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हरियाली
II
( कृत : उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी ) कहो पंडित ते कुण नारी, वीस वरसनी अवधि विचारी ॥०॥ दो पिताए तेह निपाइ, संघ चतुविध मनमा आइ ॥०॥ ते बेटीए बाप निपायो, तेणे तास जमाइ जायो ॥क०॥१॥
अर्थ :-हे पंडिता, बीस वर्ष की अवधि में विचार कर कहें कि वह कौनसी स्त्री है ? एक तीर्थंकर और दूसरे गणधर इन दो पिताओं ने मिलकर जीवदया रूपी स्त्री को उत्पन्न किया। उसने चतुर्विध संघ से कहा तो उसके मन में जीवदया आई । उस जीवदया पुत्री ने धर्म रूपी पिता को उत्पन्न किया, उसे बेटी का बाप समझें । उस धर्म ने ज्ञान रूपी जवाई उत्पन्न किया, जिससे बुद्धि-मति सफल हुई, इसे ज्ञान समझें ॥१।। कीडीए एक हाथी जायो, हाथी सामे ससलो धायो॥०॥ विण दीवंइ प्रजुआलु थाई, कोडीना दर मां कुंजर जाई॥क०॥२॥
अर्थ :- हिंसा रूपी चिउटी ने पाप रूपी हाथी को उत्पन्न किया। उस पाप-हाथी का सामना करने धर्म रूपी खरगोश आया। धर्म-खरगोश ने पाप-हाथी को भगा दिया। पाप को हाथी जैसा बड़ा और धर्म को खरगोश जैसा छोटा जानना चाहिये । जब हृदय में ज्ञान रूपी प्रकाश हो जाय तो दीपक के बिना भी उजाला हो जाता है । अज्ञान को हाथी के समान समझना चाहिये और शरीर को चिउटी के बिल के समान छोटा समझें । इसीलिये कहा गया है कि चिउटी के बिल में हाथी समा जाता है ।२। तेल फिर ने घाणी पिलाइ, घरटी दाणे करीअ दलाई ॥क०।। प्रवहण उपर समुद्र चाले, हरण तणे बले डुंगर हाले ।क०॥३॥
अर्थ :- ज्ञान रूपी तेल के विस्तृत होने पर वह कर्म प्रकृति रूपी घाणी को पील देता है । दुर्गति रूपी चक्की दान रूपी दानों को दल रह
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