Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
विस्व ज्योति महावीर
उपाध्याय अमरमुनि वीरायतन, राजगृही
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्व-ज्योति
महावीर
लेखक : उपाध्याय अमरमुनि
संपादक: साध्वी चन्दना दर्शनाचार्य
श्रीचन्द सुराना .. सरस'
वीरायतन, राजगृही
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुस्तक
* विश्वज्योति महावीर
लेखक
* उपाध्याय कविरत्न श्री अमरमुनिजी
प्रकाशक
* वीरायतन राजगृह-८०३११६
जि. नालन्दा (बिहार)
संस्करण
प्रथम -दीपावली २०२६ विक्रम (वीर निर्वाण दिवस) द्वितीय-दीपावली २०२८ विक्रम तृतीय - २०५८ विक्रम (वीर जन्म दिवस)
अर्थ सहयोगी * सम्पतराज सेठिया, मैसूर
जे. एम. कोठारी, बेंगलोर पृथ्वीराज सिंघवी, आरणी
मूल्य
* पच्चीस रूपये
मुद्रक
* कोठारी प्रिन्टर्स
बालाजी काम्पलेक्स बेंगलोर - ५६० ०५३
.
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकीय
I
भगवान् महावीर परम वीतराग आप्त पुरुष हैं । उनकी कही हुई वाणी यथार्थ जनमंगल की वाणी है । उसी वाणी का आधार लेकर हमारे दर्शन एवं धर्म की चिंतनधारा प्रवाहित है । अतः श्रमण इतिहास में यदि आज कोई महापुरुष विशेष भास्कर है, तेजोमय है, तो वह भगवान् महावीर हैं ।
अबतक के प्रायः अधिकांश चरित्र ग्रन्थ, जो भगवान महावीर के दिव्य जीवन से सम्बन्धित हैं, एक निश्चित दिशा में
ही एक निश्चित माणक में ही जैसे कि रचयिता ने पूर्व निर्धारित
,
रेखाओं को खड़ी करके उसके भीतर ही अपने विचारों का महल निर्माया हो, रचे गये हैं । किंतु आज का युग कुछ और मांगता है । इसी ‘कुछ और शब्द में युग की मांग-युगबोध, युग एवं जग - जीवन - सब कुछ छिपा पड़ा है । यह कुछ और चाहता है कि भगवान की दिव्य जीवनरेखा एवं वाणी का आज के प्रवहमान युग के परिप्रेक्ष्य में पुनर्मूल्यांकन हो, चिंतन-मनन हो और एक ऐसा सरल सर्वसुलभ मार्ग उस बीच से खोज निकाला जाय कि देवत्व की कल्पना हमारे जीवन से दूर की वस्तु न होकर, हमारे जीवन के स्वस्थ विकास की परिणति में लक्षित हो । हम भगवान शब्द को सुनते ही भीरु बनकर अपना सब कुछ खो न जाएँ, बल्कि भगवान के रूप में अपने जीवन का ही स्वस्थ विकास समझें । हम भगवान् शब्द को श्रवण कर एक तेजोमय गरिमा से उद्दीप्त होकर, हम भी कुछ हैं, हमारा जीवन - मानव जीवन भी कुछ महत्त्व रखता है, इसका ध्यान करें । इससे भय नहीं, प्रेरणा प्राप्त करें, जीवन को स्वस्थ
6
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
पथदिशा की ओर ले चलने का प्रकाश प्राप्त करें ।
श्रद्वेय गुरुदेव राष्ट्रसन्त उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज ने प्रस्तुत पुस्तक- विश्व-ज्योति महावीर' में अपने जीवन के सुदीर्घ चिन्तन, अध्ययन एवं अनुभव मंथन के आधार पर वर्तमान युग के परिप्रेक्ष्य में भगवान् के जीवन एवं उनकी वाणी का पुनर्मूल्यांकन बड़े ही सुस्पष्ट एवं सरल भावधारा में प्रस्तुत किया है । इसमें भगवान महावीर के सहज जीवन का, विना किसी आग्रहविशेष से प्रभावित हुए, चित्र प्रस्तुत किया गया है । 'विश्व-ज्योति महावीर' की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि भगवान महावीर को किसी कल्पना लोक के भगवान के रूप में न अपनाया जाकर विश्व की ज्योति के रूप में अंकित किया गया है । श्रद्धेय गुरुदेव श्री ने, इसमें, अपने अनुभव के रत्नों को बड़े ही सहज ढंग से जन-मानस के समक्ष प्रस्तुत किया है।
भगवान महावीर के अबतक के जीवनविषयक लिखित साहित्य में प्रस्तुत पुस्तक अपनी शैली की प्रथम है । इसमें सिर्फ पुरानी रेखाओं में नया रंग ही नहीं, किंतु रेखाओं की कल्पना भी बड़े कलात्मक व चिंतन पूर्ण ढंग से हुई है । विचार क्षेत्रों में प्रस्तुत कृति का बहुत ही समादर हुआ है ।
जन्म शताब्दी के पावन प्रसंग पर राष्ट्रसन्त कविरत्न पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज की प्राणवान लेखनी से निसृत 'विश्व ज्योति महावीर की तृतीय आवृत्ति, जिसमें गुरुदेव ने मध्य युग की धूमिल उपेक्षित परतों में दबी पड़ी भगवान की कालजयी दिव्यता को उद्घाटित किया है, प्रकाशित की जा रही है। पूज्य गुरुदेव के इस प्रयास में वह शक्ति परिलक्षित होती है जो आज की नई पीढ़ी को भगवान महावीर के निकट लाने में समर्थ है।
प्रज्ञामहर्षि पूज्य गुरुदेव के आशीर्वाद से भगवान महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में संस्थापित वीरायतन
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सेवा, शिक्षा, साधना की त्रिपगथा - गंगा से बिहार (जो भगवान महावीर के पंचकल्याणक की भूमि है) को गरिमामंडित कर रहा
1
जन्म जयन्ती के इस मंगल महोत्सव पर सोने में सुगन्ध बनकर घुला है भगवान महावीर की जन्मभूमि क्षत्रियकुण्ड में 'तीर्थंकर महावीर विद्या मन्दिर' के निर्माण कार्य का प्रारंभ और इस प्रसंग की पृष्ठभूमि में है वीरायतन' जिसने ऐसा करके जन्मभूमि की सार्थक गरिमा को सार्थक रूप दिया है। पूज्य गुरुदेव के विराट् चिन्तन में भगवान महावीर की अहिंसा के अनेक आयामों में एक है- 'अज्ञान अशिक्षा' के घोर अन्धकार में ज्ञान के दीप प्रज्वलित करना अहिंसा ही है, और अहिंसा का यह आयाम 'तीर्थंकर महावीर विद्या मन्दिर' के निर्माण प्रयास में जीवन्त हो गया है।
सेवा, शिक्षा, साधना के उद्देश्य की पूर्ति में निरन्तर प्रयत्नशील एवं प्रगतिशील वीरायतन के परिसर में प्रभु महावीर की छब्बीसवीं जन्म शताब्दी के उपलक्ष में गत २६ जनवरी को एक विशाल पोलियो चिकित्सालय का उद्घाटन हुआ ।
जीवन के उत्स को जगानेवाली तथा व्यक्तित्व के विकास की अनुपम कार्यशाला है नवलवीरायतन, पूणें, स्वयं को जानने, समझने एवं परिशुद्ध होने की प्रक्रिया को सिखाता है नवलवीरायतन पूर्णे (महाराष्ट्र ) ।
२६ जनवरी को कच्छ - गुजरात में आये प्रलयंकारि भूकम्प से पीड़ित मानवजाति को उबारने में सतत संलग्न है ‘वीरायतन कच्छ' । समय की छोटी सी यात्रा में बहुत कुछ प्रदान किया है वीरायतन ने, जो मानवता को सुखद गर्वानुभूति प्रदान कराने वाला है।
वीरायतन
राजगृह, नालन्दा
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राक्कथन
जब कौशेय की निष्ठांत कमनीयता आत्मा की उत्तिष्ठित गरिमा में अवस्थित हो जाती है, तब राजप्रासाद के ऐश्वर्य का उत्तराधिकारी अनन्त ध्रुव-पथ की पद यात्रा में सुख पाने लगता है, कैवल्य का उद्भावक जब उस अमृत बूंद को ग्रहण कर मानव मात्र के लिए कैवर्त की भूमिका में उतरता है तो उस देवोपम लौकिक व्यक्तित्व की अलौकिकता के दर्शन की कामना हर हृदय का लक्ष्य बन जाती है।
यह जनश्रुति के आधार पर सोचकर गढ़ी गई कोई बात नहीं, ना ही कल्पना के कोरे पृष्ठों पर लिखि कोई कथा है, यह तो सत्य का अभिसर्ग है जो विगत, वर्तमान और आगत के मस्तक पर सर्वदा अंकित मलय अभिषेक है।
एक तेजस्वी राजकुमार जिसके जीवन के तीस वर्ष राजमहल के अतुल वैभव और कष्ट रहित परिस्थितियों की स्निग्ध छाँव में व्यतीत हुए, फिर भी वह सत्योन्मुख हुआ और आरम्भ हुई सत्य की यात्रा, सत्य की साधना, सत्य का प्रयोग और तब मार्ग में साथ चलते-चलते एक दिन सत्य ने उसे रोककर कहा - "तुम मेरे भीतर स्थापित हो। मैं तुम में अपना अर्थ देखता हूँ, तुम्हारी वाणी में मैं स्वयं को समिद्ध देखता हूँ। तुम अपनी आन्तरिक कला में मुझे आकार पाने दो। तुम मेरा 'वर्द्ध' हो, तुम मेरा 'मान' हो, तुम सा कोई ‘महान्' नहीं, तुम सा कोई 'वीर' नहीं - मैं आगत के अपने अन्वेषियों को तुम्हारा नाम देता हूँ महावीर"।
सहज ही प्रश्न उठेगा कि सत्य को उस महाव्यक्तित्व में उद्भाषित होते किसने देखा? उसे ऐसा कहते हुए किसने सुना? किन्तु यह प्रश्न तभी तक रहेगा जब तक उस मानव विभूति की वाणी में मन प्राण अछते रहेंगे। उस वाणी को जो पढ़ेंगे, जानेंगे उन्हें स्वयं यह आभास होगा कि सत्य ने निश्चय ही महावीर के वाग्वैचित्र्य से निसृत होना चाहा होगा।
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोई दिव्य आत्मा जब मानव शरीर धारण करता है तो सत्य की शाश्वतता, काल की निरन्तरता और पंचतत्वों की चिरन्तन सत्ता, उस रश्मि पुंज से मिलकर एकाकार हो जाती है। छब्बीस सौ वर्ष पूर्व इस अद्भुत सुखद सर्वमंगल की सृष्टि हुई थी जब वैशाली गणतन्त्र के अन्तर्गत क्षत्रियकुण्ड की पुण्य भूमि पर तीर्थंकर महावीर ने राजकुमार वर्द्धमान के रूप में जन्म लिया था।
हम नतमस्तक हैं अपने सौभाग्य के आगे जो तीर्थंकर महावीर की छब्बीस सौंवी जन्म शताब्दी मनाने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है और हमारे नश्वर जीवन की पुस्तक को एक अर्थपूर्ण अध्याय मिला है।
प्रस्तुत पुस्तक की तृतीय आवृत्ति का प्रकाशन जिज्ञासुओं की जिज्ञासा की पूर्ति एवं विशुद्ध जीवन की प्रेरणा की जागृति के लिए है।
आचार्य चन्दना
जय अचलासन, शान्ति-सिंहासन, द्वेष-विनाशन, शासन-स्पन्दन । सन्मतिकारण, कुमति - निवारण, भव - भयहारण, शीतल चन्दन ।। जय करुणा -वरुणालय जय जय,
जीव सभी करते अभिनन्दन । जय सुखकन्दन, दुरित - निकन्दन, जय जग - वन्दन, त्रिशलानन्दन !!
