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:- ढाई सौ वर्ष पुरानी समस्या
( ले. प्रो. हीरालाल र. कापडिया एम. ए. )
-:
घोर विमल के शिष्य नयविमल उर्फ ज्ञानविमलसूरि के राज्य में वि० सं० १७४५ में श्रीपाल चरित्र की रचना की और ए० दे० ला० जै० पु० संस्था की ओर से ई० सम १६१७ में प्रकाशित हुआ । इसमें ३ आ पन पर निम्नलिखित समस्या दृष्टि गोचर होती हैं
'स्त्रीयुग्मन रयुग्मोत्थः, कृष्णोऽन्तर्वहिरुज्जवलः । देवानामपि यो देव, सर्वनिर्वाह साधकः ॥ समुद्रोऽपि जलाद् भीतो, गतक्रमो बहुभ्रमीः । सर्वभाष्यपि मौनी च, साक्षरोपि जडात्मकः ॥ १ ॥
इन दो पद्यों का भावार्थ गद्य में न देकर रसिक पाठकों को आनन्दित करने हेतु समस्या को हरियाली पद्य में प्रस्तुत कर रहा हूँ :
'नारी केरी जोडी परणे, नरना युगने रंगे रे तेहनो पुत्र प्रदभुत शौर्य, वर्णन एनं करुं हुं रे ॥ १ ॥ अंतर कालो काजल जाणे, बहारथी उजलो अंगे रे । देवो के देव गणाये, निवहिशत ने साधे रे ॥२॥ समुद्र तो पण जलथी बीए, चरण बिना ये चाले रे । भाखे सधलुं तो पण मौनी. जड छे यद्यपि साक्षर रे ॥३॥ शान हीर ए सुत ने जाणे, रसिक जनों आनंदे रे ।।
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१. इस समस्या के प्रति मेरा लक्ष्य आगमोद्धारक संतानीय श्री लाभ सागरजी ने खींचा ।