Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 14
________________ आनन्द का अक्षय स्रोत चेतना के स्वरूपबोध की दिशा में साधक ज्यों ही कुछ आगे बढ़ता है, तो उसके जीवन के विविध व्यवहारों में से सहज अनुभूति की, प्रत्यक्ष अनुभव की एक निर्मल धारा प्रवाहित होने लगती है । यह साधक की वैयक्तिक अनुभूति की धारा भ्रम नहीं है, कोई व्यामोह नहीं है । इसमें सन्देह जैसी कोई स्थिति नहीं है । यह कहना कि साधक की अपनी वैयक्तिक अनुभूतियाँ सही नहीं होती हैं, एक मिथ्याप्रवाद है । ज्योति बाहर से अन्दर में नहीं डाली जाती, वह तो हर साधक के अपने अन्दर से प्रज्वलित होती है । हर चैतन्य में अनुभूति की धारा अन्तःसलिला सरस्वती की भाँति अनादि काल से प्रवाहित है । अध्यात्म साधना उसे परोक्ष से प्रत्यक्ष में लाती है, अशुद्ध से शुद्ध बनाती है और उसे सहज आनन्द की ओर उन्मुख करती है । धर्म, दर्शन और अध्यात्म धर्म, दर्शन और अध्यात्म का प्रायः समान अर्थ में प्रयोग किया जाता है, किन्तु गहराई से विचार करें तो इन तीनों का मूल अर्थ भिन्न है । अर्थ ही नहीं, क्षेत्र भी भिन्न है। धर्म का सम्बन्ध आचार से है - " आचारः प्रथमोधर्म ।" यह ठीक है कि बहुत पहले धर्म का सम्बन्ध अन्दर और बाहर दोनों प्रकार के आचारों से था और इस प्रकार अध्यात्म भी धर्म का ही एक आन्तरिक रूप माना जाता था। इसीलिए प्राचीन जैन ग्रन्थों में धर्म के दो रूप बताए गए हैं, निश्चय और व्यवहार । निश्चय अन्दर में स्व की शुद्धानुभूति एवं शुद्धोपलब्धि है, जबकि व्यवहार बाह्य क्रियाकाण्ड है, बाह्याचार का विधि-निषेध है । निश्चय त्रिकालाबाधित सत्य है । वह देश-काल की बदलती हुई परिस्थितियों से भिन्न होता है, शाश्वत एवं सार्वत्रिक होता है । व्यवहार, चूँकि बाह्य आचार विचार पर आधारित है, अतः वह देशकाल के अनुसार बदलता रहता है, शाश्वत एवं सार्वत्रिक नहीं होता । दिनांक तो नहीं बताया जा सकता, परन्तु काफी समय से धर्म अपनी अन्तर्मुख स्थिति से दूर हटकर बहिर्मुख स्थिति में आ गया है । आज धर्म का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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