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दा
शब्द
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ध्यान-योगीयों में यह भाषा बहुत ही प्रचलित है- करीब २००० वर्षों से यह भाषा-योगीयों द्वारा-एक दूसरे योगी या-शिष्य को समझाने में उपयोग होती रही। कबीर और दूसरे ध्यान-योगीयों ने इस संधा-भाषा या सैना-बैना और "उलटबाँसीया" कहा है । कबीर की "उलटबाँसीया" बहत प्रसिद्ध है। ये ज्यादातर पद्यों में है।
उलट बाँसीया यानी बाँस को उलटना। उल्टो को सीधा करने का जबाव देना । ये भाषा अजब है।
चीनी ध्यान साहित्य में तो ऐसी भाषा की भरमार है। ऐसे विचित्र भाषा प्रसंगों की करीब ६०० जिल्द मिलती है। इन्हें वे "कोआन" कहते हैं । जब इन ध्यानियों ने जापान में प्रवेश किया तो ये "को-आन" वहाँ भी प्रचलित हो गये।
ये रहस्य मय संकेत ज्यादातर गुरु शिष्य के प्रश्नोत्तर में ही होते थे। साधारण जन को थोड़ा कठिन अवश्य होता था-पर रोचक भी।
जैन परम्परा में भी ऐसे अनेक ध्यान योगी हुए हैं। जिनमें आनन्द घन का पहला स्थान है। इन्होंने ऐसे अनेक पद संघा-भाषा (संकेतिक भाषा) में कहे हैं जो साधारण तथा समझने में मुश्किल है क्योंकि भाषा लोकिक पर अर्थ है-लोकोत्तर । और कभी कभी तो परिपक्व बुद्धिमान भी अर्थ का अनर्थ कर लेते हैं । या फिर इन्हें सस्ता, मनोरंजन, कहकर टाल देते हैं। और इसका कारण है कि इसके पीछे छीपे रहस्य पर हम ध्यान न देकर सिर्फ शब्दों पर ही ध्यान देते हैं या अपने परिवेश में ही देखते हैं।
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