग जस कहवे रे । निशाले आवी ना (ने) प्रथमाक्षर, हर्ष धरी ग्रहवे रे ॥१॥म.॥ मध्याक्षर विण ते उत्तमने, होय न कहीं ऐ प्यारी रे।। अक्षर त्रण करी ते पूरण, राजकुले घणी सारी रे ॥२॥म.॥ पहला अक्षर ने छ कानो, बीजो केवल जाणो रे त्रीजे अक्षरे जिम निरखी, वहेजो अर्थ पिछाणो रे ॥३॥मं.॥ प्रांवे एक न कांइ कामे, बे तो कामे आवे रे । धनहर्ष पंडित इण परि पूछे, ते स्युं नाम कहावे रे ॥४॥म.॥ हिंदी शब्दार्थ :
अंतिम अक्षर के न होने पर वह मंगलकारी है, संसार में सब
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( २३ )
उसका यश गाते हैं । प्रथम अक्षर के न होने पर उसे पाठशाला में आकर हर्ष पूर्वक ग्रहरण करते हैं ॥१॥ मध्य का अक्षर न होने पर यह उत्तम व्यक्ति की प्यारी नहीं लगती । यह तीन अक्षरों से पूर्ण होती है, राजकुल में बहुतायत से होती है । ||२|| पहले अक्षर के मात्रा है, दूसरा मात्रा रहित है । तीसरे अक्षर को देख कर शीघ्र अर्थ को पहिचानिये || ३ || एक कुछ काम नहीं आता, दूसरा काम में आता है । सुधनहर्ष पंडित पूछता है कि उसका क्या नाम है ? ||४||
हरियाली १०
डाले दोठी सूडलो, तस पाँख न श्रावे ।
चुण करवाने कारणे, तोहे न पण जावे ॥ १ ॥ डाले. ॥ देह वर्ण नीलो नहीं, तस चांचल नोली ।
चांचे इंडा मूकती, सागर मां जीली ॥२॥डाले. ॥ ते इंडा चांप्यां घणां, तोहें (ये) नवि फूटे । इंडानी भगति करे घणी, तस पातक खुटे ॥ ३ ॥ डाले. ॥ धर्नहर्ष पंडित इम भणे, कहो ते कुण सूडी । श्ररथ विचारी जे कहे, तेहनी मति रूडी ||४|| डाले. ॥
हिंदी शब्दार्थ :
शाखा पर तोता बैठा है, उसके पंख नहीं आते । वह चुग्गा चुगने के लिये भी नहीं जाता ||१|| उसके शरीर का रंग हरा नहीं है, सिर्फ चोंच ही हरी है, वह चोंच से अंडा देती है और समुद्र में रहती है ||२|| उन अंडो को बहुत दबाने से भी नहीं फूटते । जो अडों की बहुत भक्ति करे तो उसके पाप समाप्त हो जाते हैं ||३|| जो इसका अर्थ विचार कर कहेगा उसकी बुद्धि सुन्दर है । सुधनहर्ष पंडित हैं, कहिये वह शुक कौन है ||४||
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( २४ ) हरियाली ११
कामिनी कोई कोपे चडी, निज नाथने मारे । मारता देखे धणा, पण कोई न वारे ॥१॥का.।। नाडो नाथ जाणी करी, पूडे उजाणी। माथे मारी आणिओ, घरमांहिं ताणी ॥२॥का.॥ परपुरुष हाथे ग्रही, तव माने सुख । उंधमुखी धणी आगले, हिये नाथने दुःख ॥३॥का.॥ धनहर्ष पंडित इम कहे. सुणजो गुणवंत । नाम कहो ते नारीनें, जो हो बुद्धिवंत ॥४॥का.।। हिंदी शब्दार्थ :
कोई स्त्री क्रोधित होकर अपने पति को मारने लगी । बहुत से लोगों ने उसे मारते हुए देखा, पर किसी ने नहीं रोका ॥१॥ पति को कमजोर समझ कर पीछे से पकड़ा, सिर पर मारा और खींच कर घर में ले आई ॥२।। पर पुरुष का हाथ पकड़ कर वह सुख मानती है । वह उल्टे मुह वाली पति के सामने ऐसा करती है, जिससे पति के दिल को दुःख होता हैं ।।३।। सुधनहर्ष पंडित कहते हैं कि हे गुणवान् ! सुनो, यदि बुद्धिमान् हो तो उस स्त्री का नाम बताओ ॥४॥
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- हरियाली [कृत अर्थ युक्त : श्री विनयसागर मुनि ]
सेवक आगल साहेब नाचे, बहे गंगा जल खारे । गर्दभ सारे गयवर वेच्या, ए अचरज मोहे मारे । चतुर नर बूझो ए हरियाली, जेम उत्तराहु देहि संभाली
॥ए आंकाणी ॥१॥ अर्थ :- कर्म रूपी सेवक के आगे जीव रूपी राजा नाचता है। जिनवाणी जो गंगा जल के समान मीठी है, उसे कुछ मतवादी झठे अर्थ कर खार पानी जैसा बना देते हैं । प्रमाद रूपी गधे के बदले में संयम रूपी हाथी बिक रहा हैं अर्थात कुछ संयमधारी प्रभाव के वशीभूत होकर शुद्ध संयम का पालन नहीं कर पाते अतः मुझे यह भारी आश्चर्य की बात लगती है । हे चतुर लोगों ! इस हरियाली को आप समझें और सावधानी पूर्वक इसका उत्तर दें ।।१।।
मांकड ने वश जोगी नाच्या, मार्यो सिंह सियाले। एक चीटीए पर्वत ढायो, अचरज इण कलिकाले ॥चतुर०॥२॥
अर्थ :- मन रूपी मकड़ी के वशीभूत असंयमी योगी नाचते हैं । शील रूपी सिंह को काम रूपी सियालिआ मार रहा है। तृष्णा रूपी चिटी सतोष रूपी पर्वत को गिरा रही है। यह आश्चर्य कलियुग में दिखाई दे रहा है ।।२।। सुरनरु साखाए कागच बेठो, विषधर गरुड विडा रे। कस्तुरी परनाले वाहे, लसण भर्यु भंडारे ॥चतुर०॥३॥
अर्थ :- जिनशासन रूपी कल्पवृक्ष पर कुगुरु रूपी कौवा बैठा है । अज्ञान रूपी सर्व ज्ञान रूपी गरुड को विडंबित कर रहा है । समता
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रूपी कस्तूरी को असत्य वचन रूपी परनाले में बहाया जा रहा है। ममता ने दुर्गन्ध रूपी लहसुन को भंडार में भरा है ॥३॥ प्रांबो अकफल एक तरू लागा, हंस काग एक माले। मेंढे नाहर लाते मार्यो, नाशी गयो पाताले ॥चतुर०॥४॥
अर्थ :- जीव रूपी वृक्ष को आम्रफल के समान सुख और आकफल के समान दुःख यों दो प्रकार के फल लगे हैं । जीव रूपी घोसले पर पुण्य रूपी हँस और पाप रुपी कौआ बैठा है । अज्ञान रूपी भेड़ ने विवेफ रूपी सिंह को लात से मार दिया है, जिससे वह पाताल में भाग गया है ।।४।।
मच्छारक मुख मयगल गलिया, राजा घर घर हिंडे । एक ज थमे पण गज बांध्या, रान होइ कण खंडे ॥चतुर०॥५॥ अर्थ :- कलियुग के जीव स्वल्प पुण्य वाले हैं, अतः उन्हें मच्छर के समान समझना चाहिये । ऐसे मच्छर के समान मिथ्यात्वी जीव मगरमच्छ के समान बड़ी जिनवाणी को निगल रहै हैं। जीवरूपी राजा कर्मवश ८४ लाख जीवायोनि में घर-घर भटकता है-भ्रमण करता है। एक जीव के शरीर रूपी एक हो थमे से ५ इन्द्रियों रूपी पाँच हाथी बंधे हैं वे मदोन्मत्त हाथी जंजीरों के बंधन को तोड़ रहे हैं, किंतु अव्रत रूपी राजा रानो, व्रत रूपी धान के कण को खंडित करते हैं ।।५।।
आठ नारी मली एक सुत जायो, बेटे बाप वधार्यो । चोर वस्यो मंदिर मा प्रावी, घरथी साह कढायो ।चतुर०॥६॥
अर्थ :- कर्म की आठ मूल प्रकृतियों को आठ स्त्रियें समझे, उन्होंने मिलकर संसार रूपी पुत्र पैदा किया है तथा कपट रूपी पूत्र ने मोह रूपी पिता को बढ़ाया है, उसे बड़ा किया है । विषय रूपी चोर
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( २७ ) शरीर रूपी मंदिर में आ बसा है, उसने शील रूपी बड़े सेठ को घर से निकाल दिया है ।।६।। एक अग्नि सघलो जल सोखे, वेश्या घूघंट काढे। कुलवंती कुल लाज त्यजी करी, घर घर बाहिर हिंडे ।चतुर०॥७॥