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुक्रमणिका 1. आनन्द का अक्षय स्रोत 2. साधना के अग्निपथ पर 3. दिव्य साधक जीवन 4. अन्तर्मुखी साधनापद्धति 5. महावीर का जीवन दर्शन 6. विश्वशांति के तीन सूत्र 7. महावीर के अमर उपदेश
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
आनन्द
का
अक्षय स्त्रोत
विश्व एक पहेली
I
इस विराट विश्व की व्यवस्था का मूल आधार है - सत् अर्थात् सत्ता' इसके अनेकानेक महत्वपूर्ण अंश मानवबुद्धि के द्वारा परिज्ञात हो चुके हैं, फिर भी मानव का तर्कशील मस्तिष्क अभी तक विश्व के अनन्त रहस्यों का ठीक तरह उद्घाटन नहीं कर पाया है, न इसकी विराट्शक्ति का कोई एक निश्चित माप ही ले सका है। विश्व की सूक्ष्मतम सीमाओं की खोज में, उसकी अज्ञातअतल गहराइयों को जानने की दिशा में मानव अनादिकाल से प्रयत्न करता आ रहा है । उसे एक सर्वथा अज्ञात रहस्य मानकर, अथवा अनावश्यक प्रपंच समझ कर वह कभी चुप होकर नहीं बैठा है । शोध की प्रक्रिया निरन्तर चालू रही है ! इसी अज्ञात को ज्ञात करने की धुन में विज्ञान के चरण अनवरत आगे बढ़ते रहे हैं, और वह अनेकानेक अद्भुत रहस्यों को, रहस्य की सीमा में से बाहर निकाल भी लाया है । फिर भी अभी तक निर्णयात्मक रूप से यह नहीं कहा जा सका है कि - विश्व का यह अभिव्यक्त मानचित्र अन्तिम है । इसकी यह इयत्ता है, आगे और कुछ नहीं है । " सचमुच ही सर्व साधारण जनसमाज के लिए विश्व एक पहेली है, जो कितनी ही बार बूझी जाकर भी अनबूझी ही रह जाती है ।
एक
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
2
विश्वज्योति महावीर
चेतन क्या अचेतन क्या ?
1
साधारण मानवबुद्धि के लिए भले ही विश्व आज भी एक पहेली हो, किन्तु भारतीय तत्त्वदर्शन ने इस पहेली को ठीक तरह सुलझाया है । भारत का तत्त्वदर्शन कहता है कि विश्व की सत्ता के दो मौलिक रूप हैं - जड़ और चेतन । सत्ता का जो चेतन भाग है, वह संवेदनशील है, अनुभूतिस्वरूप है । किन्तु जड़ भाग उक्त शक्ति से सर्वथा शून्य है । यही कारण है कि चेतन की अधिकांश प्रवृत्तियां पूर्वनिर्धारित होती हैं, हेतुमूलक होती हैं। अपनी इस निर्धारण की क्रिया में, उपयोग की धारा में चेतन स्वतन्त्र है । चेतना से ही तो चेतन है । किन्तु जड़ सर्वथा अचेतन है, चेतनाशून्य है । अतः जड़ की क्रिया होती अवश्य है, सतत होती है, परन्तु वह कोई हेतु एक लक्ष्य निर्धारित करके नहीं ।
चेतन आनन्द की खोज में
चेतन की क्रिया एवं प्रवृत्ति में कोई न कोई हेतु छिपा रहता है, और उसी को ध्रुव मानकर चेतन की गति निरंतर उसी ओर उन्मुख होती रहती है । चेतन की क्रिया का वह हेतु है - आनन्द ! सुख । सव्वे जीवा सुहसाया - जीवमात्र को सुखप्रिय है, आनन्द काम्य है । अतः चेतन अनादिकाल से आनन्द की खोज करता रहा हैं। आनन्द ही उसका चरम लक्ष्य है, अन्तिम प्राप्तव्य है | चेतन को अपनी अनन्त जीवनयात्रा में तन और मन के अनेकानेक
1
I
आनन्द मिले हैं, भौतिक सुख सुविधाएँ उपलब्ध हुई हैं, और वह इनमें उलझता भी रहा है, अटकता भटकता भी रहा है । भ्रमवश इन्हें ही अपना अन्तिम प्राप्तव्य मान कर सन्तुष्ट होता रहा है । परन्तु यह आनन्द क्षणिक है । साथ ही दुःखमूलक भी । विषमिश्रित मधुर मोदक जैसी स्थिति है इसकी । अतः जागृत चेतन कुछ और आगे झाँकने लगता है, शाश्वत मुक्त आनन्द की खोज में आगे चरण बढ़ा देता है । उक्त सच्चे और स्थायी आनन्द की खोज ने ही मोक्ष के अस्तित्व को सिद्ध किया है- परम्परागत दृष्ट जीवन से परे अनन्त, असीम आनन्दमय जीवन का परिबोध दिया है ।
जड़ की स्वयं अपनी ऐसी कोई खोज नहीं है। जड़ की सक्रियता स्वयं
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
आनन्द का अक्षय स्रोत
उसके लिए सर्वतोभावेन निरुद्देश्य है, जबकि चेतन की क्रियाशीलता सोद्देश्य है । चेतन का परम उद्देश्य क्या है, और वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसी विश्लेषण की दिशा में मानव हजारों हजार वर्षों से प्रयत्न करता रहा है । यह चिन्तन, यह मनन, यह प्रयत्न ही चेतन का अपना स्व-विज्ञान है, जिसे शास्त्र की भाषा में अध्यात्म कहते हैं, अध्यात्म-भूमिका ज्योंही स्थिर स्थिति में पहुँचती है, साधक के अन्तर् में से सहज आनन्द का अक्षय-अजस्त्र स्त्रोत फूट पड़ता है।
चेतन के स्वरूपबोध का मूलाधार स्थूल दृश्य पदार्थों को आसानी से समझा जा सकता है, उनकी स्थिति एवं शक्ति का आसानी से अनुमान भी हो सकता है । किन्तु चेतना के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है । चेतना अत्यन्त सूक्ष्म तथा गूढ़ है । दर्शन की भाषा में वह • अणोरणीयान्। अणुसे भी अणु है, सूक्ष्म से भीसूक्ष्म है, सूक्ष्मतम है । साधारण मानव-बुद्धि के पास तत्त्व-चिन्तन के जो इन्द्रिय एवं मन आदि ऐहिक उपकरण हैं, वे बहुत ही अल्प हैं, सीमित हैं । साथ ही सत्य की मूल स्थिति के वास्तविक आकलन में अधूरे है, अक्षम हैं । चूँकि चेतन-अमूर्त है, जबकि इन्द्रियाँ सिर्फ मूर्त को ही देख पाती हैं " नो इन्दियगेज्झ अमुत्तभावा । अतः इन्द्रिय एवं मन आदि के माध्यम से चेतना का स्पष्ट परिबोध नहीं हो पाता है । केवल ऊपर की सतह पर तैरते रहनेवाले भला सागर की गहराई को कैसे जान सकते हैं ? जो साधक अन्तर्मुख होते हैं - साधना के पथ पर एक निष्ठा से गतिमान रहते हैं - चेतना के चिन्तन तक ही नहीं, अपितु चेतना के अनुभव तक पहुँचते हैं - निजानुभूति की गहराई में उतरते हैं, वेहीचेतना के मूलस्वरूपका दिन के उजाले की भाँति स्पष्ट परिबोध पा सकते हैं । उनकी यह प्रत्यक्षानुभूति जन-कल्याण की दिशा में जो शब्दात्मक अभिव्यक्ति का रूप लिया करती है, वही शब्दप्रमाण साधन बन जाता है सर्वसाधारण जन के लिए, चेतना के स्वरूपपरिबोध का - चेतना की मौलिकव्याख्याका । यह शब्दप्रमाणं, जिसे हम सब शास्त्र या सिद्धान्त कहते हैं, जितना ही अधिकवास्तविक और सक्षम होगा, उतनी हीअधिक चेतना की व्याख्या वास्तविक और सक्षम होगी ।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वज्योति महावीर
शब्द - सत्य : अनुभूति - सत्य
शब्द प्रमाण की, शास्त्र की चर्चा आ गई है, तो प्रस्तुत संदर्भ में एक बात समझ लेनी बहुत आवश्यक है । यह ठीक है कि सत्य के साक्षात्कर्ता महान् आत्माओं का अपना प्रत्यक्षानुभव साधारण साधकों को शास्त्र के माध्यम से मार्गदर्शन की दिशा में काफी उपयोगी होता है । परन्तु यह उपयोगिता एक सीमा तक ही है । शब्द-प्रमाण पर अधिक निर्भर रहने की मनोवृत्ति साधक को पंगु बना देती है । वैसाखी के सहारे जैसे-तैसे गति तो हो सकती है, किन्तु प्रगति नहीं । वास्तविक प्राप्तव्य तथ्य का बोध दूसरों के शब्द-तंत्र से मानससागर में उच्छल होने वाली चन्द गिनी चुनी परिकल्पनातरंगों या भावनालहरियों पर से नहीं हो सकता है । दूसरों की अनुभूतियों से नहीं, किन्तु अपनी ही अनुभूतियों से सत्य का साक्षात्कार होता है । अन्धे को दूसरों की आँखों का देखा कितना बोध दे पाता है ? दूसरों की जीभ का चखा हमें कितना रसबोध देता है ? और वह बोध होता भी कैसा है ? मात्र परोक्ष ।
4
आप जानते है, प्रत्यक्ष व परोक्ष बोध में अन्तर है, बहुत बड़ा अन्तर है । दूसरों की आँखो का देखा, भले ही वे आँखें कितनी ही दिव्य क्यों न हों, अपने लिए परोक्ष ही हैं। अपनी स्वयं की निर्विकार एवं निर्मल आँखों का देखा ही अपने लिए प्रत्यक्ष है । यही बात रसास्वादन के सम्बन्ध में है । सच्चा ज्ञान स्वयं की अनुभूति से ही जागृत होता है । परनिर्भरता पशुबुद्धि का लक्षण है । यह एक प्रकार की मानसिक दासता है । एक प्रकार की भिक्षा है। भिक्षा और अर्जन में अन्तर है । ज्ञान की भिक्षा नहीं, ज्ञान का अर्जन होना चाहिए । दूसरों की अनुभूतियों पर आधारित शब्दप्रमाण अमुक सीमा तक ही प्रकाश देता है, मार्ग-दर्शन करता है । आगे का लम्बा मार्ग तो स्वयं की अनुभूति से ही तय करना होता है । स्वयं की अनुभूति को जागृत करने की सहज आन्तरिक प्रक्रिया ही अध्यात्मविद्या है, जिसके लिए कहा गया है कि " अध्यात्मविद्या विद्यानाम् ।" अर्थात् सब विद्याओं में अध्यात्मविद्या ही एकमात्र श्रेष्ठ
विद्या है।
