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३२.
३३.
विश्वज्योति महावीर
जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, दुर्बादी, कपटी और धूर्त है, वह संसार के प्रवाह में वैसे ही बह जाता है, जैसे जल के प्रवाह में काष्ठ ।
जे आयरिय-उवज्झायाणं, सुस्सूसा वयणं करे । तेसिं सिक्खा पवंति, जलसित्ता इव पायवा ।
जो अपने आचार्य एवं उपाध्यायों की, अर्थात् गुरुजनों की शुश्रूषा सेवा उनकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, तथा उनकी शिक्षाएँ (विद्याएँ) वैसे ही बढ़ती हैं जैसे कि जल से सींचे जाने पर वृक्ष ।
३४.
वाया दुरुत्ताणि दुरूद्धराणि, वेणुबंधीणि महत्भयाणि ।
- दशवैकालिक ९ । ३ ॥७
• वाणी से बोले हुए दुष्ट और कठोर वचन जन्म-जन्मान्तर के लिए वैर और भय के कारण बन जाते हैं ।
अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुधमो ।
अप्पा दंतो सही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य । - उत्तराध्ययन१।१५ अपने आप पर नियन्त्रण रखना चाहिए। आपने आप पर नियन्त्रण रखना वस्तुतः कठिन है । अपने पर नियन्त्रण रखने वाला ही इस लोक तथा परलोक में सुखी होता है ।
३५. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य ।
माहं परेहिं दम्मंतो बंधणेहिं वहेहि य ॥
- दशवैकालिक ९।२।१२
- उत्तराध्ययन १।१६
दूसरे वध बन्धन आदि से दमन करें, इससे तो अच्छा है कि, मैं स्वयं ही
संयम और तप के द्वारा अपना (इच्छाओं का दमन करलूं ।
३६. अप्पाणं पि न कोवए ।
अपने आप पर भी कभी क्रोध न करो ।
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- उत्तराध्ययन १।४०
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