अर्थ :- अकेली तृष्णा रूपी अग्नि ने संतोष रूपी संपूर्ण जल को पीलिया है । माया-कपट रूपी वैश्या मधुर-वचन रूपी घूघट निकाल रही है। सर्व-विरनि रूपी कुलवती स्त्रियें अपनी लज्जा का त्याग कर असंयरूपी अनेक स्थानों पर भटक रही है अर्थात् घर-घर के बाहर भटक रही है ॥७॥ ए परमारथ ज्ञान सुनी करी. आतम ध्यान सुधावो। . विनय सागर मुनि इम उपदेशे, धर्म मति मन लावो ॥चतुर०॥८॥
___अर्थ :- उपरोक्त कथन के ज्ञानमय परमार्थ को श्री वीतराग की वारणी द्वारा सुनकर आत्मध्यान में प्रवृत्ति करें। मुनि विनय सागर पाठकों को यह उपदेश दे रहे है कि आपके मन में धर्म की बुद्धि उत्पन्न हो, जिससे जन्म, जरा, मरण के दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर आप मुक्ति के सुख को प्राप्त कर सकें ।।८।।
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弱弱 節節
हरियाली
節節
[ कुछ समस्याओं का संग्रह ]
( संग्राहक : मुनिराज श्री ज्ञान विजयजी )
प्राचीन ऋषि मुनि अपने अवकाश के समय लोक भाषा में ऐसी अनेक रचनाएँ करते थे जिनसे ज्ञान प्राप्ति के साथ साथ लोगों का मनोरंजन भी हो । यहाँ प्रस्तुत हरियाली भी एक ऐसी ही कृति है । ऐसी कृतियों ने लोगों का मनोरंजन करने के साथ साथ उस भाषा की भी बहुत सुन्दर सेवा को है । ऐसी कृतिनों को प्रत्येक भाषा की संपत्ति के रूप में गिना जाना चाहिये ।
निम्न कृति और ऐसी ही एक अन्य हरियाली मुझे प्राचीन हस्तलिखित पत्रों में देखने को मिली, मैंने तुरंत उनकी नकल कर ली। उनमें से एक को मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हुँ । यह किसके द्वारा रची गई है। और इसका रचना काल क्या है, इसका कहीं उल्लेख नहीं मिल पाया है । फिर भी उसकी लिपि को देखकर ऐसा लगता है कि ये अवश्य प्राचीन हो होंगी ।
इसकी भाषा अधिकांश में गुजराती है । पाठकों की सरलता के लिये रचनाकार ने प्रत्येक पद्य की समाप्ति पर समस्या का उत्तर भी दिया है । किसी किसी स्थान पर लेखक का आशय स्पष्ट समझ में नहीं आता, फिर भी कविता सरल और रुचि कर तो है ही ।
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(
२९ )
आद्यक्षर विण ते जगनई मीठो, अंत्यक्षर विण तेछारि दीर्छ। मध्यक्षर विरण ते जगनई मारई, तेहमई मानइ राजधार ॥१॥ (कागज) आद्यक्षर विरण ते जग वला वि, अंत्याक्षर विण ते पशु बिहावइ । मध्यक्षर विरण ते जगनइ मारिं, तहनइ मांनइ राजद्वारि ॥२॥ (काबल) आद्यक्षर विण ते लेखइ लागी, अंत्यक्षर विण ते जर संतापि । मध्यक्षर विण ते जग जावाडि, परनु मन ते भमाडि ॥३।। (कामण) आद्यक्षर विण ते नाद कहीजइ, अंत्यक्षर विण ते बइसरिण दिजइ । मध्यक्षर विरण ते भार भरणीजइ, ते आगर विणज करी जइ॥४॥ (पाटण) आद्यक्षर विरण ते काया दमइ, अंत्यक्षर विण ते वपण भाषइ । मध्यक्षर विण ते सवि उंगमइ, ते सखी मुझ परिमल दाखइ ।।५।। (कमल) आद्यक्षर विण ते पुरुष भणोजइ. अंत्यक्षर विण ते रूप कही जइ । मध्यक्षर विरण ते तथि दिजइ,ते उपरि राणो राणी खीजइ ।।६।। (वानर) आद्यक्षर विण ते सविडं मीठो अंत्यक्षर विरण ते छोडिं मीठो । मध्यक्षर विण ते सविइमारइ, ते आवइ बारइ मासि ॥७॥ (वरस) आद्यक्षर विण ते वेग कहो जइ, अंत्यक्षर विण ते धान भणी जइ। मध्यक्षर विरण ते सविउ विमासइ, सद् गुरु विना नावि पांसि ॥८॥ (मुगति) आद्यक्षर विण ते डाहपुरणा दाखइ, अंत्यक्षर विण ते वारु भाखि। मध्यक्षर विण ते कापडाकापि, ते मुलकमां सविनइ संतापि ॥९॥ (मुरख) आद्यक्षर विण ते बली शाखा, अंत्यक्षर विण ते रोगीनी भाषा । मध्यक्षर विण ते गगनी गाज इ, ते सखि मुझ भरत किं दाजि ।१०। (तावड) आद्यक्षर विरण ते लोक कही जइ. अंत्यक्षर विरण ते सुनु दीसइ । मध्यक्षर विण ते रांनह वासो, डाह्या हुइ ते न करइ विश्वासो।११। (राजन) आद्यक्ष र विण ते वचनि रातो, अत्यक्षर विण ते माग देतो। मध्यक्षर विण ते मागयरण मोतो, सखी मइ आज दीठो जातो ।१२। (मारग) आद्यक्षर विण ते सविडं मीठो, अंत्यक्षर विरण ते मागई बेटो। मध्यक्षर विण ते पूछई छतो, तेनइ थान कि उघडइं नित्यो ।।१३।। (भागल)
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( ३० )
आद्यक्षर विण ते सविउं मीठो, अंत्यक्षर विण ते अन्न माठु । मध्यक्षर विरण ते काया दमइ, ते सखी सवि कोइ नइ गमइ ।। १४ ।। (मंगल) आद्यक्षर विरण ते भरणइ ज्ञान, अंत्यक्षर विण मंगलवान ।
(मदन)
मध्यक्षर विरण ते मुरख होइ, तेनो महिमा रामां जोइ ||१५|| ( सुभट) आद्यक्षर विरण ते राजा रूप अंत्यक्षर विरण ते कलह सरूप । मध्यक्षर विरण ते मस्तक मंडारण, तेहनुं फल वांछइ सुजाण ।। १६ ।। (बादल) आद्यक्षर विण ते न लाभइ अंत, अंत्यक्षर विण ते अति बलवत । मध्यक्षर विरण ते मांकड होइ तेरगइ दम्यो सउंका लोक ।।१७।। आद्यक्षर विरण ते राजा मांगी, अंत्यक्षर विण ते जल सुधा आगि । मध्यक्षर विण ते तत्त्व कही जइ, भाग्यवसि ते उवावा लही जइ । १८ । (साकर) आद्यक्षर विण ते मांडवी दीसइ, अंत्यक्षर विरण ते जलनइ सोसि । मध्यक्षर विण ते भइ होइ, घोडं बलइ बउ बल जोइ ।। १९ ।। (बोरड) आद्याक्षर विण ते अनंग भरणीजइ, अंत्यक्षर विरण ते धीज कही जइ । मध्यक्षर विण ते नाद मीठो, ते सखी मई देतां दीठो ||२०|| ( समार) आद्यक्षर विरण ते हीइ दाजि, अंत्यक्षर विरण ते रास रमीजइ । मध्यक्षर विण ते सविउं वाल्हो, नाम ले तांम विडं पहिलो ॥२१॥ आद्यक्षर विरण ते कांधि कीजइ, अंत्यक्षर विरण ते रास रमीजइ । मध्यक्षर विण ते भोजन कीजइ, तेह अवसरि गाल दीजइ ||२२|| ( रासभ) आद्यसर विरण ते वचनइ रातो, अंत्यक्षर विण ते मधुरु गातो । मध्यक्षर विण ते सक्षर होइ, तिहाँजावा हींडइ सउं कोइ ||२३|| (सरग ) आद्यक्षर विण ते धोरी दीजइ, अंत्यक्षर विण ते घषधी लीजइ । मध्यक्षर विरण ते सूमठ नाम, तेरणइ मांग्यु स्त्री काम ||२४|| (सुधार) आद्यक्षर विरण ते लीइ काम, अंत्यक्षर विण ते दुर्जन नाम । मध्यक्षर विरण ते मुखनु मंडाण, ते सखीं मइ दीठु सभामंडारण | २५ | (नाटक) आद्यक्षर विण तं रासभ कहीइ, अंत्यक्षर विरण ते तपी रहीइ । मध्यक्षर विण ते आवई अंत, तेहनी सोभा दीजइ तोरंग ||२६|| (पाखर)
(करण)