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
आनन्द का अक्षय स्रोत
चेतना के स्वरूपबोध की दिशा में साधक ज्यों ही कुछ आगे बढ़ता है, तो उसके जीवन के विविध व्यवहारों में से सहज अनुभूति की, प्रत्यक्ष अनुभव की एक निर्मल धारा प्रवाहित होने लगती है । यह साधक की वैयक्तिक अनुभूति की धारा भ्रम नहीं है, कोई व्यामोह नहीं है । इसमें सन्देह जैसी कोई स्थिति नहीं है । यह कहना कि साधक की अपनी वैयक्तिक अनुभूतियाँ सही नहीं होती हैं, एक मिथ्याप्रवाद है । ज्योति बाहर से अन्दर में नहीं डाली जाती, वह तो हर साधक के अपने अन्दर से प्रज्वलित होती है । हर चैतन्य में अनुभूति की धारा अन्तःसलिला सरस्वती की भाँति अनादि काल से प्रवाहित है । अध्यात्म साधना उसे परोक्ष से प्रत्यक्ष में लाती है, अशुद्ध से शुद्ध बनाती है और उसे सहज आनन्द की ओर उन्मुख करती है ।
धर्म, दर्शन और अध्यात्म
धर्म, दर्शन और अध्यात्म का प्रायः समान अर्थ में प्रयोग किया जाता है, किन्तु गहराई से विचार करें तो इन तीनों का मूल अर्थ भिन्न है । अर्थ ही नहीं, क्षेत्र भी भिन्न है।
धर्म का सम्बन्ध आचार से है - " आचारः प्रथमोधर्म ।" यह ठीक है कि बहुत पहले धर्म का सम्बन्ध अन्दर और बाहर दोनों प्रकार के आचारों से था और इस प्रकार अध्यात्म भी धर्म का ही एक आन्तरिक रूप माना जाता था। इसीलिए प्राचीन जैन ग्रन्थों में धर्म के दो रूप बताए गए हैं, निश्चय और व्यवहार । निश्चय अन्दर में स्व की शुद्धानुभूति एवं शुद्धोपलब्धि है, जबकि व्यवहार बाह्य क्रियाकाण्ड है, बाह्याचार का विधि-निषेध है । निश्चय त्रिकालाबाधित सत्य है । वह देश-काल की बदलती हुई परिस्थितियों से भिन्न होता है, शाश्वत एवं सार्वत्रिक होता है । व्यवहार, चूँकि बाह्य आचार विचार पर आधारित है, अतः वह देशकाल के अनुसार बदलता रहता है, शाश्वत एवं सार्वत्रिक नहीं होता ।
दिनांक तो नहीं बताया जा सकता, परन्तु काफी समय से धर्म अपनी अन्तर्मुख स्थिति से दूर हटकर बहिर्मुख स्थिति में आ गया है । आज धर्म का
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वज्योति महावीर अर्थ विभिन्न संप्रदायों का बाह्याचार सम्बन्धी विधि-निषेध ही रह गया है । धर्म की व्याख्या करते समय प्रायः हर मत और पंथ के लोग अपने परंपरागत विधिनिषेध-सम्बन्धी क्रियाकाण्डों को ही उपस्थित करते हैं और उन्हीं के आधार पर अपना श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करते हैं । इसका यह अर्थ है कि धर्म अपने व्यापक अर्थ को खोकर केवल एक क्षरणशील संकुचित अर्थ में आबद्ध हो गया है । अतः आज के मनीषी धर्म से अभिप्राय -मत पंथों के अमुक बँधेबँधाये आचार विचार लेते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं ।
दर्शन का अर्थ तत्त्वों की मीमांसा एवं विवेचना है । दर्शन का क्षेत्र है - सत्य का परीक्षण | जीव और जगत् एक गूढ पहेली है, इस पहेली को सुलझाना ही दर्शन का कार्य है । दर्शन प्रकृति और पुरुष, लोक और परलोक, आत्मा
और परमात्मा, दृष्ट और अदृष्ट, · मैं :: यह और · वह आदि रहस्यों का उद्घाटन करने वाला है । वह सत्य और तथ्य का सही मूल्यांकन करता है । दर्शन वह दिव्य-चक्षु है, जो इधर उधर की नई पुरानी मान्यताओं के सघन
आवरणों को भेदकर सत्य के मूलरूप का साक्षात्कार कराता है । दर्शन के बिना धर्म अन्धा है । अन्धा गन्तव्य पर पहुंचे तो कैसे पहुँचे ? पथ के टेढ़े-मेढ़े घुमाव, गहरे गर्त और आस-पास के खतरनाक झाड़-झंखाड़ बीच में कहीं भी अन्धे यात्री को निगल सकते हैं।
अध्यात्म, जो बहुत प्राचीन काल में धर्म का ही एक आन्तरिक अंग था, जीवनविशुद्धि का सर्वाङ्गीण रूप है । अध्यात्म मानव की अनुभूति के मूल आधार को खोजता है, उसका परिशोधन एवं परिष्कार करता है । स्व. जो कि स्वयं से विस्मृत है, अध्यात्म इस विस्मरण को तोड़ता है । स्व. जो स्वयं ही अपने स्व के अज्ञानतमस का शरणस्थल बन गया है, अध्यात्म इस अन्धतमस् को ध्वस्त करता है, स्वरूप स्मृति की दिव्यज्योति जलाता है । अध्यात्म अन्दर में सोये हुए ईश्वरत्व को जगाता है, उसे प्रकाश में लाता है । राग, द्वेष, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह के आवरणों की गंदी परतों को हटाकर साधक को उसके अपने शुद्ध स्व तक पहुंचाता है, उसे अपना अन्तर्दर्शन
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
आनन्द का अक्षय स्रोत
कराता है । अध्यात्म का आरम्भ स्व को जानने और पाने की बहुत गहरी जिज्ञासा से होता है, और अन्ततः स्व के पूर्ण बोध में, 'स्व की पूर्ण उपलब्धि में इसकी परिसमाप्ति है।
अध्यात्म किसी विशिष्ट पंथ या संप्रदाय की मान्यताओं में विवेकशून्य अंधविश्वास और उनका अन्धअनुसरण नहीं है । दो-चार पाँच परंपरागत नीति नियमों का पालन अध्यात्म नहीं है, क्योंकि यह अमुक क्रियाकाण्डों की, अमुक विधिनिषेधों की कोई प्रदर्शनी नहीं है और न यह कोई देश, धर्म और समाज की देश-कालानुसार बदलती रहने वाली व्यवस्था का कोई रूप है । यह एक आन्तरिक प्रयोग है, जो जीवन को सच्चे एवं अविनाशी सहज आनन्द से भर देता है । यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो जीवनको शुभाशुभ के बन्धनों से मुक्त कर देती है, स्व की शक्ति को विघटित होने से बचाती है । अध्यात्म जीवन की अशुभ शक्तियों को शुद्ध स्थिति में रूपान्तरित करने वाला अमोघ रसायन है, अतः यह अन्तर की प्रसुप्त विशुद्ध शक्तियों को प्रबुद्ध करने का एक सफल आयाम है । अध्यात्म का उद्देश्य औचित्य की स्थापना मात्र नहीं है, प्रत्युत शाश्वत एवं शुद्ध जीवन के अनन्त सत्य को प्रकट करना है । अध्यात्म कोरा स्वप्निल आदर्श नहीं है । यह तो जीवन का वह जीता जागता यथार्थ है, जो स्व को स्व' पर केन्द्रित करने का, निज को निज में समाहित करने का पथ प्रशस्त करता है ।
.
.
.
7
-
अध्यात्म को धर्म से अलग स्थिति इसलिए दी गई है कि आज का धर्म कोरा व्यवहार बन कर रह गया है, बाह्याचार के जंगल में भटक गया है, जबकि अध्यात्म अब भी अपने निश्चय के अर्थ पर समारूढ़ है । व्यवहार बहिर्मुख होता है और निश्चय अन्तर्मुख । अन्तर्मुख अर्थात् स्वाभिमुख । अध्यात्म का सर्वेसर्वा स्व है चैतन्य है । परम चैतन्य के शुद्ध स्वरूप की ज्ञप्ति और प्राप्ति ही अध्यात्म का मूल उद्देश्य है । अतएव अध्यात्म जीवन की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भावात्मक स्थिति है, निषेधात्मक नहीं । परिभाषा की संक्षिप्त भाषा में कहा जाए तो अध्यात्म जीवन के स्थायी मूल्य की ओर दिशासूचन करने
1
I
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वज्योति महावीर
वाला एक वह आयाम है, जो किसी वर्ग, वर्ण, जाति और देश की भेदवृत्ति के बिना एक अखण्ड एवं अविभाज्य सत्य पर प्रतिष्ठित है । वस्तुतः अध्यात्म मानवमात्र की अन्तश्चित् शक्ति के महासत्य का अनुसन्धान करने वाला वह मुक्त द्वार है, जो सब के लिए सदा और सर्वत्र खुला है। अपेक्षा है - मुक्त भाव से प्रवेश करने की ।
8
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधना
के
अग्निपथ पर |
तीर्थंकर महावीर
1
भूमिका कुछ लम्बी हो गई, पर कोई बात नहीं । जो अभी कथ्य क्षेत्र में है, उसकी पृष्ठभूमि के लिए इतना कुछ आवश्यक भी था । अध्यात्म साधना के क्षेत्र में अनेकानेक साधक हो गए हैं, जिनकी जीवन गाथाएँ आज भी साधकों के लिए प्राणवान् सन्देश का उद्घोष कर रही हैं । हमारे वे महान् साधक क्या थे, वे किस पथ पर आगे बढ़े, उनकी यात्रा कैसी और क्या रही, आखिर उन्होंने कब, कैसे, क्या पाया ? उक्त सब प्रश्नों का समाधान उन प्राचीन जीवनगाथाओं से सहज ही मिल सकता है । यह ठीक है, कि वे पुरानी जीवनगाथाएँ काल की बदलती हुई धूलभरी हवाओं से काफी धुँधली हो गई हैं, उन पर श्रद्धा-भक्ति के नाम पर इधर-उधर के अन्धविश्वासों की बहुत अधिक धूल जम चुकी है, कुछ तो अपना मूल अर्थ ही खो बैठी हैं । परन्तु सत्यदृष्टि का साधक यदि अपने शुद्ध विवेक से कुछ भी काम ले, शब्दों के अन्दर छिपे हुए मूल भाव को ग्रहण करने का प्रयत्न करे और साम्प्रदायिक मान्यताओं के अभिनिवेश से मुक्त होकर शुद्ध सत्य का दर्शन करना चाहे तो आज भी दिव्य जीवन के निर्माण के लिए उन जीवनगाथाओं से महत्त्वपूर्ण दिशाबोध मिल सकता है ।
