Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 85
________________ 76 विश्वज्योति महावीर न हम एक साथ पूर्णरूप से देख सकते हैं, न व्यक्त कर सकते हैं, फिर अपने दर्शन को एकांतरूप से पूर्ण, यथार्थ और अपने कथन को एकांत सत्य करार देकर दूसरों के दर्शन और कथन को असत्य घोषित करना, क्या सत्य के साथ अन्याय नहीं है ? इस तश्य को हम एक अन्य उदाहरण से भी समझ सकते हैं । एक विशाल एवं उत्तुंग सुरम्य पर्वत है, समझ लीजिए हिमालय है । अनेक पर्वतारोही विभिन्न मार्गों से उसपर चढ़ते है, और भिन्न-भिन्न दिशाओं की ओर से उसके चित्र लेते हैं । कोई पूरब से तो कोई पश्चिम से, कोई उत्तर से तो कोई दक्षिण से, यह तो निश्चित है कि विभिन्न दिशाओं से लिए गए चित्र परस्पर एक दूसरे से कुछ भिन्न ही होंगे, फलस्वरूप देखने में वे एक दूसरे से विपरीत ही दिखाई देंगे। इस पर यदि कोई हिमालय की एक दिशा के चित्र को ही सही बताकर अन्य दिशाओं के चित्रों को झूठा बताये, या उन्हें हिमालय के चित्र मानने से ही इन्कार करदे, तो उसे आप क्या कहेंगे? वस्तुतः सभी चित्र एक पक्षीय हैं । हिमालय की एक देशीय प्रतिच्छवि ही उनमें अंकित है । किंतु हम उन्हें असत्य और अवास्तविक तो नहीं कह सकते । सब चित्रों को यथाक्रम मिलाइए, तो हिमालय का एक पूर्ण रूप आपके सामने उपस्थित हो जायेगा । खण्ड-खण्ड हिमालय एक अखण्ड आकृति ले लेगा, और इसके साथ हिमालय के दृश्यों का खण्ड-खण्ड सत्य एक अखण्ड सत्य की अनुभूति को अभिव्यक्ति देगा ।। यही बात विश्व के समग्र सत्यों के सम्बन्ध में हे । कोई भी सत्य हो, उसके एक पक्षीय दृष्टि कोणों को लेकर अन्य दृष्टि कोणों का अपलाप या विरोध नहीं होना चाहिए, किंतु उन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दृष्टि कोणों के यथार्थ समन्वय का प्रयत्न होना चाहिए । दूसरों को असत्य घोषित कर स्वयं को ही सत्य का एक मात्र ठेकेदार बताना, एक प्रकार का अज्ञान-भरा अन्ध अहं है, दंभ है, छलना है । भगवान महावीर ने कहा है संपूर्ण सत्य को समझने के लिए सत्य के समस्त अंगों का अनाग्रह पूर्वक अवलोकन करो और फिर उनका अपेक्षा पूर्वक कथन करो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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