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आद्यक्षर विण ते घोडं मान, अंत्यक्षर विरण ते जग प्रधान । मध्यक्षर विण ते त्रिषा होई, तिहनइ मुहड्इन भमइ कोइ ॥२७।। (धनुष) आद्यक्षर विरण ते न लाभइ अंत, अंत्यक्षर विरण ते अवनिवंत । मध्यक्षर विरण ते दीसइ गहन, तेहनइ जोइइ दोजाइ मान ।।२८॥ (वदन) आद्यक्षर विण ते राजा गमि, अंत्यक्षर विण ते वनमाहि भमइ ।। मध्यक्षर विरण ते मधुर मीठो, ते सखी मि तथी दीठु ॥२९।। (सकर)
राग और द्वेष शुभ भावनाओं के बल से घटते हैं । जब आत्मा का राग-द्वेष रुपी मालिन्य पूर्णतया नष्ट हो जाता है अर्थात् आत्मा कषाय मुक्त हो जाती हैं, तब पूर्ण शुद्धि में से प्रकट होने वाला पूर्ण ज्ञानप्रकान जिसे "केवल शान" कहते हैं, उसे प्राप्त हो जाता है । "केवल ज्ञान" ही आत्मा की पूर्णानन्द अवस्था है।
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8 हरियाली
[ कुछ उद्धरण - समस्याएँ] [ संग्राहक : मुनिराज श्री ज्ञान विजय जी ]
एक पुराणी हस्तलिखित प्रति से कुछ उद्धरण (समस्याएँ) उतारी है । कुछ अटपटे और बंध बैठते भी नहीं लगते । संभव है अर्थ बराबर ध्यान में नहीं आने से पदच्छेद में भूल हो गई हो, फिर भी भाषा के लिये इसे उपयोगी समझकर यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है । जिन्हे हम आम बोल चाल की भाषा में पहेलीयाँ कहते है। जब जाइ तब बीस गज, भर जौवन गज च्यार । वलती वेर पचास गज, राजा भोज विचार ॥१॥ (परछाइ) एकज नारी नगर मजार, काचो कोरो करे आहार । छपगी ने चाल बीहुं, चिहुं आख्या ने देखे बेजु ॥२॥ (छापी) जलमांहि फल नीपजे, वण डांडी फल होय । रावां के घरही हौवे, रांका के घर नांहि ॥३॥ (मोती) गजदंतो सोहांमुखो, बाध्यो नगर मझार । सासु बहु ने दीकरी, तीन एक भरतार ॥४॥ (चुड़ो) वांक मुहि कर पतली, नाम भणीज नार । उण नारी नर मानीयो, राजा भोज विचार ॥५॥ (कबारा) तांबा वरणी बहु गुणी, वधी होवे विण पाय । वाय वाज वधे बहु, सोचीयां कमलाय ॥६॥ (वासेद) जल विन वधै सो वेलडी, जलदी वां कुमलाय। जो जल कोज दुकिंडो, जडामूलसुं जाय ॥७॥ (तरखा-तुषा)
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( ३३ ) वणं अंगुठा विण घणा, दुही कणी जगाय । पिडत हरियाली पर छवि, चतुर करी विचार ॥८॥ (मेह-वर्षा) आखो अखंड कहावै लागो, बीहै नही बीहाखण लागो। अनेन पुरुष असतरी कर लागो, जिहांलग कुसलजंग नहीं लागो ॥९॥
(खांडो) अंग गोरा मुख सांमला, दोय नर एको बण। काबल मुग़ल पठाणā, रह्या तंगोटी ताण ॥१०॥ (स्तन) काले वन में नीपजे, वरण जो धवजो होय ।। सुंदर गांधी ने कहै, थाहरे होवै तो देय ॥११॥ (चना) एक जनावर अजब सा दीठा, बहोत चलत थका । यफर गरदन काट के, बहोत चलण लागा ॥१२॥ (लेख) डूंगर कडबै घर करै, सरली मुकी धाय । सो नर नेणे नोपजे, मोही साद सुहाय ॥१३॥ (मोर) सुको तरवर हे सखी, फल लागोमें दीठ । चाख सो जीवे नहीं, जीवें सो ही निठ ॥१४॥ (बरछी) सुको सरवर हे सखी, कमला अंत नी पार ।। करण हरियाली पर ठवि, राजा भोज विचार ॥१५॥ (काच) अंगे गौरी मुखा सांवली, सुंदर बहुत सुजाण । चुतरां पकडी चुप करी, अलगा रह्या अजाण ॥१६॥ (लेखन) च्यारै पाया च्यार इस, बै जणा बैठा करे जगीस । खाय काथो ने पान,बेइजणां के बावीस काम।१७।(रावण मंदोदरी)
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( ३४ ) हरियाली तोरे होरा, सुण रे मारा वीरा । एक रूख तीन फल लागा, गुज वैगण ने जीरा ॥१८॥ (तजारो) हरियाली तो जेहने कहीये, जेहने होये होवे सांन । एक पुरुष जाति दीठ, जणीरे पुंछड च्यार कान ॥१६॥ (तीर) पातल पान सुंकड जड, विण पुल्या फल होय । राध्या ने वरस दन होय, वासी कहै न कोय ॥२०॥ (मुल) बाप बेटो एकण ढाम, बेटो जाये गामो गाम । बाप बेटा को एकज नाम, कहो अर्थ के छोडो गांम ॥२१॥ (माँखें) एक नारी नवरंगी चंगी, पहरेण नवगजा साड़ी। नाक फाड नकफूली गाली, च्यारुं अंग उगाड़ी ॥२२॥ (सुई) विन पगल्या पखत चढे, विण दांतां खड खाय । हुं तो है पुछु पिंडता, किसो जिनावर जाय ॥२३॥ (दातलो) एक सींगो दोय सींगो, चामडी करडी हाड ज मीठो वाण्यां बामण ने, खातो दी ठो ॥२४॥ (सिंघोडा) राज काज सब आगला, भूत सरीखी देह । पीयं पधारो चोहटे, तो मुझ मोकलज्यौ तेह ॥२५॥ (नारियल) एक नारी नवरंगी चंगी, कलहड ए जाइ । खणीया खेतारती दीठी, कहे रे मोरा ताइ ॥२६॥ (जलेबी) घुरकाती फागुण वचें, जलरो दाखो छेह । वाट जोवे छे तेहनी, जुय पीया मेह ॥२७॥ (कागज-पत्र)
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( ३५ )
एक नारी अति सामली, पाणी माहे वसंत । तो तुम दरसण देखवा, अली जो प्रति हे करत ॥२८॥ (प्रांखें) कागल वरणे हे सखी, देख्यो एक पुरुष । बालणहारा को नही, रोवणवाला लख ॥२६॥ (कोवा) नीली डाली धोला फूल, कही देउ । बताइ देउ जाय रे, मूरख जाए ॥३०॥ (आयफल)
"राज्य क्रान्तियों में अनेक स्वर्ण मुकुट भ - लुण्ठित हुए हैं और हो रहे है। परन्तु मुनिपुगवों के दिव्य मस्तक पर शोभित संघम रूपी स्वर्गामुकुट शाश्वत है।"
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हरियाली
II
( कृत : उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी ) कहो पंडित ते कुण नारी, वीस वरसनी अवधि विचारी ॥०॥ दो पिताए तेह निपाइ, संघ चतुविध मनमा आइ ॥०॥ ते बेटीए बाप निपायो, तेणे तास जमाइ जायो ॥क०॥१॥
अर्थ :-हे पंडिता, बीस वर्ष की अवधि में विचार कर कहें कि वह कौनसी स्त्री है ? एक तीर्थंकर और दूसरे गणधर इन दो पिताओं ने मिलकर जीवदया रूपी स्त्री को उत्पन्न किया। उसने चतुर्विध संघ से कहा तो उसके मन में जीवदया आई । उस जीवदया पुत्री ने धर्म रूपी पिता को उत्पन्न किया, उसे बेटी का बाप समझें । उस धर्म ने ज्ञान रूपी जवाई उत्पन्न किया, जिससे बुद्धि-मति सफल हुई, इसे ज्ञान समझें ॥१।। कीडीए एक हाथी जायो, हाथी सामे ससलो धायो॥०॥ विण दीवंइ प्रजुआलु थाई, कोडीना दर मां कुंजर जाई॥क०॥२॥
अर्थ :- हिंसा रूपी चिउटी ने पाप रूपी हाथी को उत्पन्न किया। उस पाप-हाथी का सामना करने धर्म रूपी खरगोश आया। धर्म-खरगोश ने पाप-हाथी को भगा दिया। पाप को हाथी जैसा बड़ा और धर्म को खरगोश जैसा छोटा जानना चाहिये । जब हृदय में ज्ञान रूपी प्रकाश हो जाय तो दीपक के बिना भी उजाला हो जाता है । अज्ञान को हाथी के समान समझना चाहिये और शरीर को चिउटी के बिल के समान छोटा समझें । इसीलिये कहा गया है कि चिउटी के बिल में हाथी समा जाता है ।२। तेल फिर ने घाणी पिलाइ, घरटी दाणे करीअ दलाई ॥क०।। प्रवहण उपर समुद्र चाले, हरण तणे बले डुंगर हाले ।क०॥३॥
