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आद्यक्षर विण ते घोडं मान, अंत्यक्षर विरण ते जग प्रधान । मध्यक्षर विण ते त्रिषा होई, तिहनइ मुहड्इन भमइ कोइ ॥२७।। (धनुष) आद्यक्षर विरण ते न लाभइ अंत, अंत्यक्षर विरण ते अवनिवंत । मध्यक्षर विरण ते दीसइ गहन, तेहनइ जोइइ दोजाइ मान ।।२८॥ (वदन) आद्यक्षर विण ते राजा गमि, अंत्यक्षर विण ते वनमाहि भमइ ।। मध्यक्षर विरण ते मधुर मीठो, ते सखी मि तथी दीठु ॥२९।। (सकर)
राग और द्वेष शुभ भावनाओं के बल से घटते हैं । जब आत्मा का राग-द्वेष रुपी मालिन्य पूर्णतया नष्ट हो जाता है अर्थात् आत्मा कषाय मुक्त हो जाती हैं, तब पूर्ण शुद्धि में से प्रकट होने वाला पूर्ण ज्ञानप्रकान जिसे "केवल शान" कहते हैं, उसे प्राप्त हो जाता है । "केवल ज्ञान" ही आत्मा की पूर्णानन्द अवस्था है।
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