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विश्वज्योति महावीर कहीं है, दवा कहीं। हिंसा और असत्य, घृणा और वैर, लोभ और मोह आदि विकृतियाँ शरीर की हैं या इन्द्रियों की? दोनों की ही नहीं । फिर बेचारे इन निर्दोष जीवन साथियों को क्यों मारा जाता है ? क्या बिगाड़ा है इन दोनों ने ?
यह ठीक है कि सावधानी के तौर पर साधक शरीर एवं इन्द्रियों पर भी निगरानी रखता है, इन्हें उच्छृङ्खल नहीं होने देता है । अभ्यास के लिए कुछ अंश तक इनका नियन्त्रण भी आवश्यक है । परन्तु यह सब शुद्ध विवेक के प्रकाश में अमुक सीमा तक ही होना चाहिए । ऐसा न हो कि औचित्य की सीमा पार हो जाए, और साधना केवल देहदण्ड का ही विकृत रूप धारण कर ले । महावीर की साधना दमन की साधना नहीं है । यह ठीक है कि महावीर नग्न रहते हैं, उग्र तप करते हैं, अधिकतर जन-जीवन से दूर एकान्त वन्यप्रदेशों में साधना करते हैं, परन्तु महावीर के लिए यह सब सहज था, अन्तःस्फूर्त था, ऊपर से बलात् थोपा गया हठ नहीं था । महावीर का बाह्याचार ... अपनी शक्ति की सीमा में था और था औचित्यपूर्ण । वस्तुतः यह साधना नहीं, साधना के लिए अच्छा वातावरण तैयार करने की प्रक्रिया थी । साधनोत्तर जीवन में स्वयं महावीर ने इसे बाह्याचार या बाह्य तप की संज्ञा दी है । और जब हम किसी चीज को बाह्य मानते हैं और कहते हैं, तो फिर हमारी दृष्टि में उसका सही मूल्य क्या है, अपने आप स्पष्ट हो जाता है । उपयोग अवश्य किया, किंतु उससे चिपके नहीं रहे । जब आवश्यक हुआ, तब उन्होंने वाह्याचार में उचित हेरफेर भी किए । चिपकने वाला कभी ऐसा नहीं कर सकता ।
हाँ, तो महावीर की साधना दमन की साधना नहीं थी । वस्तुतः दमन साधना है ही नहीं । वृत्तियों का विवेकहीन अन्धनिग्रह करके वृत्तियों को शुद्ध नहीं बनाया जा सकता । यह अन्ध आत्मनिग्रह, जीवनोपयोगी साधना की हठात् अभावस्थिति, जनसाधारण में जय-जयकार पाने का एक प्रदर्शन हो सकता है, अन्तर को जगाने वाली साधना नहीं । दमन के द्वारा निगृहीत वृत्तियाँ पिंजरे में अवरुद्ध भूखे बाघ की तरह होती हैं । हाहाकार मचा देती हैं । बाँध में अवरुद्ध महानद की तूफानी जलधारा एक दिन बाँध को तोड़ देती है
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