I
दो
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वज्योति महावीर
महाश्रमण तीर्थकर महावीर अपने युग के एक ऐसे ही अध्यात्मवादी साधक थे । शुद्ध सत्य की खोज में उन्होंने प्राप्त भोग-विलासों को ठुकरा कर साधना का वह अमरपथ अपनाया, जो हजारों-हजार, लाखों-लाख साधकों के लिए एक दिव्यज्योति बन गया । आइए, उस महान् साधक के चरणचिन्हों को दृष्टिगत कर साधना पथ का रहस्य उद्घाटित करें ।
वैशाली का राजकुमार : वर्धमान
आज से लगभग २५ सौ से कुछ अधिक वर्ष पहले की बात है ।' भारत के पूर्वाञ्चल में वैशाली का गणराज्य तत्कालीन संपूर्ण भारत में अपने ऐश्वर्य के शिखर पर था । इसी वैशाली गणराज्य के सुखी एवं समृद्ध नागरिकों के लिए एक बार बुद्ध ने कहा था " देवताओं को देखना हो तो वैशाली के नागरिकों को देख सकते हो । वस्तुतः वैशाली गणराज्य में उस समय धरती पर स्वर्ग ही उतर आया था । वैशाली गणराज्य के महाराजा, आज की भाषा में राष्ट्रपति, चेटक थे, जो आचार्य जिनदास महत्तर के लेखानुसार महावीर के सगे मामा थे । २
10
वैशाली का एक प्रमुख उपनगर क्षत्रियकुण्ड था, जहाँ ज्ञातृ-गणराज्य के तत्कालीन राजा सिद्धार्थ क्षत्रिय शासन करते थे । इनकी प्रिय पत्नी त्रिशला क्षत्रियाणी थी । महावीर इनकी तीसरी संतान थे । महावीर का पारिवारिक नाम वर्धमान था । वीर, महावीर और सन्मति आदि नाम बाद में कर्मानुसार सर्व साधारण में प्रचलित हो गए । नन्दीवर्द्धन महावीर के बड़े भाई थे, और सुदर्शना बड़ी बहन । महावीर का विवाह राजकुमारी यशोदा से हुआ था । प्रियदर्शना महावीर की इकलौती सन्तान थी, यथानाम तथागुण । श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा के चरित्रभेद से ऊपर के परिचय में कुछ हेरफेर भी हो जाता है । खासकर दिगम्बर संप्रदाय को महावीर का विवाह होना स्वीकृत नहीं है । वास्तव में ये उलट-फेर कुछ खास बात नहीं है । हम यहाँ महावीर की
१. इ. पू. ५२७
२. दिगम्बर आचार्य गुणभद्र आदिने चेटक को महावीर का नाना माना है ।
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधना के अग्निपथ पर
11
जीवनगाथा का ऐतिहासिक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं । हमारा विवेच्य है महावीर की साधना का अध्यात्मपक्ष । यह सब वर्णन तो मात्र पृष्ठभूमि के रूप में सर्व साधारण की एक सामान्य जानकारी के लिए किया जा रहा है ।
महावीर के जीवन के प्रथम तीस वर्ष ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि के नन्दन कानन में गुजरे । जीवन यात्रा के पथ में कदम-कदम पर पुष्प बिछे थे, काँटों का कहीं नामोनिशान नहीं था । परिजन, पुरजन एवं अन्य स्नेही जनों के निर्मल स्नेह का छलकता प्रवाह था, जिसका दूसरा उदाहरण मिलना मुश्किल है । एक राजकुमार का बचपन से लेकर यौवन के प्रांगण तक खिलते-महकते कमलपुष्प के समान कितना सुन्दर, सुखद एवं उल्लासमय जीवन हो सकता है, हर कोई व्यक्ति इसकी सहज ही कल्पना कर सकता है।
साहसी वर्धमान पुराने कथाग्रन्थों में महावीर के बाल्य काल की कुछ घटनाओं का उल्लेख मिलता है, जिनसे पता चलता है कि वे बचपन से ही बड़े साहसी एवं निर्भीक थे । भय, आशंका, दब्बूपन उन्हें छू तक नहीं गए थे । वे राजमहल के सुख सुविधा से भरे पूरे स्वर्णकक्षों में बद्ध नहीं रहते थे । मुक्त मन से इधरउधर घूमना, खेलना और यथा-प्रसंग अनेकविध क्रीड़ाओं का आयोजन करना, . उन्हें पसंद था । अपने स्नेही संगी साथियों के साथ, जिनमें आस-पास के सभी छोटे-बड़े परिवारों के हमउम्र बालक होते, नगर से बाहर दूर वनों में घूमने चले जाते और खेलते रहते । एक बार उद्यान में कहीं खेलते हुए उन्होंने एक भीषण फुकार मारते काले नाग को क्रीडाक्षेत्र से उठाकर दूर फेंक दिया था, जबकि साथ के अन्य बालक भय से चीखने-चिल्लाने लगे थे, उनमें बुरी तरह से भगदड़ मच गई थी । किन्तु वर्धमान तो बिल्कुल निर्भय थे ।
एकबार ऐसे ही वन में खेलते समय एक देव ने बड़ा भयंकर रूप धारण कर महावीर को डराना चाहा, साथ के साथी डरे भी । किन्तु महावीर महावीर थे, वे डरते कैसे ? उन्होंने अपने अभय से, साहस से उस दानवाकृति देव को
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
12
विश्वज्योति महावीर परास्त कर दिया । इस प्रकार महावीर की साहस गाथाएँ पुराने चरित्र ग्रन्थों में जो अंकित हैं, वे युगान्तर तक अभय, साहस एवं शौर्य की प्रेरणास्त्रोत रही हैं और रहेंगी।
शिक्षा-दीक्षा
शिक्षण के लिए उन्हें तत्कालीन एक प्रसिद्ध गुरुकुल में प्रविष्ट किया गया, परन्तु वहाँ का वातावरण उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर सका । महावीर की जिज्ञासा कुछ और थी, जिसका वहाँ कोई समाधान नहीं था । बाहर से थोपी गई शिक्षा-दीक्षा में उन्हें रुचि नहीं थी । जो स्वयं प्रकाश होता है, उसे बाहर के अन्य प्रकाश की क्या अपेक्षा ? वे तो विकास के हर क्षेत्र में अन्दर से स्वयं अंकुरित होने वाले शक्तिबीज थे । कथाकार कहते हैं कि उन्होंने बचपन में ही देवराज इन्द्र की जटिल शंकाओं का तर्कसंगत समाधान किया था । कुछ भी हो, इसका इतना अर्थ तो अवश्य है कि महावीर जन्मजात प्रतिभा के धनी थे । उनके मन-मस्तिष्क सचेतन थे । वे हर किसी उलझे हुए प्रश्न पर अपनी ओर से उचित समाधान प्रस्तुत कर सकते थे ।
बचपन और किशोर अवस्था के बाद उनका जीवन किन राहों से गुजरा, इस सम्बन्ध में कोई विशिष्ट उल्लेख कथासाहित्य में अंकित नहीं है । श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य उनके विवाह की बात करते हैं, और एक पुत्री होने की भी । अपने राष्ट्र की विकासयोजनाओं में उन्होंने क्या किया, सर्वसाधारण जनता के अभावों एवं दुःखों को दूर करने की दिशा में उन्होंने अपना क्या पराक्रम दिखाया, राष्ट्र की सीमाओं पर इधर-उधर से होने वाले आक्रमणों के प्रतीकार में उनका क्या महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, ऐसे कुछ प्रश्न है, जिनका महावीर के जीवन के साथ घनिष्ट सम्बन्ध जुड़ा है, किन्तु महावीर के लिखित जीवन चरित्रों में इन का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिलता, यद्यपि एक प्रबुद्ध, साहसी, तेजस्वी एवं दयाशील राजकुमार के जीवन में प्रायः ऐसा घटित हुआ करता है। हम यह नहीं मान सकते कि महावीर के जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ हो,
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधना के अग्निपथ पर
13
I
महावीर सहजतया प्राप्त अपने वैयक्तिक सुखोपभोगों की धारा में ही बह गए हों और लोकमंगल जैसा कुछ भी न कर पाये हों । प्राचीन कथाकारों की, खासकर श्रमण कथाकारों की रुचि कुछ भिन्न रही है । वे प्रथम सांसारिक सुख समृद्धि की, तत्पश्चात् तप-त्याग की और कुछ इधर-उधर के दैवी चमत्कारों की बातों को ही अधिक महात्त्व देते हैं, उन्हीं की लम्बी चौड़ी कहानियाँ लिखते है, भले ही वे विश्वास की सीमा से कुछ दूर क्यों न चली जाएँ । उनकी दृष्टि थी कि महावीर राजकुमार थे, अतः उन्होंने अपने देश और समाज के लिए ऐसा जो कुछ भी किया, यह उनका अपना कर्त्तव्य था उसका भला क्या लिखना, क्या जिक्र ! हाँ, तो तीस वर्ष तक के इतने दीर्घ समय तक, तरुणाई के उद्दीप्त दिनों में, उस महान् साधक ने क्या किया, हमारे लिए अभी कुछ कहना कठिन है । किन्तु जीवन के पूर्ण मध्याह्न में, सुख-सुविधा एवं ऐश्वर्य से उच्छल मदमाती तरुणाई में गृहत्याग, हर किसी प्रबुद्ध विचारक को महावीर की तत्कालीन मानसिक स्थिति की एक परिकल्पना अवश्य दे देता है, जिससे आँख बचाकर यों ही बगल काटते हम आगे चल नहीं सकते हैं । एक तरूण को जो कुछ चाहिए, वह सब उपलब्ध है, स्वर्ण सिंहासन है, राजप्रासाद है, सुन्दर स्नेहशील पत्नी है । अपने प्राणों से भी कहीं अधिक प्यार करने वाले बन्धु हैं, ऐश्वर्य है, सुख है, जयजयकार है, और है पूर्ण स्वस्थ तथा सशक्त तन और मन ! फिर क्या बात है, जो भरी तरुणाई में वह सब कुछ छोड़कर चल पड़ता है, अकेला ही, भयाकुल सूने वनों की ओर, गहन गिरिगुहाओं एवं गगन भेदते गिरि शिखरों की ओर !
गृहत्याग की प्रेरणा !
