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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूपी कस्तूरी को असत्य वचन रूपी परनाले में बहाया जा रहा है। ममता ने दुर्गन्ध रूपी लहसुन को भंडार में भरा है ॥३॥ प्रांबो अकफल एक तरू लागा, हंस काग एक माले। मेंढे नाहर लाते मार्यो, नाशी गयो पाताले ॥चतुर०॥४॥ अर्थ :- जीव रूपी वृक्ष को आम्रफल के समान सुख और आकफल के समान दुःख यों दो प्रकार के फल लगे हैं । जीव रूपी घोसले पर पुण्य रूपी हँस और पाप रुपी कौआ बैठा है । अज्ञान रूपी भेड़ ने विवेफ रूपी सिंह को लात से मार दिया है, जिससे वह पाताल में भाग गया है ।।४।। मच्छारक मुख मयगल गलिया, राजा घर घर हिंडे । एक ज थमे पण गज बांध्या, रान होइ कण खंडे ॥चतुर०॥५॥ अर्थ :- कलियुग के जीव स्वल्प पुण्य वाले हैं, अतः उन्हें मच्छर के समान समझना चाहिये । ऐसे मच्छर के समान मिथ्यात्वी जीव मगरमच्छ के समान बड़ी जिनवाणी को निगल रहै हैं। जीवरूपी राजा कर्मवश ८४ लाख जीवायोनि में घर-घर भटकता है-भ्रमण करता है। एक जीव के शरीर रूपी एक हो थमे से ५ इन्द्रियों रूपी पाँच हाथी बंधे हैं वे मदोन्मत्त हाथी जंजीरों के बंधन को तोड़ रहे हैं, किंतु अव्रत रूपी राजा रानो, व्रत रूपी धान के कण को खंडित करते हैं ।।५।। आठ नारी मली एक सुत जायो, बेटे बाप वधार्यो । चोर वस्यो मंदिर मा प्रावी, घरथी साह कढायो ।चतुर०॥६॥ अर्थ :- कर्म की आठ मूल प्रकृतियों को आठ स्त्रियें समझे, उन्होंने मिलकर संसार रूपी पुत्र पैदा किया है तथा कपट रूपी पूत्र ने मोह रूपी पिता को बढ़ाया है, उसे बड़ा किया है । विषय रूपी चोर For Private And Personal Use Only
SR No.008508
Book TitleAdhyatmik Hariyali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherNarpatsinh Lodha
Publication Year1955
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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