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गगन मंडल के श्रध बीच कुवा, ठहां है अमी का वासा । सगुरा होवे सो भर भर पीवे, नगुरा जावे प्यासा ॥ अवधू०॥३॥
चौदह राजुलोक रूपी गगन मंडल के मध्य भाग में तिरछा लोक है, जिसमें मनुष्य क्षेत्र है । इस क्षेत्र में जिनेश्वर देवों का जन्म होता है, जो केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् धर्मोपदेश देते हैं । अतः मनुष्य क्षेत्र में श्रुत धर्म और चारित्र धर्म रूपी अमृत से भरा हुआ कुआ है । सुगुरु का सुशिष्य इस कुए में से अमृत के प्याले भर-भर कर पीता है और आनन्द का अनुभव करता है जबकि कुशिष्य प्यासा ही वापस लौटता है ।
जमाया ।
गगन मंडल में गउप्रा विहाणी, धरती दूध माखन था सो विरला पाया, छासे जगत भरमाया || श्रवधू ॥ ४ ॥ श्री जिनेश्वर देव के मुख रूपी गगन मंडल में वारणी रुपी गाय ब्यायी है । इस गाय से निकले उपदेश रुपी दूध को मानव लोक में एकत्रित किया गया है । इस दूध में से ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी मक्खन की उत्पति हुई, किंतु कुछ विरल व्यक्तियों ने ही इस मक्खन को प्राप्त किया, प्राप्त कर रहे हैं और प्राप्त करेंगे । शेष मिथ्यात्व के पंजे में फंसे हुए जीव तो स्वमत कदाग्रह, क्लेश और वितंडावाद रुपी खट्टी छाछ से ही भ्रमित हुए भ्रमित हो रहे हैं और भ्रमित होंगे ।
थड बिनुं पत्र पत्र बिनुं तुंबा, बिन जीभ्या गुण गाया । गावन वाले का रुप न देखा, सुगुरु सोही बताया || अवधू ॥ ५ ॥
तंदुरा (वाद्य) तुबे से बनता है । तुंबे की बेल के तो डाली, पत्ते, पुष्प आदि होते हैं, किंतु आत्मा रुपी तंदुरे के कुछ भी नहीं होता । इसे आत्मा रुपी गवैया बजाता है जब यह आत्मा रुपी तंदुरा प्रभु के गुण गान गाता है । तुंबे के तंदुरे के समान आत्मा का तंदुरा किसी से उत्पन्न नहीं होता अतः इसका रूप भी दिखाई नहीं देता । सुगुरु ने आत्मा का यह स्वरुप बताया है ।
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