मानव के व्यक्तिगत जीवन में, आस-पास के लोक जीवन में तन की व्याधि, मन की आधि, जन्म, जरा, मरण, आकस्मिक दुःख और संघर्ष इतने प्रबल तथ्य हैं कि कोई भी जागृत मास्तिष्क इन सब बातों पर कुछ सोचे बिना रह नहीं सकता । अनेक बार इनसे मुक्ति पाने के लिए सरल मार्ग खोज लिए जाते हैं, प्रतीकार के मन चाहे साधन जुटा लिए जाते हैं, और कुछ क्षणों के लिए मानव इस भूलभुलैया में अपने को भुला भी देता है, किन्तु ये सब प्रयत्न और प्राप्य कितने
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
14
विश्वज्योति महावीर थोथे हैं, कितने उथले हुए हैं, यह हर कोई प्रबुद्ध मनीषी समझ सकता है । कुछ क्षणों के भौतिक विश्राम तात्कालिक दुःखों से मुक्ति के वास्तविक साधन कुछ और ही हैं।
जीवन महत्त्वपूर्ण है । उसका कोई विशिष्ट प्रयोजन है । यह यों ही बेबस जन्म-जरा-मरण के, आधि-व्याधि के दुःखों और कष्टों में नष्ट होने के लिए नहीं है और न भोग-वासना की दुर्घन्धभरी अंधेरी गलियों में भटकने के लिए ही है । उसका कोई महान् उद्देश्य है । उसकी सम्प्राप्ति के बिना जीवन अर्थहीन है । विकृतियों के कीड़ों-से कुलबुलाताजीवन भी क्या जीवन ? जीवन की निर्विकार पवित्रता एवं अनन्त सत्य की उपलब्धि ही जीवन का महान् उद्देश्य है, एक मात्र लक्ष्य है । उसकी पूर्ति का मार्गखोजना प्रबुद्धचेतनाशील साधक के लिए अनिवार्य है । महावीर के अन्तर्मन में उसी की तीव्र अभीप्सा थी । महावीर के अन्तर्मन में उसे प्राप्त करने के लिए सब कुछ स्वाहा कर देने की तत्परता मचल रही थी। महावीर को लग रहा था, जो जीवन में स्थायी एवं निर्विकार आनन्द नहीं दे सकते, उन साधनों के साथ आँख बन्द कर भागते रहने का आखिर क्या अर्थ है? जिनके बहुत गहरे अन्दर में परम सत्य एवं परम आनन्द को प्राप्त करने की तीव्रतम अभीप्सा जागृत हो जाती है, उन्हें ऊपरी सुख-सुविधाएँ सन्तुष्ट भी तो नहीं कर सकती । परिवार के रागात्मक हाव-भाव, आर्थिक समृद्धि एवं भोगविलास के मुक्तसाधनजीवन का अन्तरंग समाधान देने में समर्थनहीं हैं । लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में यदि किसी जीवन की गति नहीं है तो वह जीवन एक भटका हुआ आवारा जीवन है । लक्ष्यहीनता के कारण जीव खण्ड-खण्ड-में विभक्त हो जाता है । निरुद्देश्यता, अन्ततोगत्वा निरर्थकता को, भटकाव को जन्म देती है। महावीर के चिन्तन में यह स्थिति स्पष्ट थी।
__ स्व की उपलब्धि और स्वनिष्ठ आनंद की खोज ही महावीर के चिन्तन का उद्देश्य था । यही एक प्रेरणा थी जो उन्हें अपना चलता आया जीवन-पथ बदलने के लिए विवश कर रही थी । यह प्रेरणा उन्हें किसी दूसरे से, तथाकथित किसी धर्मोपदेशक से नहीं मिली । उन्हें किसी ने प्रेरित एवं निर्देशित नहीं किया। यह प्रेरणा उनके स्वयं के अन्दर की गहराई से उद्भूत थी । महावीर की यह
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधना के अग्निपथ पर
15
सहज अन्तःप्रेरणा ही भविष्य की उनकी समस्त उपलब्धियों का मूलाधार है ।
गृहत्याग का कारण जीवन के प्रति उनकी उदासीनता नहीं थी, जैसा कि प्रायः कुछ साधकों में हो जाया करती है । न परिवार के प्रश्नों को लेकर कोई उद्विग्नता थी, और न अन्य कोई सामाजिक असन्तोष ही । किसी व्यक्तिगत दुःख या कुंठा के कारण घर छोड़ा हो, ऐसा भी कुछ नहीं है । वे मन से लेकर तन तक, परिवार से लेकर राज्य तक खूब प्रसन्न थे, चिन्ताओं से मुक्त थे । उनके समक्ष ऐसी कभी कोई स्थिति नहीं आई कि उन्होंने कुछ चाहा हो, और वह उन्हें न मिला हो । मूल बात यह थी कि अन्दर बाहर सुख-समृद्धि के नाम पर सब कुछ था ! फिर भी भीतर में एक रिक्तता थी । यह रिक्तता भौतिक नहीं, आध्यात्मिक थी । बाहर में चुंधिया देनेवाला प्रकाश होने पर भी, अन्दर में कहीं अन्धकार छिपा था ! और कोई समस्या नहीं थी, समस्या थी केवल एक, और वह यह कि आनन्द का भीतरी स्त्रोत अवरुद्ध था । और, इस सहज आनन्द के अभाव में सब कुछ होने पर भी, कुछ भी नहीं था । यह उनका अपना एक व्यक्तिगत प्रश्न ही नहीं था, वरन प्रश्न था समूचे जनजीवन का ।
चैतन्य-स्वरूपतः एक अखण्ड है । अतः जो एक के लिए है, वह सबके लिए है और जो सब के लिए है वह एक के लिए है । व्यष्टि के विकास के साथ समष्टि के विकास में योगदान ही तीर्थंकरत्व की अभिसिद्धि है । महावीर में ऐसे ही स्व-पर कल्याणकारी तीर्थंकरत्व की ज्योति प्रदीप्त होने को थी । अतः निश्चित ही स्व-पर में अवरुद्ध हुए इसी आनन्द स्त्रोत को मुक्त करने के लिए महावीर ने गृहत्याग किया । महावीर के गृहत्याग का यही एक हेतु था-स्व-पर के अनन्त चैतन्यको जगाने का, अनन्त आनन्द के स्त्रोत को मुक्तद्वार करने का । इसीभाव को आध्यात्मिक भाषा में यदि और अधिक स्पष्टता से कहा जाए तो कह सकते हैं - उक्त हेतुओं की छाया में महावीर का गृहत्याग हो गया । करने और होने में अन्तर है । होने में सहजता है, अनाग्रहता है और करने में कुछ न कुछ आग्रह की, हठ की ध्वनि है । महान् साधकों का साधनाक्रम सहज होता है और होता है निर्द्वन्द्व ! इसलिए महावीर का गृहत्याग एक सहज ऊर्ध्वमुखी अन्तः प्रेरणा थी। अनन्त आनन्द की रसधार से जन जीवन को आप्यायित करने की एक तीव्र
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
16
विश्वज्योति महावीर संवेदना ही उनके मुनि जीवन का मुख्य हेतुथा ।
एक प्रश्न - एक प्रश्न शेष है -अनन्त चैतन्य के जागरण के लिए, अनन्त आनंद की उपलब्धि के लिए गृहत्याग क्यों किया जाए ? क्या यह जरूरी है कि साधक को स्वरूपोपलब्धि के लिए जंगलों में जाना ही चाहिए ? क्या घर में रहते हुए अध्यात्म साधना नहीं हो सकती ? आनन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती ? अन्दर के सुप्त चैतन्य को नहीं जगाया जा सकता ? भरत चक्रवर्ती जैसे तो बिना जंगल में गए ही अध्यात्म की सर्वोच्च सिद्धि पागए थे । महावीर ने ही साधना के लिए क्यों घर छोड़ा? इस सम्बन्ध में संक्षिप ही सही, किन्तु कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक है ।
अध्यात्म साधना का केन्द्र आत्मा है । इसका बाहर की हाँ-ना से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है । बाहर के अनुकूल-प्रतिकूल वातावरण, साधनों का भाव अथवा अभाव अपने में न साधक हैं, न बाधक । असली साधकता या बाधकता अन्दर की होती है । आज तक के प्रायःसभी अध्यात्म शास्त्री यही कहते आ रहे हैं - ज्ञान की किरण जब चमकने को होती है तो वह कहीं भी चमक जाती है । उसके लिए यहाँ का या वहाँ का ऐसा कोई बन्धन नहीं होता । एक भरत का ही उदाहरण क्यों, भारतीय वाङ्मय में ऐसे शताधिक उदाहरण मिल सकते हैं । किन्तु इसके विपरीत उदाहरणों की भी कमी नहीं है । अनेकानेक महान् साधकों ने एकान्त निस्तब्ध वातावरण में जाकर भी साधना की है । साधना की दृष्टि से घर की अपेक्षा बाहर का वातावरण अधिक उपयुक्त है । वहाँ अज्ञातता रहती है, अतः प्राप्त सुख-सुविधाओं से साधक मुक्त रहता है और जब इधर-उधर की प्रताड़ना एवं अवमानना होती है तो उसे अपनी समता को, सहनशीलता को, तितिक्षा को परखने का अवसर भी मिलता
सत्य एक नहीं है, दोनों ही सत्य हैं । हर एक साधक की अपनी अपनी स्थिति होती है, अन्दर की भूमिका भिन्न-भिन्न होती है । अतः इस सम्बन्ध में कोई एक नियत मार्ग नहीं है । कुछ साधकों के लिए निर्जन एकांत अच्छा होता
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
____ 17
साधना के अग्निपथ पर है । एकांत शांत प्रदेश में लक्ष्य केन्द्रित होना आसान है । अच्छे-बुरे वातारण का प्रभाव मन पर प्रायः पड़ता ही है । अतः सामान्य साधक सत्य की खोज में एकान्त का आश्रय लेते हैं । महावीर ने भी यही पथ अपनाया और उसमें वे सफल भी हुए । किन्तु, यह एकान्त वातावरण स्वरूपोपलब्धि की एकाग्रता का अनिवार्य अंग नहीं है । कभी-कभी असावधान साधक एकान्तता के आग्रह में भटक भी जाते हैं । और कभी-कभी घर में रह कर ही सब कुछ पाने का आग्रह रखने वाले साधक भी कुछ नहीं प्राप्त कर पाते । असली बात अपने मन की तैयारी की है । दोनों ही स्थितियाँ विभिन्न परिस्थितियों में एक ही सत्य को प्रकट करती है । यही कारण है कि इतिहास के पृष्ठों पर दोनों ही प्रकार के उदाहरण उपलब्ध हैं।
एक बात और है जो साधक के लिए विचारचर्चा का विषय बन जाती है, महावीर के सम्बन्ध में भी यह चर्चा उठती है । घर क्यों छोड़ा जाए ? परिवार के दायित्वों से अपने को अलग क्यों किया जाए ? यह प्रश्न है जो घर छोड़नेवाले साधकों को लेकर जब तब किया जाता रहा है । कुछ अधिक उद्धत व्यक्ति तो ऐसे साधकों को भगोड़ों की संज्ञा भी देने लगते हैं । किन्तु ऐसा सोचना या कहना क्या सही है ? क्या महावीर भी अपने प्राप्त दायित्वों से पिंड छुड़ाने वाले भगोड़े ही थे? क्या बुद्ध भी इसी कोटि के थे - गैर जिम्मेदार ? जवाबदेही से भाग खड़े होने वाले ? नहीं, ऐसी बात नहीं है । परिवार का, पति-पत्नी और बाल-बच्चों का दायित्व, अमुक सीमा तक एक महत्व रखता है । किन्तु कभी-कभी जीवन में वे महत्त्वपूर्ण प्रसंग भी आते हैं, जबकि दायित्वों की ये क्षुद्रसीमाएँ अपने आप टूट जाती है, क्या राष्ट्ररक्षा के लिए युद्ध के मोर्चे पर जूझ मरने वाला वीर युवक या अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध संघर्षरत प्राणों का बलिदानी तरुण भगोड़ा कहा जा सकता है ? परिवार का, प्राणप्रिया पत्नी
और अबोध बाल-बच्चों का मोह त्याग कर किसी और बड़े आदर्श के लिए संघर्ष का विकट पथ अपनाना, प्राप्त सुख-सुविधाओं को ठुकरा कर कठोर एवं लोमहर्षक आफतों को सहना, भगोड़ापन नहीं है, किन्तु वीरता है, बलिदानी भावना है ।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
18
विश्वज्योति महावीर इतिहास के पृष्ठों पर ऐसे गिने-चुने विरले ही वीर होते हैं, जो ऐसा बलिदान करते हैं । सत्य के शोधक महावीर ऐसे ही तेजस्वी.वीर पुरुष थे । तीस वर्ष की मदभरी जवानी में, जब किसी तरुण की आँख भाग्य से ही खुली मिल सकती है, ऐश्वर्य और रागरंग के स्वर्ण सिंहासन छोड़ देना कोई हँसी
खेल नहीं है। अन्दर के सत्य की आवाज जब किसी को कुछ करने के लिए पुकारने लगती है, तो ये पारिवारिक दायित्व आदि के छोटे-मोटे गणित कुछ -~काम नहीं करते हैं । इधर-उधर के राग से उभरे आँसू और तीखी आलोचनाओं
से जलते-भुनते वचन, सत्य के सच्चे शोधक को गन्तव्य से रोक नहीं पाते हैं. ऐसे अवसरों पर प्रायः पारिवारिक तथा सामाजिक दायित्वों की अवहेलना होती ही है, परम्परागत मर्यादाओं की दीवारें टूटती ही हैं । महावीर भी इसके अपवाद नहीं थे। उनके अन्तर में सत्य की वह ज्वाला जगी कि, उसमें उनके अपने वैयक्तिक सुखोपभोग एवं पारिवारिक मोह ममत्व सब जलकर भस्म हो गए और वे चल पड़े मस्ती से झूमते, सत्य का तराना गाते साधना के अग्निपथ पर ।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीन
दिव्य साधकजीवन
चला अकेला,
