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( २७ ) शरीर रूपी मंदिर में आ बसा है, उसने शील रूपी बड़े सेठ को घर से निकाल दिया है ।।६।। एक अग्नि सघलो जल सोखे, वेश्या घूघंट काढे। कुलवंती कुल लाज त्यजी करी, घर घर बाहिर हिंडे ।चतुर०॥७॥
अर्थ :- अकेली तृष्णा रूपी अग्नि ने संतोष रूपी संपूर्ण जल को पीलिया है । माया-कपट रूपी वैश्या मधुर-वचन रूपी घूघट निकाल रही है। सर्व-विरनि रूपी कुलवती स्त्रियें अपनी लज्जा का त्याग कर असंयरूपी अनेक स्थानों पर भटक रही है अर्थात् घर-घर के बाहर भटक रही है ॥७॥ ए परमारथ ज्ञान सुनी करी. आतम ध्यान सुधावो। . विनय सागर मुनि इम उपदेशे, धर्म मति मन लावो ॥चतुर०॥८॥
___अर्थ :- उपरोक्त कथन के ज्ञानमय परमार्थ को श्री वीतराग की वारणी द्वारा सुनकर आत्मध्यान में प्रवृत्ति करें। मुनि विनय सागर पाठकों को यह उपदेश दे रहे है कि आपके मन में धर्म की बुद्धि उत्पन्न हो, जिससे जन्म, जरा, मरण के दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर आप मुक्ति के सुख को प्राप्त कर सकें ।।८।।
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