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आगे पृष्ठ ३३ पर 'रावरण मंदोदरी' का वर्णन निम्न पद्य में उनके कानों की संख्या के माध्यम से किया गया है
च्यारै पाया च्यारै ईस, बै जण बैठा करे जगीस । खाय काथो ने पान, बेइ जणां के कान बावीस ।।
अर्थात् चार पागे और चार ईस वाले पलंग पर दो जणे बैठे अठखेलियाँ करते हुए कत्था व पान खा रहे हैं परन्तु उनके दोनों के मिलाकर बाईस कान है। चुकि रावण के दस सिर थे, कान बीस
और मंदोदरी के दो कान जोड़ने पर यह संख्या बाईस होती है तो इससे यह कथन रावण मंदोदरी पर ही लागू पड़ता है अन्य किसी पर नही ।
मुनि श्री विनयप्रभ सूरि जी कृत आत्मोपदेश सज्जाय पृष्ठ ४३ में गुजराती निम्न पद्य में ससुराल के जीवन के माध्यम से विरक्ति मार्ग को समझाने का सुन्दर प्रयास किया गया है
सासरिये अम जइये रे भाई, सासरिये अम जइये ।
जिन धर्म ते सासरु कहिये, जिनेश्वरदेव ते ससरो ।। जिन आणा सासु रहियाली, तेना कह्यामां विचरो रे बाई । अरारे परां कयांहि न भभीये, ममता जस नवि लहिये रे बाई॥
इस पद्य में सुशील स्त्री कह रही है कि मैं ससुराल जाऊँगी, अवश्य जाऊँगी। परन्तु वह आगे कहती है कि जिन धर्म मेरा ससुराल है, जिनेश्वर देव मेरे श्वसुर है, जिनाज्ञा मेरी सुन्दर सास है। मैं सदैव उसी की आज्ञानुसार विचरण करती हूँ। इसलिये इधर-उधर कहीं भटकना व्यर्थ है क्योंकि इधर उधर भटकने से कभी यश प्राप्त नहीं होता है।
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