खुद ही गुरु, खुद ही चेला ! राजकुमार वर्धमान श्रमण हो जाते हैं, भिक्षु बन जाते हैं । प्रश्न है किसके उपदेश से और किसके पास ? उत्तर है - किसी का उपदेश नहीं, किसी के पास नहीं ! बस, अपना ही उपदेश और अपने ही पास । जैनदर्शन की भाषा में वे स्वयंसम्बुद्ध हैं, खुद-ब-खुद जागृत होने वाले । और वैदिकदर्शन की भाषा में स्वयंभू हैं, अपने आप अपने से होनेवाले । महावीर स्वयं अपने निर्माता हैं, स्वयं अपनी निर्मिति हैं, स्वयं अपने कर्ता हैं, स्वयं अपनी कृति हैं । स्वयं अपने शासक हैं, स्वयं अपने शासित हैं । साधना की भाषा में खुद ही अपने आज्ञादाता गुरु हैं और खुद ही आज्ञाकारी चेला हैं । उन्होंने किसी गुरु के पास दीक्षा नहीं ग्रहण की । जैन इतिहासकार कहते हैं - भगवान् महावीर का परिवार जैन परम्परा के तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ का अनुयायी था । महावीर सहज ही पार्श्वपरम्परा में दीक्षित हो सकते थे । प्रश्न है, क्यों नहीं हुए.? रहस्य इसका कुछ और भी हो सकता है । परन्तु जहां तक हम समझते हैं - महावीर पहले के किसी साम्प्रदायिक विचाराग्रह में प्रतिबद्ध होना नहीं चाहते थे। चूँकि उनकी दृष्टि में पूर्वपरम्पराओं की उपयोगिता देशकाल
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
20
विश्वज्योति महावीर की बदलती हवाओं में क्षीण हो चुकी थी । अतः व्यर्थ ही पहले उन्हें स्वीकृति देना, वचनबद्ध होना और फिर आगे चलकर यथाप्रसंग तोड़ना, उन्हें ठीक नहीं लगा । वे पहले से ही अपना पथ आप खोजने चले । कोई संगी साथी नहीं, अकेले ही।
अपने निर्माता
__पर्वत की कठोर चट्टानों को भेद कर बहनेवाले झरने को पहले का बना बनाया पथ कहाँ मिलता है ? झरना बहता जाता है और पथ बनता जाता है - पथ बनता जाता है और झरना बहता जाता है । पहले से बने पथ पर बहने वाली तो नहरें होती हैं, निर्झर या नदियाँ नहीं । महावीर भी ऐसे ही अपने साधनापथ के स्वयं निर्माता थे । आज की भाषा में वे लकीर के फकीर नहीं थे । वे आज्ञाप्रधानी साधक नहीं, परीक्षाप्रधानी साधक थे । उनका अन्तर विवेक जागृत था, अतः उन्होंने जब जो ठीक लगा, वह किया और जब जो ठीक न लगा, वह न किया । वे एक-दो बार के किए, या न किए के अन्धदास नहीं हो गए थे । साधना के सम्बन्ध में उनके परीक्षण चलते रहे और वे कभी कुछ पुराना छोड़ते, कभी कुछ नया अपनाते आगे बढ़ते रहे । स्वीकृत विधि निषेधों में उचित लगने पर उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ परिवर्तन किए । अधिक तो नहीं, पर, प्राचीन साहित्य में ऐसे कुछ प्रसंगों का प्रामाणिक उल्लेख मिलता है । प्रारम्भ में कभी गृहस्थ के पात्र में भोजन कर लेते थे, किन्तु बाद में वे उसका परित्याग कर करपात्री बन जाते हैं । एक बार करुणाद्रवित होकर अपना वस्त्र एक याचक दीन ब्राह्मण को दे देते हैं । एक बार वर्षाकाल चौमास में ही (वर्षा के दिनों में) अन्यत्र विहार कर जाते हैं । ये कुछ बातें ऐसी हैं, जो परंपरागत आचारशास्त्र की दृष्टि से भिक्षु के लिए निषिद्ध हैं । फिर भी महावीर ने ऐसा किया ।
- कल्पातीत साधक
आज के कुछ तथाकथित आचारवादी शब्दशास्त्री महावीर के जीवन चरित्र में से उक्त अंशों को निकाल रहे हैं । उनका कहना है कि महावीर के ये
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिव्यसाधक जीवन
21
शासन
विधिनिषेध जैन आचारशास्त्र से मेल नहीं खाते । उग्र साधनापथ के अविचलयात्री भगवान् शास्त्रोक्त साधना के विरुद्ध आचरण करें, ऐसा कैसे हो सकता है ? इन शास्त्राग्रही लोगों को मालूम होना चाहिए, महावीर ने किसी संप्रदाय में, किसी गुरु से दीक्षा नहीं ली थी । वे किसी पुरागत तीर्थ में, I में दीक्षित नहीं हुए थे । उनके निर्णय किसी आचारशास्त्र के आधार पर नहीं, अपने सहज - स्फूर्त-विवेक के आधार पर होते थे । हम वर्तमान के शास्त्रों को, जिनका संकलन एवं निर्माण महावीर के बहुत उत्तर काल में हुआ, महावीरजैसे सुदूर अतीत के महापुरुषों के साथ जोड़ कर भूल करते हैं । महावीर की साधना किसी भी पूर्व विचार या शास्त्र आदि से प्रतिबद्ध नहीं थी । इसीलिए जैनसाहित्य उन्हें प्रारम्भ से ही, प्रव्रज्या ग्रहण के दिन से ही कल्पातीत मानता है । कल्पातीत का अर्थ है - कल्प से, विधिनिषेध की अमुक सीमाओं में बद्ध शास्त्रीय आचार से अतीत रहना, मुक्त रहना । महावीर की साधनाविधि को तथाकथित किसी भी शास्त्र से जोड़ा नहीं जा सकता । उनका साधनापथ न किसी संप्रदाय से बँधा था, न किसी गुरु से, और न किसी शास्त्र से । वह बँधा था उनके अपने अन्दर की स्वतन्त्र अनुभूति से । वे पहले के, किसी अन्य के खोजे हुए मार्ग पर नहीं चले, अपितु खुद मार्ग खोजते गए, चलते गए । जब कहीं संशोधन की जरुरत हुई तो संशोधन किया, बदलने की जरूरत हुई तो
बदला ।
महावीर की आचार साधना जड़ नहीं थी, सचेतन थी । सचेतन साधना गतिहीन नहीं होती है । साधना की सचेतनता ज्ञान पर आधारित है । इसी सन्दर्भ में एक सन्त ने कहा है- ज्ञान गुरु है, आचार शिष्य है । आचार को अनुभव सिद्ध ज्ञान के शासन में चलना होगा, कोरे शास्त्रीय जड़ शब्दों के शासन में नहीं । मुक्त चिन्तन ही सत्यान्वेषण का सच्चा साधन है, बद्ध चिन्तन नहीं । किसी ग्रन्थ-विशेष या गुरु विशेष को प्रमाण मानने वाला, उनके अनुसार चलने वाला प्राथमिक भूमिका का साधारण साधक हो सकता है, तीर्थंकर नहीं । महापुरुष किसी विशिष्ट विचार पथ के निर्माता या नेता होते हैं, सम्प्रदाय के रूप में चली आई किसी पूर्व विचारपरम्परा के अनुयायी नहीं ।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
22
विश्वज्योति महावीर अतीत के विचारों में से शाश्वत सत्य, जो सदा सर्वदा के लिए उपयोगी रहता है, ग्रहण किया जा सकता है, वह ग्रहण करना ही चाहिए ! किन्तु जो सामयिक सत्य तीव्रगति से अतीत की ओर बहते कालप्रवाह में पीछे रह गया है, वर्तमान एवं भविष्य के लिए अनुपयोगी हो गया है, उसे यों ही पल्ले बाँधे फिरना विवेकहीनता का द्योतक है । महावीर भविष्य के दिव्यत्व की ओर मुक्तगति से उड़ने वाले गरुड़ थे, वे अपने चिन्तन की पंखों को अतीत के किसी क्षुद्कालिक सत्य के निर्जीव लूंठ से नहीं बाँध सकते थे। वे उस तीर्थंकरत्व की ओर गतिशील थे, जो भविष्य का द्रष्टा एवं स्रष्टा होता है । अतः वे किसी पूर्व संप्रदाय के नाम पर, गुरु के नाम पर या शास्त्र को नाम पर अतीतजीवी कैसे हो सकते थे? उन्हें किसी के द्वारा दिया गया भिक्षा का बासी सत्य नहीं चाहिए था । उन्हें चाहिए था अपने निज के पुरुषार्थ से साक्षात्कृत ताजा सत्य। किसी को गुरु न बनाकर स्वयं स्वतन्त्र प्रव्रजित होने में, संभवतः यही रहस्य है।
अभय जीवन महावीर की साधना श्रमण साधना थी । स्वयं के श्रम से साध्य की उपलब्धि । भक्तियोग के नाम पर उपहार या भिक्षा में किसी से कुछ पाना, महावीर का जीवनदर्शन नहीं था । - महावीर के कदम सूनी और अनजानी राहों पर दृढ़ता से बढ़ चले । उनके हृदय में सत्य दर्शन के लिए एक तीव्र ज्वाला जल उठी थी, उसी के प्रकाश में महावीर लक्ष्य की ओर बढ़ते चले गए । सर्वथा भयमुक्त जीवन ! न स्वयं किसी से कभी डरे न किसी को कभी डराया । उनकी ध्यानयोग की साधना आत्मानन्द की साधना थी, भय से परे, प्रलोभन से परे, राग से परे, द्वेष से परे । कभी अनन्त नीलगगन के नीचे हिंस्रजन्तुओं से भरे निर्जन वनों में ध्यानस्थ खड़े होते, तो कभी मृत्यु की छाया से आक्रान्त श्मशान भूमि में । कभी गिरि-कन्दराओं में ध्यान लगाते, कभी भीमकाय पर्वतों के गगनचुम्बी ऊँचे शिखरों पर । कभी वीरान मरुभूमि में, तो कभी कलकलछलछल बहती नदियों के एकान्त तटों पर कायोत्सर्ग मुद्रा में दण्डायमान खड़े हो जाते और
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिव्यसाधक जीवन
महीनों ही खड़े रहते अचल, अडिग । न अन्न, न जल । शरीर में रहकर भी शरीर से अलग, शरीर की अनुभूति से अलग, जीवन की आशा और मरण के भय से विप्रमुक्त !' जैन साधना की भाषा में इसे कायोत्सर्ग कहते हैं । काय का उत्सर्ग, देह का विसर्जन ! अर्थात् अन्तर्लीनता की स्थिति में देहभाव की विस्मृति, देह में विदेह भाव, शरीर से सम्बन्धित मोह ममत्व का त्याग । स्व की शोध में लगा साधक स्व को ही स्मृति में रखता है, पर को नहीं ।
समत्वयोग की साधना
I
महावीर का साधनाकाल बड़ा ही विकट था । उस युग में जनमानस न जाने कैसा बन गया था ! विश्व हित की दिशा में सर्वस्व त्यागकर घर से निकले साधक को भी इतनी पीड़ा ! पीड़ा नहीं, उत्पीडन ही कहना चाहिए ! प्रकृति के कष्टों की बात नहीं है, वे तो थे ही, बात है तत्कालीन अबोध लोगों द्वारा दिये गये कष्टों की, दी गयी यातनाओं की । जैन भाषा में इन्हें उपसर्ग कहते हैं । इन उपसर्गों की इतनी रौद्र घटनाएँ हैं कि जिनके श्रवणमात्र से आज हजारों वर्ष बाद भी सहृदय श्रोता का तन काँप-काँप जाता है, मन सिहर - सिहर उठता है । किन्तु महावीर ऐसे थे कि जैसे एक प्रशांत महासागार, जिसमें कभी कोई तूफान उठता ही नहीं । मैत्रीभावना का सर्वोच्च आदर्श ! जिसे फूलों से ही नहीं, काँटों से भी प्यार ! सतानेवाले के प्रति भी एक सहज करुणा, कल्याण की कामना । अपनी पीड़ा और कष्ट के लिए मनुष्य अनादि काल से दूसरों की शिकायत करता चला आया है । परन्तु महावीर को अपने सतानेवालों से कोई शिकायत नहीं थी । उनका चिन्तन था जो पा रहा हूं, वह अपना ही किया पा रहा हूं | जो भोग रहा हूं, वह अपना ही किया भोग रहा हूं । दूसरों का कोई दोष नहीं, मूलतः दोष मेरा ही हैं। दूसरे किसी के सुख-दुख में निमित्त हो सकते हैं, कर्त्ता नहीं । कर्त्ता मनुष्य स्वयं ही होता है । और जो कर्त्ता होता है, वही भोक्ता भी तो होगा ही । कर्त्ता कोई, भोक्ता कोई - यह नहीं
I
१ जीवियासामरणभयविप्पमुक्के - भगवती सूत्र
23
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
24
विश्वज्योति महावीर हो सकता, कभी नहीं हो सकता । जो कृत है, उसे भोगे बिना मुक्ति नहीं है -
कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि । . महावीर के समत्वयोग का मूल कर्मसिद्धान्त है । महावीर का कर्म सिद्धान्त था - अच्छा बुरा जो है, वह अपना किया हुआ है, और अच्छा बुरा जो भी होगा वह अपना ही किया होगा । इस प्रकार महावीर का कर्मसिद्धान्त कर्तृत्व की समग्र सत्ता मनुष्य के हाथों में दे देता है । महावीर ने इस सिद्धान्त पर अपने को जब तब खूब परखा । इस सिद्धान्त में से ही उन्हें वीतरागता का पथ मिला।
___ उपर्युक्त चिन्तन भी उनकी प्रारम्भिक भूमिकाओं में ही रहा । आगे चलकर तो वे इन सब विकल्पों से भी परे होते गए । मेरे और तेरे का कोई विकल्प नहीं,करने और भोगने का भी कोई विचार नहीं । मन निर्विकल्प, एक निस्तरंग महासागर ! अन्तर्लीनता के क्षणों में ध्यानयोगी निर्वात कक्ष में प्रज्वलित दीपशिखा की भाँति स्थिर हो जाता है । उस समय न अशुभ की लहर उठती है न शुभ की । अध्यात्मभाषा में यह शुद्धोपयोग होता है । महावीर अशुभ से शुभ में और शुभ से भी शुद्ध में चले जा रहे थे । विकल्प से अविकल्प की ओर ! चिन्तन से अचिन्तन की ओर ! यह ठीक है कि यह शुद्ध की स्थिति निरन्तर नहीं चल रही थी । गति कभी इधर-उधर हो जाती थी, कदम कभी इधर-उधर पड़ जाते थे, परन्तु लक्ष्य सतत उसी शुद्ध स्थिति की ओर था, प्राप्य वही था ।
उपर्युक्त आध्यात्मिक शुद्ध स्थिति को, अनन्त आनन्दमय दिव्य जीवन को प्राप्त करने में महावीर को साढ़े बारह वर्ष लगे । साढ़े बारह वर्ष का दीर्घ साधनाकाल साधनोत्तर जीवन की तरह ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । कथासाहित्य में इस काल की कुछ घटनाओं का उल्लेख मिलता है, उनसे महावीर की साधना की स्थिति का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है कि महावीर क्या थे, क्या हो रहे थे, और कैसे हो रहे थे?
