Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 73
________________ 64 विश्वज्योति महावीर जीवन की तथाकथित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किये जाने वाले कर्म भी अपने कर्ता के ऊँच-नीचपन के द्योतक नहीं है । कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अध्ययन अध्यापन का काम करता है, दूसरा, नगर की स्वच्छतासफाई आदि का । क्या अध्ययन अध्यापन अपने में एक पवित्र कर्म है, और नगर की स्वच्छता-सफाई आदि अपवित्र कर्म है ? कर्म यदि उपयोगी है, वह सामाजिक कल्याण की दिशा में कुछ प्रगति प्रदान करता है, तो वह फिर कोई भी कर्म क्यों न हो, पवित्र है । यदि कर्म अनुपयोगी है, सामाजिक कल्याण की दिशा में अपना कुछ भी योगदान नहीं करता है, अपितु मानव समाज का अहित करता है, तो वह फिर कोई भी कर्म क्यों न हो, अपवित्र होता है, उसका अपना अन्दर का रूप, कर्ता के मन का अपना वैचारिक अन्तरंग ! अतएव महावीर सामाजिक उत्थान एवं निर्माण के प्रत्येक कार्य को पवित्र मानते थे। उनकी दृष्टि में मानव अपिवत्र नही, मानव का अनाचार, दुराचार अपवित्र था । हिंसा, घृणा, वैर, असत्य, दंभ, चोरी, व्यभिचार आदि अनैतिक आचारण अपवित्र हैं, फिर भले ही उक्त दुराचरणों को कोई ब्राह्मण करे, क्षत्रिया करे, वैश्य या शूद्र करे, इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता । भगवान् महावीर के दर्शन में सदाचार पवित्र कर्म है, और दुराचार अपवित्र । ऊँच-नीच की कसौटी मनुष्य का अपना नैतिक और अनैतिक जीवन है, न कि जीवनोपयोगी अपने कर्म, अपने पुरुषार्थ, अपने प्रयत्न । महावीर का जीवनदर्शन अखण्ड चेतना का दर्शन है, मानवीय गरिमा का दर्शन है । मानव को मानव रूप में प्रतिष्ठित देखने का दर्शन है । और मानव ही क्यों, वह चैतन्य मात्र को अखण्ड एवं अभेद दृष्टि से देखता है । उसकी चैतन्य मात्र के प्रति अद्वैत भाव की उदात्त एकत्व-बुद्धि है । अस्तु, जो दर्शन 'एगे आया' का महान उद्घोष करता है, जो प्राणिमात्र में एक समान आत्मतत्त्व का वास्तविक दर्शन करता है, जो यह कहता है कि विश्व का समग्र चैतन्य तत्त्व एक-जैसा है, वह मानव मानव में स्पृश्य-अस्पृश्य की, ऊँच-नीच की, पवित्र-अपवित्र की तथ्यहीन मान्यता को कैसे प्रश्रय दे सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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