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* ससरो मारो बालो भोलो *
(कृत : श्रीमद् अध्यात्मयोगी भानन्दघनजी महाराज ) 'अवधु ऐसो ज्ञान विचारी, वाये कोण पुरुष कोण नारी ?"
इस पद में वास्तव में पुरुष कौन है ? नारी कौन है ? सत्ता किसकी चल रही है ? स्वाधीन - स्वामी कौन है ? पराधीन दासी कौन है ?
इस पद्य में एक गूढ़ समस्या उपस्थित है कि एक स्त्री विवाहित भी नहीं और कुँवारी भी नहीं है । ऐसा कैसे हो सकता है ? तो क्या वह वैश्या है ? किन्तु पद्य में आगे कहा गया है कि 'उसने किसी काली दाढ़ी वाले को भी नहीं छोडा है, फिर भी वह ब्रह्मचारिणी है ।' इन सभी परस्पर विरोधी बातों को समझने के लिये पहले 'भवितव्यता' का स्वरुप बराबर समझ लेना चाहिये ।
अब हम पहले 'ससरो मारो बालो भोलो' पद्य का अर्थ करेंगे, पीछे 'भवितव्यता' की बात करेंगे । पद्य इस प्रकार है:
'ससरो मारो बालो भोलो, सासु बाल कुंवारी । पियुजी मारो पोढे पारणिये, तो में हुं भुलावन हारी ॥ नहीं हूं परणी नहीं हू कुंवारी, पुत्र जणावण हारी । काली दाढी को में कोई न छोड्यो, हजुए हुं बालकुंवारी ॥
वधु ऐसो ज्ञान विचारी, वाये कोण पुरुष कोण नारी ॥'
आनन्दघनजी महाराज ने तृष्णा को उपरोक्त रुपक पद्य में प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं कि "मेरे क्रोध नामक एक ससुर है, वह इतना भोला भाला है कि जहां कहीं जाता है, तुरन्त दिखाई दे जाता है । मेरी माया नामक सासु बाल कुँवारी है, क्योंकि वह बहुत चंचल होने से किसी एक घर में स्थिर होकर नहीं रहती । मेरा पति जीवात्मा तो अज्ञान के पालने में झूलता है और मैं स्वयं उसे झुलाती हूँ ।"
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