अर्थ :- ज्ञान रूपी तेल के विस्तृत होने पर वह कर्म प्रकृति रूपी घाणी को पील देता है । दुर्गति रूपी चक्की दान रूपी दानों को दल रह
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( ३७ ) है, उन्हें क्षय कर रही है। आत्मा जहाज के समान बलवान है और कर्म समुद्र के समान है । जब कर्म शक्तिशाली होते हैं तब आत्मा उछलती है किंतु कर्म रूपी समुद्र उसे डुबो देता है। यह जीव हरिण के समान है किंतु अपनी शक्ति से पहाड़ जैसे कर्म को हिला देता है, उसका क्षय कर देता है ।। ३ ।।
मेह वरसंतां बहु रज उडे, लोह तरे ने तरj बूडे । एहनो अर्थ विचारी कहेजो, नही तर गर्व कोइ मत वहेजो।क०।४।
अर्थ :- जब ज्ञान रूपी मेंह की वर्षा होती है, तब कर्म रूपी रज उड़ जाती है, तब अष्ट कर्म क्षय हो जाते हैं । तब लोहे के समान भारी आत्मा तैरती है और तृण के समान कर्म डूबते हैं अथति क्षय हो जाते हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति इस पद्य का अर्थ विचार कर कहें, अन्यथा गर्व करना छोड दें ।। ४ ।। श्री नय विजय गणिने शीष्ये, कही हरियाली मनह जगीसे । ऐ हरियाली जे नर कहस्ये, वायक जस कहे ते सुख
लहस्ये ॥क०॥५॥ अर्थ :- पं० श्री नयविजय गरिण के शिष्य ने इस हरियाली को अपने मन को हर्षित करने के लिये रचा । उपाध्याय श्री यशोविजयजी कहते हैं कि जो मनुष्य इस हरियाली को पढेंगे, वे सुख को प्राप्त होंगे ।५।
॥ इति हरियाली सम्पूर्ण ।
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*
क हरियाली और उसका अर्थ
कृत : कवि कान्ति विजय *
(ले० प्रो० हीरालाल र. कापडिया एम० ए० )
एक नर जो नपुंसक मली ने,
कुछ समय पहले मेरे द्वारा लिखित 'वल्लभ हरियाली' विवेचन सहित प्रकाशित मैंने देखी । मेरो साहित्यिक प्रवृत्ति में रस लेने वाले श्री डाह्याभाई मोतीचंद सोना चांदी वाले ने ई० सं १९०४ में 'श्री वेलजी मोहकचंद' तथा 'स. डाह्याभाई गोधावीवाला' की ओर से प्रकाशित 'श्री मनोरंजक जैन स्तवनावली' के पृष्ठ ४८ (अंतिम पृष्ठ ) पर छपी निम्न हरियाली को बताकर मुझ से उसका अर्थ पूछा ---
नारी एक नी पाई ।
हाथ पाउ नवी दोसे ते ने,
मा विण बेटी जाई ।
चतुर नर ऐ कोणे कही ए नारी,
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हरि हर सुर ने प्यारी ।
चीर चुंदडी चणीयो चोली,
नवी पहेरे ते साड़ी ।
छेल पुरुष देखो ने मोहे,
उत्तम जाती नाम धरा थे,
एवी एह रूपाली ॥ चतुर नर० ॥
弱弱
मन माने तीहां जावे ।
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( ३६ )
कंठे वलगी लागे प्यारी,
साहेब ने रोझा वे ॥ चतुर नर० ॥
उपाश्रय ते कदी ना जा बे,
देह रे जावे हरखी ।
नर नारी सुं संगे रमतां,
सौ कौ' साथै सरखी ॥ चतुर नर० ॥
एक दिवस नुं लेखन तेहने,
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फरी नहि श्रवे कई काम ।
पाँच अक्षरे छे सुंदर तेनुं,
समझी ले जो नाम ।। चतुर नर० ॥
कांति विजय कवि एणी पेरे बोल्या,
सुणजो नर ने नार ।
ए अरीआलो नो अर्थ जे करे,
सज्जन ने बलि हार ॥ चतुर नर० ॥
ए हरियाली जो नर जाणे :- इस हरियाली को कोई चतुर व्यक्ति ही जान सकता है |
मुरख कवी देपाल यखाणे :- देपाल नामक कवि कहता है कि मूर्ख इसका अर्थ जानता है ।
॥ इति हरियाली सम्पूर्ण ॥
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* आध्यामिक ससुराल और श्रृंगार *
( ले. प्रो. हीरालाल र. कापडिया एम. ए. )
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भारतीय और विदेशी साहित्य सृष्टि का अवलोकन करने वाले को यह भली भांति ज्ञात है 'रूपक' का उपयोग अनेक रचनाकारों ने किया है। जैन मुनि सिद्धर्षिगण की रचना 'उपमिति भव प्रपंच कथा' संस्कृत में रचित रूपक कथा का अजोड़ नमूना है । इसके पश्चात् जयशेखर ने वि० सं० १४६२ में 'प्रबोध चिंतामणी' नामक रूपक ग्रंथ की रचना की है । इसी विषय की विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गुजराती में रचित 'त्रिभुवन दीपक प्रबंध' है । इसे 'परमइंस प्रबंध' तथा 'प्रबोध चिन्तामणि चौपाइ' भी कहते हैं । स्व० केशवलाल ह. ध्रुव ने इसे गुजराती का प्राचीनतम रूपक ग्रंथ माना है ।
( देखें जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. ४५० )
इस प्रकार शताब्दियों से रुपक कृतियों की रचना होती चली आ रहीं
1
हैं । उनमें से एक रचना विनयप्रभसूरि द्वारा रचित 'आत्मोपदेश सज्झाय' है । यह खीमजी भीमसिंह माणक द्वारा प्रकाशित 'सज्झायमाला' के पृ. १९४ पर है । आठ गाथा की इस कृति की रचना प्रभाती राग में मीराबाई रचित 'मुझ अबलाने मोटी मीरांत बाई' से शुरु होकर 'गोविन्दो प्राण अमाटो रे' की याद दिलाती है । कवीयति के अन्य पदों का भी निम्न पंक्तियों में स्मरण होता है :
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( ४१ ) 'सासु अमारी सुषुमणा रे, ससरो प्रेम संतोष ।
जेठ जगजीवन जगत मां, मारो नावलीओ निर्दोष ॥' इन पंक्तियों का निम्न समीकरण है :
सास-सुषुमणा, ससुर-प्रेम, जठे-संतोष, नावलिया-जगजीयन ।
उपर्युत 'आत्मोपदेन सन्नाय' को उद्धत करने के पहले स्त्री के जीवन में ओतप्रोत पीहर ऑर ससुरास के व्यवतियों का पुत्र और पुत्रवधु का संबंध मनोरम रुपको द्वारा रंगीन चित प्रस्तुत करने वाला एक 'गीत का स्वरूप' नामक 'सुन्दरम्' की लेखमाला के छठे लेख में से यहां उद्धत करता हूं :हूँ तो सूती रे मारा रंग रे महेल मां,
सूतां ते सपनां लागियां जी रे । ऊंडा जलहल रे में तो सपनामां दीठां,
मान सरोवर भयाँ दठां जी रे ॥ प्रांगणे हरती रे में तो सपना मां दीठां,
___ कुंभ कलश त्या भयाँ दीठां जी रे। आंगणे आंबलों रे में तो सपनां मां दीठो,
जाय जावंत्री डूंगे-डूंगे जो रे ॥ मोतीना चोक रे में तो सपना मां दीठां,
लीलीहरियाली त्यां बहु फली जीरे। • यह लेखमाला प्रजाबंधु' ( साप्ताहिक ) में मार्च और अप्रेल के अंकों में प्रकाशित हुई है । इसमें एक साथ सात लेख है।'
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( ४२ ) मेडीये दीवडो रे में तो सपना मां दीठो,
कंकु केसर केरा छांटणा जी रे ॥ सूता जागो रे मारी नणदीना वीरा !