करुणा का देवता महावीर जब प्रव्रजित हुए थे तो उनके पास वस्त्र के नाम पर केवल प्रावरण-एक वस्त्र था और कुछ नहीं - न पात्र, न धर्मोपकरण और न अन्य
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिव्यसाधक जीवन
25
कोई वस्त्र । एकदिन एक याचक आया तो उस वस्त्र का भी आधा भाग उन्होने उसे दे दिया - चलो, आधा ही काम देता रहेगा । महावीर का करुणा से द्रवित संवेदनशील हृदय किसी दीन की भावना को कैसे ठुकरा सकता था ? वस्त्रदान से महावीर के मन में न तो अपनी कोई आवश्यकता - सम्बन्धी ग्लानि हुई
और न यही ग्लानि हुई कि संयमी भिक्षु को अपनी चीज किसी अन्य असंयमी गृहस्थ आदि को नहीं देनी चाहिए, किन्तु मैंने दे दी, क्यों दे दी ? वस्त्रखण्ड देते समय भी वे निर्विकल्प थे और बाद में भी । उनका चिन्तन सर्वात्मना स्वतन्त्र चिन्तन था। उनके निर्णय अन्तर की अनुभूति से होते थे, श्रुतिपरंपरा के शास्त्रीय विधिनिषेधों से नहीं । उनकी आवाज अन्तर की आवाज थी, जो सत्य के अधिक निकट होती थी । आगे चलकर वह आधा वस्त्र भी हवा के झोंके से उड़कर बगल के झाड़ में उलझ जाता है और वह अर्धवस्त्रग्राही याचक उसे भी उठा लेता है । महावीर ने इस पर कुछ कहा नहीं, वस्त्र माँगा नहीं । माँगना तो दरकिनार, फिर वस्त्र चाहा ही नहीं । तब से अचेल हो गए, सर्वथा निर्वस्त्र अर्थात् नग्न । यह साधना की निःस्पृहता का, अनासक्ति का वह दिव्य रूप है, जो भविष्य के लिए उदाहरण बन गया । सच्चा साधक हाँ और ना के फेर में नहीं पड़ता । है तब भी खुशी । नहीं है, तब भी खुशी । इसका या उसका बन्धन क्या ? मिला, तब ठीक । न मिला, तब भी ठीक । पास में कुछ रहा, तब ठीक पास में कुछ न रहा, तब भी ठीक ।
विष अमृत बन गया महावीर साधनापथ पर अकेले चल रहे थे । कोई संगी-साथी नहीं । एकाकीपन और वह भी अनजानी सूनी राहों पर ! बड़े-से-बड़े साहसी के साहस को भी तोड़ देता है ऐसा एकाकीपन ! मानव के लिए तो सचमुच ही एकान्त और एकाकीपन कारावास से भी कहीं अधिक घुटन की स्थिति रखता है । किन्तु महावीर असाधारण थे । उन्हें यह एकान्त निर्जनता या अकेलापन कभी भी खलता नहीं था, अपितु वे उस स्थिति में निर्द्वन्द्वता की एक विलक्षण आनन्दानुभूति करते थे।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
. 26
विश्वज्योति महावीर एक बार की बात है कि महावीर ऐसे ही एकाकी किसी उजड़े वीरान प्रदेश की ओर मंद मंथर गति से चले जा रहे थे । लोगों ने उन्हें देखा तो रोकाइधर कहाँ जा रहे हैं ? मालूम होता है, तुम्हें इधर का कुछ पता नहीं है । दूर कहीं से आये हो । इधर आगे उजडे प्रदेश में बड़ा ही भयंकर विषधर नाग रहता है । भूल से यदि कोई चला जाता है तो खैर नहीं। कोई उससे बच नहीं सकता | वह दृष्टिविष सर्प है । काटना तो दूर ? बस, उसने क्रुद्ध दृष्टि से जर। देखा नहीं, कि क्षण भर में मृत्यु !
लोग रोकते रहे, किन्तु महावीर रुके नहीं, आगे बढ़ते ही गए । उक्त घटना प्रसंगों पर मनुष्य रुकता है, लौटता है - भय से . और भय उन्हें छू भी नहीं पाया था । और तो क्या, मृत्यु का भय भी उन्हें विचलित नहीं कर सकता था । प्रश्न है, ऐसा क्यों हुआ ? क्या वे अपनी अहिंसा और करुणा का, अपने अभय और प्रेम का परीक्षण करना चाहते थे ? क्या इस प्रकार जानबूझ कर मृत्यु के द्वार पर खड़े होकर वे अपने प्राणिमात्र के प्रति मैत्री के दिव्य सिद्धान्त का विषधर पर प्रयोग करना चाहते थे? क्या रागद्वेष आदि की अपनी आन्तरिक वृत्तियों का विश्लेषण करना चाहते थे कि वे क्या हैं, कैसी हैं, किस स्थिति में हैं ? दब गई या क्षीण ही हो गई हैं ? उभरती हैं या नहीं उभरती हैं ? विकार के हेतु होने पर भी विकार न आए, यही तो साधना की सफलता है । आग से दूर रहकर न जला तो क्या चमत्कार हुआ? चमत्कार तो तब है, जब दावानल में छलांग लगा दे, किन्तु जलन का अनुभव तक न हो । निश्चित रूप से यही कुछ रहा होगा, महावीर के अन्तर्मन में ।
हाँ, तो महावीर चण्डकौशिक सर्प के बिल पर जाकर खड़े हो गए । किसी अहं या हठ से नहीं ! मैत्री और करुणा की धारा उनके अन्तर में बह रही थी । वे देख लेना चाहते के कि धारा का वेग कैसा है, कितना है ? सर्प बिल से बाहर आया । भीषण फुकार ! चरणों में देश पर दंश ! सर्प तन और मन दोनों ही से विष उगल रहा था । और महावीर ? महावीर विष के बदले अमृत बरसा रहे थे । कोई वैर नहीं, कोई प्रतिशोध नहीं । पूर्ण अभयमुद्रा ! विशुद्ध मैत्री ! विशुद्ध करुणा ! महावीर ने चण्डकौशिक को क्रोध न करने की हितशिक्षा दी ।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिव्यसाधक जीवन
निषेध की पत्थरमार भाषा में नहीं, सद्भाव की फूल - सी सुकोमल भाषा में । प्रेम और करूणा के देवता ने कहा- चण्डकौशिक ! समझो, अपने को समझो तुम क्या हो, क्या कर रहे हो ? तन का विष केवल दूसरों को ही मारता है किन्तु मन का विष अपने को ही मार देता है । विष का प्रतिकार विष नहीं, अमृत है । वैर का प्रतिकार वैर नहीं, प्रेम है ।
I
I
प्रश्न है, क्या पशु मनुष्य की भाषा समझ सकता है ? भले ही न समझता हो पशु मनुष्य की भाषा, किन्तु विश्वचेतना की एक ऐसी समान अनुभूति की दिव्य भाषा है, जिसके केन्द्र पर सभी कुछ अच्छी तरह समझा जा सकता है । चण्डकौशिक सर्प ने महावीर के स्नेहमधुर उपदेशमृत का वह. पान किया कि उसका विष उतर गया । तन का तो नहीं, मन का । महावीर की अनन्त अहिंसा ने विष को भी अमृत बना दिया । गर्त में पड़ा सागर सरिताओं के मधुर जल को खारा बनाता है, किन्तु गगनविहारी मेघ सागर के खारे जल को भी मधुर बनाकर भूतल पर बरसा देता है । महावीर ऐसे ही मेघ थे । बरसे तो सब ओर अमृत ही अमृत हो गया ।
I
27
अपना श्रम, अपनी श्री महावीर अपनी साधना का मूल्यांकन बड़ी कठोरता से कर रहे थे । एक तरह से हर क्षण अपने को तोलते रहते थे । वे जिस सिद्धि को पाना चाहते थे, उसकी साधना का अथ से इति तक का समग्र भार अपने ऊपर ही उठाए हुए थे । अपने लिए किसी दूसरे से सहायता की कामना जैसी स्थिति उन्हें ठीक नहीं लगती थी । उनका जीवन-दर्शन परनिर्भरता का नहीं, स्वनिर्भरता
का था ।
एक बार ऐसा हुआ कि महावीर एक गाँव के बाहर जंगल में ध्यानस्थ खड़े थे । तन और मन दोनों से मौन । भावधारा में अन्तर्लीन । इसी बीच गाँव का एक गोपालक अपने पशुओं को महावीर के पास चरते छोड़कर गाँव में किसी कार्यवश चला गया और जाते हुए महावीर से कह गया कि - जरा मेरे पशुओं को देखते रहना, कहीं इधर-उधर न हो जाएँ । महावीर गोपालक की आवाज क्या सुनते, वे तो अपने ही अन्दर की आवाज सुनने में लगे थे । एक साथ दो आवाजें कैसे सुनी जा सकती हैं ?
