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सुधन हर्ष को ग्यारह हरियालिएँ यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं । यदि कोई विद्वान इनका अर्थ बताने की कृपा करेंगे तो बहुत प्रसन्नता होगी।
हरियाली १
पुरुषि एक नपुंसक जायो, ताणी आरालि कीधो रे । जाव जीव ते उभो रहवइ, जगमा तेह प्रसिद्धो रे ॥१॥पु०॥ तेइन मंदिर छह अति उंचु, भवतां पार न आवइ रे। सहुइ माणस तेइना घर थी, जे जोई ते पावई रे ॥२॥पु०॥ जेहनई आपलि ते हुइ उभो, तेहनई ते नहि देखइ रे । प्राहि मोटा कारण पाखइ, तेहनइ को न उवेखे रे ॥३॥पु०॥ चांद सूरज पासि तस वासो, निरमल नरस्यं राचइ रे । मस्तकि मेरु तणइ ते रहवइ, ऐ मइ बोल्युं साचइ रे॥४॥पु०॥ अंबरताइते छह ऊँचो, को नवि ढांकइ तेहनइ रे । धनहर्ष पंडित इणपरि बोलइ, ऐथी रुडू सहनइ रे ॥५॥पु०॥
हिंदी शब्दार्थ :
एक नपुंसक पुरुष उसने पैदा किया, जिसे उसने आगे कर दिया। वह जीवन पर्यंत खड़ा रहता है। वह संसार में प्रसिद्ध है ।।१।। उसका महल बहुत ऊँचा है, घूम-घूम कर भी उस तक पहुँचना मुश्किल है । सभी मनुष्य उसके घर से जो चाहिये, वह प्राप्त करते हैं ।।२।। जो अपने आप ही खड़ा रहता है, उसे कोई नहीं देख सकता। उसके खड़े रहने का बड़ा कारण क्या है ? इसका अर्थ क्या होता है ।।३।। उसका निवास चंद्र सूर्य के पास है, उसे अच्छा बुरा सब पसन्द है। उसका मस्तक मेरु के पास रहता है, यह मैंने सच कहा है ॥४॥ वह आकाश तक ऊँचा
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