सपना ना अरथ उकेल जो जी रे ॥ उपरोक्त पद्य में निम्न नॉ रूपकात्मक समी करण है :कंथ-मोती का चौक, नणंद-हरियाली, पीहर-ऊंडा जलहल, पुत्र-दीवडो, पुत्रवधु-कुंकु, भाई-हस्ति, ससुर-आंबलो (आम), ससुर-मानसरोवर, सास-जांवत्री। हिंदी शब्दार्थ :
____ मैं तो अपने रंग महल में सो रही थी, सोते सोते ही मुझे स्वप्न दिखाई दिया। स्वप्न में मैंने एक गहरी झील देखी, यह मानसरोवर के समान भरी हुई दिखाई दे रही थी। मैंने आंगन में घूमते हुए भरे हुए कुंभ कलश स्वप्न में देखे । मैंने स्वप्न में आंगन में आम का पेड़ देखा, कोने-कोने में जायफल ओर जावित्री के झाड़ देखे । मैंने स्वप्न में मोतियों से भरा चौक देखा, वह स्थान बहुत हरा भरा था। मैंने स्वप्न में छत पर दीपक जलते देखा, कुंकुम और केसर के छींटे देखे । हे मेरी ननद के भाई ! नींद से उठो और मेरे स्वप्न का अर्थ करो।
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( ४३ ) * आत्मोपदेश सज्झाय
( कृत :- श्री विनयतम सूरीजी ) कर्ता :- आत्मोपदेश सज्झाय (स्वाध्याय) के कर्ता विनयप्रभ सरि हैं, किंतु वे किसके शिष्य हैं तथा यह कृति कब लिखी गई, इसका सज्झाय में उल्लेख नहीं है। विनयप्रभ नामक कुछ मुनि हुए हैं, जैसे कि (१)वि.सं.१४१२ में गौतम स्वामी का रास के रचयिता,(२) वि.सं. १५०१ में षष्ठिशतक पर टीका लिखने वाले तपोरत्न के विद्यागुरु, (३) वि. सं. १७८४ में नेमि भक्तामर के रचयिता पौर्णमिक गच्छ के भावप्रभसूरि के दादागुरु । इनमें से किसने उपरोक्त सज्झाय की रचना की है ? उपरोक्त व्यक्तियों में से ही किसी एक ने इसकी रचना की है या अन्य किसी विनयप्रभसूरि ने। इसका निर्णय करने का साधन मेरे पास नहीं हैं।
(गोपीपुरा, सूरत २८-४-४६) सासरिये अम जइये रे भाई, सासरिये अम जइये। जिन धर्म ते सासरूं कहीयें, जिनवर देव ते ससरो॥ जिन आणा सासु रहीयाली, तेना कह्यामां विचरोरे बाई ।सा.।१। अरा ने परां कयांहि न भमीय, ममतां जस नवि लहीये रे
भई ॥सा०॥टेर।। हिंदी शब्दार्थ :
मैं ससुराल जाऊँगी, भाई मैं ससुराल जाऊँगो। जिनधर्म मेरा ससुगल है । जिनवर देव मेरे स्वसुर है। जिन आक्षा मेरी सुन्दर सास है, मैं उसके कहे अनुसार काम करती हुँ इधर-उधर भटकना व्यर्थ है, भटकने से यश प्राप्त नहीं होगा ॥१॥ शियल स्वभाव सोहे घाघरियो, जीवदया कांचलडी। समकित प्रोढणी ओकी रे जोगी, शंका में से नखरडी रे बाई
॥सा० ॥२॥
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( ४४ ) हिंदी शब्दार्थ :
शील स्वभाव रूपी मेरा घाघरा शोभा देता है, जीवदया मेरी कांचली (चोली) है । मैंने सम्यक्त्व की बारीक ओढणी ओढ़ रखी है । उसे मैंने शंका से गंदा नहीं किया है ॥२॥ निश्चय ने व्यवहार तरणा बे, पाये नेउर खलके । बेउविध धर्म साधु श्रावकनो, कानें अकोटा जलके रे बाई
। सा० ॥ ३ ॥ हिंदी शब्दार्थ :
निश्चय और व्यवहार के दो पाँवों में जंपूर खनक रहे है, साधु और श्रावक के दो प्रकार के धर्म रूपी मेरे दोनों कानों में कुडल झलक रहे हैं ॥३॥ तपतणा बे बेरखा बांहे, तगत में ते जे सारा । ज्ञान परमत तणुं ते अर्चा, माहे परिणाम नी धारा रे बाई
॥सा० ॥ ४॥ हिंदी शब्दार्थ :
मेरे तप रूपी दो बाहें हैं, जो बाजूबंद के तेज से चमक रही हैं। ज्ञान रूपी हृदय पर परिणाम की धारा रूपी हार पड़ा है ॥४॥ राग सिंदुरनुं की, टीखें, शीयलनो चांडलो सोहे।। भावनो हार हैयामां लहे के, दान ना कांकण सो हे रे बाई
॥ सा० ॥ ५॥ हिंदी शब्दार्थ :
__राग रूपी सिंदूर की बिन्दी लगी हैं, जिस पर शील का टीका लगा है । हृदय पर भावना रूपी हार लहक रहा है और हाथो में दान रूपी कंगन शोभित हैं ॥५॥
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( ४५ ) सुमति सहेली साथै लहनें. दोठे मारग वही यें, क्रोध कषाय कुमति अज्ञानी, तेहथी वात न करिये रे बाई
॥ सा० ॥६॥
हिंदी शब्दार्थ :
सुमति सहेली को साथ में लेकर मैं जिनेश्वर द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चल रही हूँ । क्रोध, कषाय रूपी अज्ञानी कुमति से मैं बात भी नहीं करती ॥६॥
मिथ्यात्वी पीयरमा न वसीयें, रहेतां अलखामणा थइयें। मोह भाया मावतर वीरुआं, दोहि लो काल निगमिये रे बाई
॥ सा० ॥ ७ ॥
हिंदी शब्दार्थ :
जिस पीहर में मिथ्यात्व हो उसमें नहीं रहना चाहिये, क्योंकि उसमें रहने से दोष लगता है। मोह माया रूपी पीहर ठीक है, इसमें कठिन समय निकल जाता है ॥७॥
अनुभव प्रीतम साथे रमतां, प्रेमे आनंद पद लहियें। विनयप्रभसूरि प्रसा, भावे शिवसुख लहिये रे बाई ॥सा०॥८॥
हिंदी शब्दार्थ :
अनुभव रूपी प्रीतम के साथ रमण करते हुए, प्रेम से आनंद पद की प्राप्ति होती है । विनयप्रभ सूरि कहते हैं कि भावना के ही प्रताप से शिव सुख की प्राप्ति होती है ॥८॥
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( ४६ ) उपरोक्त पद्यों में पीहर, ससुराल, वस्ल और अलंकार के लिये निम्न रुपक समीकरण अनुक्रम से दृष्टि गोचर होते हैं:
पीयेरियां.- पीहर = मिथ्यात्वी, मावतर = मोहमाया। सासरियां:- प्रीतम = अनुभव, ससर = जिनवर देव, सास= जिनआना,
ससुराल = जिनधर्म। वस्त:- ओठणी (जीणी)= समकित. कांचलड़ी जीवदया, घाघ
रियोशीयल स्मभाव।। अलंकार:- अकोर =विविध धर्म, कांकण = दान, चांडलो =शीयल । टीलु':- राग सिंदूर, नेपुर = निश्चय और व्यवहार, बेरखा = तप
हार= भाव। इसके अतिरिक्त अन्य मत का ज्ञान = आर्या और सुमति = सहेली।
★★★★★
TALUSINE
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:- ढाई सौ वर्ष पुरानी समस्या
( ले. प्रो. हीरालाल र. कापडिया एम. ए. )
-:
घोर विमल के शिष्य नयविमल उर्फ ज्ञानविमलसूरि के राज्य में वि० सं० १७४५ में श्रीपाल चरित्र की रचना की और ए० दे० ला० जै० पु० संस्था की ओर से ई० सम १६१७ में प्रकाशित हुआ । इसमें ३ आ पन पर निम्नलिखित समस्या दृष्टि गोचर होती हैं
'स्त्रीयुग्मन रयुग्मोत्थः, कृष्णोऽन्तर्वहिरुज्जवलः । देवानामपि यो देव, सर्वनिर्वाह साधकः ॥ समुद्रोऽपि जलाद् भीतो, गतक्रमो बहुभ्रमीः । सर्वभाष्यपि मौनी च, साक्षरोपि जडात्मकः ॥ १ ॥
इन दो पद्यों का भावार्थ गद्य में न देकर रसिक पाठकों को आनन्दित करने हेतु समस्या को हरियाली पद्य में प्रस्तुत कर रहा हूँ :
'नारी केरी जोडी परणे, नरना युगने रंगे रे तेहनो पुत्र प्रदभुत शौर्य, वर्णन एनं करुं हुं रे ॥ १ ॥ अंतर कालो काजल जाणे, बहारथी उजलो अंगे रे । देवो के देव गणाये, निवहिशत ने साधे रे ॥२॥ समुद्र तो पण जलथी बीए, चरण बिना ये चाले रे । भाखे सधलुं तो पण मौनी. जड छे यद्यपि साक्षर रे ॥३॥ शान हीर ए सुत ने जाणे, रसिक जनों आनंदे रे ।।
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१. इस समस्या के प्रति मेरा लक्ष्य आगमोद्धारक संतानीय श्री लाभ सागरजी ने खींचा ।
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( ४८ ) उपरोक्त समस्या का उत्तर 'लेख' है, ऐसा कर्ता ने श्रीपाल चरित्र में कहा हैं । 'लेख' या 'पत्र' की उत्पत्ति लेखनी और स्याही दो स्त्री वाचक शब्दों से होती है । इतना ही नहीं 'कागज' या 'पत्र' इन दो पुरुष वाचक शब्दों का भी इसमें योगदान है । इस प्रकार 'लेख' दो स्त्रियों और दो पुरुषों के योग से उत्पन्न संसान है।
यहाँ 'समुद्र' का अर्थ 'सागर' नहीं है। यहाँ 'मुद्रया सहितः समुद्रः' मुद्रा सहित समुद्र का अर्थ है । इसी प्रकार 'साक्षर' का अर्थ 'विद्वान' न कर 'अक्षर' सहित' अर्थ करने से समस्या की कटुता दूर हो जाती है।
'सुभाषित रत्न भंडारागार' में तो उपर्युक्त समस्या इस स्वरुप में दिखाई नहीं देती । क्या इस समस्या की रचना ज्ञानविमलसूरि ने ने स्वंय की है ? या इनके पूर्ववर्ती किसी कवि की रचना को इन्होनें यहां स्थान दिया है ?
२. इस अंतिम पंक्ति में संस्कृत समस्या के संयोजक का नाम और
साथ ही साथ मैंने अपना नाम भी प्रदर्शित कर दिया है ।
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• हरियाली
(गूढार्थ स्तुति)
अमर्थे प्रावी ठगे उपावी, नीची ऊंची चाडी जी। कालने पाके तेहिज थाके, आवी दूजे पाडी जी ॥ नरभव पाको मोटी खामी, पाडीमा मति मांगीजी । वीरजिनेश्वर स्तवित सुरेश्वर ने समरो बडभागीजी ॥१॥
हिंदी शब्दार्थ :
ऊँचे नीचे रास्ते से हमें ठगने के उपाय ढूंढती एक पाडी (भैंस की बेटी) वैसे ही व्यर्थ ही हमारे जीवन में आ गई (स्त्री)। किंतु समय के पक जाने पर वह भी थक जाती है, फिर दूसरी पाडी (स्त्री) भी आ जाती है। मनुष्य का जन्म पाकर भी लोग सिर्फ पाडी (स्त्री) में अपनी बुद्धि को नष्ट करते हैं, यही बड़ी कमी है। इस जन्म में तो इन्द्रों द्वारा स्तवित वीर जिनेश्वर का जो स्मरण करते हैं, वे ही बड़े भाग्यशाली हैं ॥१॥
करि बदनामी चोर हरामी, क्याथी लीधुं करियाणो जी। बीजाए लीधं काळं कीधं, त्रीजं प्रकट करे जाणो जी ॥ चोथु खंखेरे बीजं ना हेरे, तो शिव सुखडां आगे जी । चौवीस जिनवर महित पुरंदर, सेव करो मन रागे जी ॥२॥
हिंदी शब्दार्थ :
यह किराणा कहां से खरीदा गया है ? चोर हरामी ने व्यर्थ हमें बदनाम कर दिया है। एक ने तो लेकर उसे छिपा दिया है ।
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. ( ५० ) तीसरे ने उसे प्रकट कर दिया है। चौथा उसे त्याग रहा है तो भी दूसरा उसे नहीं ढूंढता। जो इन्द्र द्वारा सेवित २४ जिनवर की मन के राग सहित सेवा करेंगे, वे शिव सुख को प्राप्त करेंगे ॥२॥
जेहने पाखे जग अंध भाखे, लोकालोक नवि जाणे जी। सूरिने वंदी राजेन्द्र नंदी, दरसन वेरी ने धाणे जी ॥ मध्ये साची बातन काची, मूढपणे न उवेखो जी ।
गुरु गम सेती तत्त ने कहेती, दीपविजय मति लेखो जी ॥३॥ हिंदी शब्दार्थ :
जिसे संसार अंधा कहता है किंतु जो लोक अलोक की सर्व वस्तु को जानते देखते हैं, ऐसे सूरिजी को राजेन्द्र नंदी वंदन करता है । मध्य में बात सच्ची है, कच्ची नहीं है, मूर्ख इसका अर्थ नहीं कर सकता क्योंकि वह दर्शन का वैरी है (मिथ्यादर्शनो है) । देखिये, दीपविजय ने गुरु के प्रसाद से तत्त्व की बात कह दी है ।।३।।
गुढो (गुढार्थ) १
दु हो (प्रश्न ) पाणी पोती दुबली तरसी माती होय ।
करण हरिपाली मोकले राजा भोज विचारी जोय
अकनारी मुखकज्जल वरणकी
हीडे परगट बोले छनी
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( ५१ )
परकारण आप मुख छेदावे
मूरख सरसो गोठ न भावे ॥१॥ प्रादी अखर वीण जग सह मीठो
मध्य अखर वीण पंखी मेलो सो सज्जन मुज मुके वहेलो ॥२॥
दु हो २ दधी सुतके नीचे बसे
सो मांगत व्रज नायका कहान करी बगशीस ॥४॥
अंक जनावर अजब जनावर
चलते चलते थक्को
पाली लेइने कारण लाग्यो
फेर चलण लागो ॥१॥
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:- हरियाली -:
वरसे कांबल भीजे पाणी :
___ कंबल अर्थात् इन्द्रियें बरसती है, पानी याने जीव कर्म से भारी होता है। अर्थात् इंद्रिय रुपी कंबल के बरसने पर जीव रुपी प्राणी कर्म-जल से भीगता है।
मांछलीए बगा लीधो ताणी :
मच्छी याने लोभ और बगुला याने जीव । मच्छी ने बगुले को खींच लिया अर्थात् लोभ ने जीव को संसार में खींच लिया।
उडेरे आंबा कोयल मोरी :
__ उडे याने सावधान रहे, आम याने जीव, कोयल याने तृष्णा, मोरी याने विस्तार। तृष्णा के बढ़ने पर जीव को सावधान रहना चाहिये।
कलीय सींचतां फलोअ बीजोरी ॥१॥:
कली याने माया, बीजोरा याने लोभ, खेद । माया रूपी कली को सींचने पर लोभ, खेद, रूपी बीजोरा का वृक्ष फला पूला ।
ढांकणीए कुंभार जघडीयो :
ढक्कन याने माया, कुम्हार याने जीव । ढक्कन ने कुम्हार को बनाया अर्थात् माया ने जीव को संसार में भटकाया।
लगडा उपर गादह चढ़ीओ :
लगड़ा याने राग द्वेष अभिमान, गादह याने जीव । अर्थात् राग द्वेष अभिमान ने जीव को अपने वश में कर लिया।
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( ५३ )
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नीशा धोवे ओढण रोवे :
निशा याने शरीर, ओढण याने जीव । शरीर धुल गया अर्थात् बुढ़ापा आ गया तब जीव रोता है अर्थात् दुःखी होता हैं ।
सकरो बैठो कौतुक जोवे ॥२॥ :
सकरो याने सारा कुटुम्ब । सारा कुटुम्ब बैठा-बैठा बुढापे को देखकर विनोद करता है, पर कुछ मदद नहीं कर सकता ।
आग बले अंगीठी तापे :
क्रोध रूपी अग्नि जब जलती है तब अंगीठी रूपी शरीर को उप्त कर देती हैं ।
विश्वानल बेठो टाढे कंपे :
विश्वानल याने कामाग्नि, टाढ याने विषय तृष्णा । कामाग्नि के वशीभूत जीव विषय तृष्णा से काँपता है ।
खीलो दूजे ने भैंस विलोए :
खीलो याने जीव, भेंस याने शरीर । जीव पुण्य दुहता है, पुण्यार्जन करता है, इब ये भेंस रूपी शरीर उस सुख को भोगता है । मीनी बेठी माखंण तापे ॥३॥ :
मीन याने माया, मक्खन याने जीव । माया के वशीभूत जीव संसार समुद्र में भटकता है ।
बहु वीआई सासु जाई :
बहु याने कुमति | जब कुमति व्याप्त होती है, तब चिंता रूपी सास को उत्पन्न करती है ।
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( ५४ )
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लटुडे देवरे मातनी पाई :
लटुडे देवरे याने लघुकर्मी, माता याने सुमति । लघु कर्मी जीव ने सुमति माता को उत्पन्न किया ।
ससरो सुतो वहु होंडोले :
ससुर याने जीव, सोता याने प्रमादवश, वहु याने सुमति । जीव प्रमादवश सो रहा है, उसे सुमति झुलाती है अर्थात् उसे जागृत करती है ।
हालो हालो सोभावी बोले ||४|| :
हालो - हालो - चलो चलो, उद्यम करो यह स्वभाव कहता है । समय थोड़ा है, पुरुषार्थ करो ।
सरोवर उपर चढी बिलाइ :
सरोवर याने शरीर, बिलाइ याने बुढ़ापा । शरीर पर बुढापा चढ गया है, व्याप्त हो गया है ।
बंभण घरे चंडाली जाई :
ब्राह्मण याने ज्ञानी जीव, चंडालन याने कदाग्रह । ज्ञानी जीव के घर में कदाग्रह उत्पन्न हुआ अर्थात् ज्ञानवान जीव को कदाग्रह रूपी चंडालन पैदा हुई ।
कीड़ी सुती पोली नमावे :
कीड़ी याने माया, सोती याने विस्तृत हुई, पोल याने काया, शरीर । माया के अधिक विस्तृत होने पर वह शरीर रूपी पोल (द्वार) में नहीं समाती है ।
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( ५५ ) ऊँट वणी परनाले जावे ॥५॥:
ऊँट याने लोभ, परनाला याने व्यापार आदि पाप । अधिक लोभ से प्राप्त धन व्यापार आदि पाप के नाले में बह जाता है । डोकरी दूजी भेस वहके :
डोकरी याने चिंता, भेंस याने शरीर । चिंता के दुहने पर याने बढने पर शरीर बहकता है अर्थात् सूखता है । चोर चोरे ने तलार बांधी मुके :
चोर याने मन, तलार याने शरीर। मन चोरी करता है, पाप करता है और शरीर को बंधन में डाल देता है ।
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चेतन चेतो चतुर चबोला:
चबोले जे नर खोजे:
-
हरियाली *
हे चेतन ! चतुर वाक्य की शिक्षा को समझो ।
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चतुर की चतुराई से जो मूर्ख है वह अपनी नासमझी के कारण रूष्ट होता है ।
मूरख वाते हइडुं रीके:
चार मुर्ख मिलें और उनकी बातों से जिसका मन प्रसन्न हो । तेहने शी शबाशी दीजे ॥ १० ॥ :
उस मूर्ख को पडित किस प्रकार धन्यवाद दे ? मूर्ख है ! गधा है । क्या इस प्रकार धन्यवाद दे ? अतः मूर्ख के समक्ष शास्त्र वाचन शस्त्र जैसा है । अत: जो व्यक्ति चतुर हो उसे समझ जाना चाहिये ।
पाये खोटे मेहेल चलावे:
आत्मा मनुष्य भव प्राप्त करके भी सम्यक्त्व की नींव के बिना चरण सित्तरी रुपी चित्रशाला महल चुनावे तो चरित्र महल सुशोभित न हो ।
थंभ मलो बे माल जडावे:
दान, शील, तप, भाव रुपी चार थंभे मजबूत नहीं कमजोर हैं तब उनके ऊपर व्रत रुपी महल कैसे बनेगा ?
वाघनी बोडे बार मुकावे :
परमाधामी रुपी बाघ सामने खड़े हैं, फिर व्रती के द्वार खुले रखें वे मूर्ख हैं ।
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नारी मोटी कंथ छे छोटो:
( ५७ )
वांदरा पासे नेव चलावे ॥२॥चे०॥ :
मन रुपी चंचल बंदर से अपने पाप ढकने के लिये नेव चलावे तो पाप कैसे ढँकेगा ?
छोटा है ।
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संसार में तृष्णा रुपी नारी बड़ी है और आत्मा रुपी पति
नावे भरतां पारणीनो लोटो:
अज्ञानी जीव को उपशम जल का लोठा भरना भी नहीं आता । पूंजी विना वेपर छे मोटो:
ज्ञान रुपी पूंजी-धन के बिना कष्ट क्रिया रूपो बड़ा व्यापार करता है ।
कहो केम धरम नावे टोटो ॥ ३ ॥ चे० ॥ :
फिर घर में नुक्शान क्यों न हो ? अज्ञानी कष्ट उठाकर भी दूर्गति में जाता है ।
बाप थइ ने बेटी ने धावे:
आत्मा रूपी पिता से कर्म रूपी बहुतायत द्वारा कुमति माँ की बेटी होकर जीव उसे पोषित करता है ।
कुलवंती नारी कंथ नचावे:
वह बेटी घर में धंधा करती है तब अशुभ चेतना रूपी स्त्री से विवाहित वह स्त्री आत्मा रूपी पति को नचाती है ।
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( ५८ ) वरण अढार- एढुं खावे :
उस स्त्री की शक्ति से अनंत सिद्धों की झूटन खाता है अथति पुदग्लाभिनंदी नहीं बनना है । संसारी अवस्था में सिद्ध के अनंत जीवों ने आहारिक पुद्गलों का भक्षण कर वमित पुद्गल रूपी झूटन को जीव अशुद्ध चेतना के योग से भोगता है । मागर ब्रह्मण ते कहावे ॥४॥०॥
___शुद्ध स्वरूपी आत्मा जीवत्वपन में रहते हुए भी सिद्ध जैसा कहलाता हैं। मेरु उपर एक हाथी चढीओ :
संयम-श्रेणी-मार्ग रूपी मेरू पर चौदह पूर्वधारी मुनि रूपी हाथी ही चढ़ सकता है। कोडी नी कुंके हेठो पडिओ:
किंतु निद्रा रूपी चिउंटी की फूंक से नीचे गिर पड़ा अर्थात् प्रमादवश पुन: संसार सागर में गिर पडा । कहा है कि:
'चाउदस पुत्वी माहार गाय मलनाली वीयहागा विलुति पमाय परवसात् यगं तरमेव च उठाईमा ।' हाथी उपर बांदरो बेठो:
चरित्र रूपी हाथी पर अभव्य जीव रूपी बंदर बैठा है अर्थात् अभव्य जीव यदि चरित्र ग्रहण करे तो क्रिया के बल पर वह नवग्रेवेयक देव विमान तक जा सकता है । कोडी ना दर मां हाथो पेठा ॥५॥०॥ :
हाथी के समान चौदह पूर्व धारी भी प्रमाद के वश निगोद रूपी चिरंटी के बिल में प्रवेश कर जाता है ।
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( ५६ ) ढांकणीए कुमारज घडीओ:
____ माया रूपी ढक्कन ने चतुर आत्मा को भी कुम्हार बना दिया । लगडा उपर गर्दभ चढीओ :
कुम्हार के घर में मन रूपी गधा है, वह राग द्वेष रूपी लक्कड़ पर चढ़ गया है। प्रांधरो दर्पण मां मुख नीरखे:
___ अज्ञान से अंधा बना आत्माध्यान रूपी दर्पण में अपना मुंह देखता है अर्थात् अतीत लोक समाधि पर चढे किंतु मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। मांकडु बेठु नाणुं परखे ॥६॥चे०॥ :
जैन शासन प्राप्त किया तो भी क्या सिद्ध हुआ ? चंचल चित्त से अति विषयासक्त होकर नव तत्त्व आदि रुपयों की परीक्षा कर रहा है। अथात् रुपया तो खरा है किंतु व्रतधारी चंचल बंदर के समान है, यह आश्चर्य है। सुके सरोवर हंस ते माले:
विषयी आत्मा ज्ञान उपशम जल रहित संसार में मृगतृष्णा, ध्यान मन, स्त्री सुख रूपी सरोवर में जीव रूपी हँस को देख रहा है । अर्थात व्रतधारी मुनि चारित्र सरोवर से भ्रष्ट होकर संसार में विषय रूपी सूखे सरोवर में आसक्त होता है । पर्वत उडी गगने चाले:
ऐसे भ्रष्ट चरित्र वाले पर्वत के समान संयम पर रहते हुए भी नीचे गिरते हैं, जब कि वायुकाय एकन्द्री भी आकाश में उड़ते हैं।
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( ६० ) छछंदरी थी वाद्य ते भडक्या :
वे अवधिज्ञान, मनपर्यवज्ञान धारी, पूर्वधर मुनि वाद्य के समान थे किंतु माया रूपी छिपकली से भडकाये जाने पर संसार में पड़े हैं । सायर तरतां झाझ ते अडक्या ॥७॥चे। :
___ वे मुनि चारित्र रूपी जहाज से भवसमुद्र पार कर रहे थे कि मान रूपी पर्वत से टक्करा कर वही फँस गये । अब तो कभी भारंड पक्षी के समान कोई ज्ञानी मिलेंगे तभी भवसागर पार कर सकेंगे।
सुतर तांतणे सिंह बंधाणो :
आद्रकुमार जैसे सिंह के समान मुनि भी सूत के कच्चे धागे से बंधकर फिर से गृहस्थ बन गये ।
छिलर जल मां तारु मुंझाणा :
जिन्होंने उपशम श्रेणी पर आरुढ होकर संसार को अल्प कर लिया है, फिर भी सराग संयम के फलस्वरूप देव गति में गये, इसे कहते हैं छिछले जल में तारा बनकर डूबना ।
उधण आलसु धण कमायो :
जिन व्यक्तियों ने पंचेन्द्रियों के विषयों को देखने सुनने के लिये उधरण मुनि का रूप धारण किया तथा नवीन कर्म बंध में आलसु मुनि का रूप धारण किया, उन्होंने केवल ज्ञान रूप धन को प्राप्त किया ।
कीडीए एक हाथी जायो ॥८॥०॥ :
चरम गुणस्थान की चरम श्रेणी पर चढकर इस चिउंटी समान
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जीव ने सिद्धत्व रूप हाथी को प्राप्त किया अर्थात् जीवसिद्ध स्वरूप बन गया, इसी से कहा गया कि चिउंटी ने हाथी को जन्म दिया।
पंडित एहनो अर्थ ते कहेज्यो :
यदि आप विद्वान हैं तो उपरोक्त हरियाली का अर्थ कर बतावें।
नहीं तो बहुश्रुत चरणे रहेज्यो :
यदि विद्वान नहीं हैं तो किसी बहुश्रुत विद्वान मुनि के पास रहें, जिससे आप को इसका अर्थ ज्ञात हो सके।
श्री शुम वीर- शासन पामी :
श्री वीर परमात्मा के शासन को प्राप्त कर ।
खाधा पीधानी नकरो खामी ॥६॥०॥:
श्री शुभविजय गणि के शिष्य पंडित श्री वीर विजय गणि कहते हैं कि ज्ञान अमृत रूपी भोजन और उपशम रूपी जल की वीर शासन में कोई कभी नहीं है, अतः इन्हें खाने पीने में किसी प्रकार की कमी न रखें अर्थात् इनको प्राप्त करने का सर्वदा उद्यम करते रहें ।
इति भावार्थ इति श्री हरियाली संपूर्ण
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卐 हरियाली
साधु सरोवर झीलतारे :
जैन साधुओं के स्नान वजित है फिर भी मुनि समता जल से भरे उपशम सरोवर में स्नान करते हैं।
स० नाके रूप निहालता रे :
जिस मुनि को तपस्या द्वारा संभिन्न श्रोतादिक लब्धि उत्पन्न हो गई हो, वह नेत्र बंद कर नाक से नेत्र का काम ले सकता है, रूप आदि देख सकता है।
स० लोचनथी रस जाणता रे :
नेत्र से रसेन्द्रिय का काम ले सकता है । नेत्र से खट्टे मीठे रस का पता लगा सकता है। एक इन्द्रिय से पाँचों इन्द्रियों का काम ले सकता है । पुनः पाँचों इन्द्रियों को ज्ञान होता है ।
स० मुनिवर नारी सं रमे रे. गा. ॥१॥:
विरती रूपी नारी के साथ मुनि निरंतर क्रीडा करते हैं । स० नारी हींचोले कंथ ने रे :
समता सुन्दरी नारी अपने आत्मा रूपि पति को ध्यान रूपी झूले पर बिठा कर झुलाती है । स० कंथ घणा एक नारी ने रे :
तृष्णा रूपी स्त्री ने संसार के सब जीवों को अपना पति बना रखा है, सबसे शादी की है।
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स० सदा योवन नारी ते रहे रे :
यह महान् आश्चर्य है कि तृष्णा रूपी नारी से विवाहित अनेक संसारी जीव मृत्यु को प्राप्त होते हैं, किंतु वह स्त्री तो सदा युवती ही रहती है, कभी वृद्ध नहीं होती।
स० वेश्या विलुधा केवली रे. गा. ॥२॥:
मुक्ति रूपी सिद्धि को अनंत सिद्धों ने भोगा, अतः वह वेश्या ही है, उसमें केवल ज्ञानी लुब्ध होते हैं, वे फिर संसार में नहीं आते ।
स० आँख विना देखे घणं रे :
केवल ज्ञानी को इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं होती, अत: वे आँख के बिना ही देखते हैं, ज्ञान नेत्र से संसार को देखते हैं। .
स० रथ बेठा मुनिवर चले रे :
अठारह हजार सीलिंग रथ में बैठकर मुनिराज मुक्ति मार्ग को ओर प्रयाण कर रहे हैं। स० हाथ जले हाथी डुबोयो रे :
अर्ध पुद्गल में स्थित संसार को हाथ जल संसार कहते हैं। जीव उपशम श्रेणी में चढ़ते हुए सराग संयम में पडकर कभी मिथ्यात्व प्राप्त करे, उसे हाथी जैसे विशाल प्राणी का हाथ भर जल में डूबता कहते हैं
स० फुतरीआ केशरी हण्यो रे. गा. ॥३॥ :
निद्रा रूपी कुतिया ने चौदह पूर्वधारी केसरी सिंह को भी मार दिया अर्थात् प्रमाद के योग से चौदह पूर्वधारी भी संसार में भटकते हैं।
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( ६४ ) स० तरस्यो पाणी नहि पिए रे :
___ संसारी जीव अनादिकाल से प्यासा है, उसे गुरू वाणी रूपी अमृत जल पिलाते हैं, फिर भी वह नहीं पीता। स० पग विटुणो मारग चले रे :
श्रावक और साधु धर्म इन दो पाँवों में से यदि एक पाँव ठीक न हो और आत्मा परभव के मार्ग पर चले तो वह बहुत दुःख प्राप्त करता है।
स० नारि नपुंसक भोगवे रे :
मन नपुंसक है, वह चेतना रूपी स्त्री को भोगता है अर्थात् जब चेतना मन के साथ हो जाती है, तब वह यथा इच्छित विषय आदि में विलास करती हैं।
स० अंबाडी खर उपरे रे ॥४॥:
भवभिनंदी दुरभव्य, अभव्य अथवा अरोचक कृष्ण पक्षी मनुष्य को गधा कहा जाता है, ऐसे व्यक्ति को दीक्षित करना अर्थात् गधे पर अम्बाडी लादना कहलाता है ।
स० नर एक नित्ये उभो रहे रे :
एक पुरुष सदैव खड़ा ही रहता है। क्योंकि चौदह राजू प्रमाण लोक एक है, उसके मध्य सर्व भाव कहे गये हैं । ऐसे लोक में पंचास्तिकाय के मध्य उर्ध्व, अधो, तिरछो दिशा के प्रमाण में जो पुरुष के आकार में है। जैसे पुरुष दोनों पाँव दूर-दूर रखकर दोनों हाथ कमर पर रख कर खड़ा हो, इसी आकार को लोक समझें।
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( ६५ )
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स० बेठो नथी नवी बेस - सेरे :
शाश्वत लोक खड़े पुरुष के आकार का है, उसे लोग प्रकाश में पुरुषाकार कह कर संबोधित करते हैं, वह न कभी बैठा है, न कभी बैठेगा |
स० अर्ध गगन वचे ते रहे रे :
उर्ध्व, अधो, तिरछी सभी दिशाओं में यह अलोक है, मध्य में लोक है अतः अनन्त प्रदेश आकाश के मध्य में लोक स्थित है ।
स० मांकडे माझन घेरीऊं रे ॥५॥ :
भव्य जीव देव त्रियंच आवि गति प्राप्त किये रहते हैं, उन्हें माझन कहते हैं, उन्हें कंदर्प रूपी मकड़ी ने संसार में घेर रखा है । मुक्ति में नहीं जाने देते ।
स० उंदरे मेरु हलावीओ रे :
पंच महाव्रत धारी मुनि को कभी संज्वलन का उदय हो तो अतिचार रूपी चूहा लग जाय तो वह माँच - महाव्रत रूपी मेरू को हिला सकता है और संज्वलन कषायोदय रूपी चूहा लग जाय तो उत्तर गुणों की विराधना करें ।
स० सुरज अजवालु नवि करे रे :
एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी संसारी जीवों को तिरोहित भाव से केवल ज्ञान है, किंतु इस वीर भाव के प्रकट हुए बिना आत्मा में प्रकाश नहीं होता क्योंकि केवलज्ञान ही सूर्य है ।
स० लघु बंध बत्रीस गया रे :
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( ६६ ) यों अज्ञान में संसार में रहते हुए वय रूपी बल हानि प्राप्त होती है। जिह्वा के बाद जन्मे बत्तीस दांत उसके छोटे भाई होते हुए भो उसके पहले ही चले जाते हैं ।
स० शोके घटे नहि बेनडी रे ॥६॥ :
बत्तीस भाइयों के जाने पर भी बड़ी बहिन जीभ को वैराग्य नहीं होता। आहार आदि का लालच तो होता ही है, पर लोलुपता भी कम नहीं होती अर्थात् चेतन को वृद्धावस्था प्राप्त होने पर भी वह नहीं चेतता।
स० सांमलो हँस में देखीयो रे :
सम्यक्त्व रहित आत्मा रूपी हँस को काला ही कहा जा सकता है, अथवा चेतन रूपी हँस कृष्ण परिणाम को प्राप्त होने से काला ही दिखाई देता है। स० काट वल्यो कंचन गोरी रे :
____अढ़ाई द्वीप में एक हजार कंचन-पर्वत हैं। उनके समान निर्मल आत्मा को असंख्यात प्रदेश हैं, जिन्हें कर्म रूपी जंग लगा है, इसीलिये वह संसारी कहलाती हैं। स० अंजनगिरि उज्वल थयारे :
अंजनगिरी शिखर के समान सिर के काले बाल सफेद हो गये और वृद्धावस्था से काँपते हुए मृत्यु को प्राप्त हुआ। स० तोए प्रभु न संभारिआ रे ॥७॥:
फिर भी स्त्री, पुत्र, घर, धन और विलास की इच्छा करता है,
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( ६७ )
प्रभु का स्मरण नहीं करता । धर्म की सामग्री प्राप्त होते हुए भी
भव व्यर्थ गुमा दिया |
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स० वयर स्वामी पालणे सूता रे :
वयर कुमार बचपन में ही भाव चारित्री हो गये अर्थात् पालने में सो रहे हैं ।
स० श्राविका गावे हालरा रे :
श्राविका जानते हुए भी साध्वी के पास कुंवर को झुलाती है और कुल रूपी हालरिया गाती है ।
स० श्री शुभ वीर ने वालडां रे ॥८॥ :
स० थई मोटा अर्थ ते कहेजो रे :
हे वज्रकुमार तुम बड़े होकर चारित्र धारण करना और इस हरियाली का अर्थ बताना |
सुनाते हैं ।
मनुष्य
यों कवि पंडित वीर विजय गरिण को यह अर्थ पूर्ण वचन
॥ इति कुलडां हरियाली सम्पूर्ण ॥
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शिक्षा, चिकित्सा एवम् धार्मिक प्रवृतियों
की सेवा में अर्पित जसराज गुलाब चन्द मोह णोत
चेरीटेबल ट्रस्ट भोपालगढ़, (राज.)
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* प्रेरणादायी हिन्दी साहित्य ॐ युगादिवन्दना के उड़जारे पंछी धन अजित स्तवनावलि 卐 संभव स्तवनावलि
योग शास्त्र
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जैन साहित्य के विकास व प्रचार-प्रसार
समर्पित
MENCococ2000 Docdeo500-2000000
. हुक्म ज्ञान ट्रस्ट . ढढ्ढ़ा भवन, डबगरों की गली, मोती चौक, जोधपुर-342 001.
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनकी अद्भुत वाणी में भोर चुम्बक सा आकर्षण है, जिनके उज्जवल जीवन से प्रात्मार्थियों का घर्षण है, शासन के जो रत्न हैं और, जनमत के जो तारा है, बुद्धि कैलाश कल्याण पद्म सागर सूरी चरणों में हम करते नमन हमारा है। मुद्रक : श्री प्रिण्टर्स, रावजी की हवेली, गांधी चौक, जोधपुर For Private And Personal Use Only