I
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वज्योति महावीर
काम से निपट कर गोपालक आया, किन्तु इधर पशु चरते-चरते कहीं दूर : निकल गए थे । गोपालक ने पूछा, पर महावीर मौन । पूछने पर उत्तर न मिले, तो साधारण मनुष्य का मन सहज ही अकल्पित की कल्पना करने लगता है । गोपालक ने सोचा- यह साधु नहीं, अवश्य ही साधुवेश में कोई चोर है । उसने आव देखा न ताव, महावीर को निर्दयता से मारने लगा । किन्तु महावीर चुप: 'और शान्त ! जैसे कुछ हो ही न रहा हो ! बोल सकते थे, समझा सकते थे । समाधनाकाल में वे अन्यत्र बोले भी हैं । किन्तु यहाँ क्यों नहीं बोले ? मालूम होता है - वे अपने अन्दर को परख रहे थे कि इस स्थिति में वे कितने और कहाँ तक शान्त रह सकते हैं ?
1
गोपालक का गालियां देना और मारना पीटना चालू था । उसकी जबान और हाथ काफी तेज होते जा रहे थे। इसी बीच देवराज इन्द्र आ जाते हैं। वह गोपालक को महावीर के सम्बन्ध में साझा देते हैं, और अन्त में चरणों में श्रद्धावनत होकर महावीर से प्रार्थना करते हैं भगवन् ! मैं यहीं आपकी सेवा में रहूंगा । अबोध लोग आपको व्यर्थ ही इतना भीषण कष्ट देते हैं । जिससे मेरा रोम-रोम काँप उठता हैं । मैं सेवा में रह कर अबोध लोगों को समझाता रहूंगा, ताकि आपको कुछ कष्ट न हो, आपकी साधना निर्विघ्न, चलती रहे। किन्तु महावीर इस पर क्या कहते हैं ? महावीर कहते है - देवराज ! यह नहीं हो सकता । साधना सविघ्न हो या निर्विघ्न, मेरे लिए इसका कुछ महत्त्व नहीं है। मुझे किसी की कोई सहायता नहीं चाहिए। मुझे जो पाना है, अपने श्रम से पाना है । साधक को परमपद अपने स्वयं के बल पर मिलता है, दूसरों के बल पर नहीं, किसी की सहायता के भरोसे पर नहीं ।" और महावीर की यह दिव्य ध्वनि तब से लगातार ध्यवित होती आ रही है स्ववीर्येणैव गच्छन्ति, जिनेन्द्राः परमं पदम् ।" महावीर की उक्त दिव्य ध्वनि का सार
"
28
हैं.
• अपना श्रम, अपनी श्री ।
-
"
-
भोक्ता नहीं, द्रष्टा क्रुद्ध
एक बार ऐसी ही एक और घटना घटित हो गई थी एक ग्वाले ने होकर महावीर के कानों में काठ की शलाका (कील) खोंस दी थी, इसलिए कि
"
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिव्यसाधक जीवन
29
" तुम मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देते ? क्या तुम सुनते नहीं ? ये कान हैं या कुछ और ?" कानों में कील ! कितनी उग्र पीड़ा हो सकती है ? सुनने भर से मन सिहर उठता है। परन्तु महावीर मौन ! वाणी से भी, मन से भी । उनके मानस सर में पीड़ा की एक बहुत बड़ी चट्टान टूट कर आ गिरी थी । दूसरा कोई होता, तो बहुत बड़ा धमाका होता, सब कुछ उथल-पुथल हो जाता । किन्तु महावीर के मन में कोई लहर नहीं । न प्रतिशोध की, न वैर की, न घृणा की और न अन्य किसी दुर्विकल्प की । तितिक्षा की चरम सीमा ! क्षमा की परम आभा ।
ऐसा नहीं कि उन्हें दुःखानुभूति न हुई हो, चेतना सर्वथा अनुभूतिशून्य हो गई हो! शरीर आखिर शरीर है, वह वज्र का भी हो, तब भी क्या ? शरीर में उठती हुई वेदना अनुभूति को स्पर्श करती ही है, किन्तु महावीर, वेदना का स्पर्श क्या, वेदना का प्राणप्रकंपक बहुत बड़ा धक्का खाकर भी विचलित नहीं हुए । इसलिए कि उन्होंने अनुभूति को बहुत जल्दी उचित मोड़ देने की एक अद्भुत कला प्राप्त कर ली थी । उनका अध्यात्म बाहर का नहीं, अन्दर का था । ऐसे प्रसंगों पर वे सहसा बाहर से अन्दर में बहुत गहरे उतर जाते थे और वहाँ सही समाधान पा लेते थे । अध्यात्म की भाषा में महावीर वेदना के भोक्ता नहीं, द्रष्टा हो जाते.थे । भोक्ता कभी कभी विकल्पों में उलझ जाता है, आगे का पथ भूल जाता है । किन्तु द्रष्टा की स्थिति विलक्षण होती है । वह दर्शन की भाषा में भोक्ता अवश्य होता है, किन्तु अध्यात्म की भाषा में भोक्ता नहीं, द्रष्टा होता है । द्रष्टा सुख-दुःख के अच्छे-बुरे विकल्पों मे नहीं फँसता । पहले के । बन्धन तोड़ कर फिर नये बन्धन में नहीं बँधता ।
हाँ, तो महावीर प्रस्तुत में वेदना को देखते भर रहे । मात्र वेदना पर दृष्टि, इधर-उधर और कुछ नहीं । अतएव उन्होंने गोपालक को कुछ नहीं कहा, वचन से भी नहीं, मन से भी नहीं । संभव है, वेदना के क्षणों में कुछ ठहरे हों, किन्तु जल्दी ही अपनी स्वरूपसिद्धि की शोध में जागृत चेतना के साथ आगे बढ़ गए । पूरब से पश्चिम जैसे लम्बे पथ पर नहीं । नीचे से ऊपर की
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
30
विश्वज्योति महावीर
ओर ! आध्यात्मिक ऊर्ध्वगमन ।
____ महावीर का साधनाकाल विलक्षण घटनाओं से भरा है । एक से एक अद्भुत घटना, परिबोध देने वाली घटना । ऐसी घटना, जैसे सघन अन्धकार में काले बादलों के बीच एकाएक बिजली कौंध जाती हो ! धरती और आकाश को सहसा उद्भासित कर जाती हो! साधकों के लिए महावीर की जीवनघटनाएँ ऐसी ही सुख-दुख के अँधियारे में प्रकाश देने वाली हैं, तमसाच्छन्न-जीवन पथ को आलोकित करने वाली हैं ।
साधना का केन्द्र
जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ अपना सब कुछ होम कर देने वाले महान् साधकों को भी होती हैं । भूख होती है, प्यास होती है । इन्हें कब तक दबाया जा सकता है ? अन्न और जल मानव जीवन की आधार शिला है, इनकी प्राप्ति के लिए यथावसर उचित प्रयत्न करना ही होता है । इस सम्बन्ध में नहीं का कुछ अर्थ नहीं है । साधना का अर्थ जीवन को नकारना, मरण को स्वीकारना नहीं हैं । साधना का अर्थ है - जीवन और मरण दोनों को सँवारना, सुधारना और ज्योतिर्मय बनाना । यह ठीक है कि स्व के प्रति समर्पित आत्मा शरीर के प्रति उपेक्षित हो जाती है, पर इसका यह अभिप्राय तो नहीं कि साधना शरीर को दण्ड देना है, जान-बूझकर व्यर्थ ही उसे तोड़ना है । साधना का ध्येय शरीर को मिटाना नहीं, अपितु उसे नियंत्रित करना है । शरीर साधना का शत्रु नहीं है, जो उसे मारा जाए । शरीर तो साधना का सहयोगी है, सहायक है । उसके साथ यह विवेकहीन उत्पीड़न का व्यवहार साधना नहीं, साधना की विडम्बना है । साधना का केन्द्र शरीर नहीं, आत्मा है । शरीर, इन्द्रिय और मन को साधने के ढंग से साधो ! आत्मा को निर्मल बनाओ, बस साधना हो गई।
यह ठीक है कि साधक शरीर का गुलाम नहीं होता, जो दिन-रात उसीकी सुख-सुविधा में बेभान बना रहे, अन्य किसी महात्वपूर्ण काम का न
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
31
दिव्यसाधक जीवन रहे। जब देखो तब शरीर की चिन्ता, शरीर की सुख-सुविधाओं की उधेड़बुन । यह वृत्ति साधना के तेज को धूमिल कर देती है । अतः साधक शरीर को साधता है, साधना के लिए उसे सक्षम बनाता है । सक्षमता यही कि यदि कभी मर्यादा के अनुकूल समय पर कुछ न मिले, तो सहज भाव से भूखा रह सके, प्यासा रह सके । इधर भूख लगी कि उधर साधकजी फूल से मुरझा गए । इधर प्यास लगी कि उधर हाय मरा का शोर मचाने लगे । साधना के पथ पर ऐसा नहीं होना चाहिए । संकट की घड़ियों में भी अनाकुलता बनाये रखना, विचलित न होना, साधना का उद्देश्य है । महावीर की साधना इसी पथ पर गतिशील थी।
सहज तप
महावीर तपस्वी थे, जैन इतिहासकारों की भाषा में -उग्र तपस्वी, घोर तपस्वी और बौद्ध साहित्य की भाषा में दीर्घतपस्वी । परन्तु उनकी यह तप की उग्रता व दीर्घता विवेक की सीमा में थी । न हठ से फैलती थी और न हठ से सिमटती थी । तप सहज था, वह हो जाता था । जब तक वह होता रहता, अनाकुलता का, आनन्द का भाव बना रहता । और जब वह समाप्त होता, तब भी वही अनाकुलता, वही आनन्द की धारा । न होने में गर्व और न न होने में ग्लानि। एक सहज भाव, जो तप का या किसी भी अन्य साधना का प्राण है । इसलिए अध्यात्म की भाषा में कहा जाता है - महावीर ने तप किया नहीं, तप हो गया । जो तप महावीर के लिए सहज था, खेद है कुछ दूर आगे चलकर वह दूसरों के लिए हठ बन गया । महावीर का शारीरिक तप, जो उन के लिए अध्यात्मभाव का एक निमित्त मात्र था, अनुकरणशील साधकों ने उसे ही धर्म
और अध्यात्म का एकमात्र आधारस्तम्भ मान लिया, बिना सोचे-विचारे हर किसी के लिए दीर्घ-तप आदर्श बन गया ! महावीर की साधना का मुख्य आधार बाहर नहीं, अन्दर था, बाह्य तप नहीं, अन्तस्तप था और वह ध्यान था । वह ध्यान, जिसने उनके जीवन की समस्त अशुभवृत्तियों को शुभ में, और आगे चलकर शुद्ध में परिवर्तित कर दिया, अन्धकाराच्छन्न अन्तर् को अनन्त ज्योति से भर दिया । जहाँ कहीं भी महावीर के तप का वर्णन आया है,
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
32
विश्वज्योति महावीर वहाँ साथ ही ध्यान का उल्लेख है और उल्लेख है ध्यान के द्वारा अपने को परखने का, अपने स्व को उद्घाटित करने का । इस अर्थ में उनका तप ध्यान के लिए था, शरीर के अन्धउत्पीड़न के लिए नहीं । देहाश्रित बहिरंग तप केवल अन्तरंग तप के सर्वोत्कृष्ट रूप ध्यान की पृष्ठभूमि था, और कुछ नहीं ।
नगर्व, न ग्लानि
भोजन की आवश्यकता होने पर महावीर वन से नगर में जाते और अपनी मर्यादा के अनुसार घरों से भिक्षा ग्रहण करते । समय पर भोजन ग्रहण करना भी उनके लिए अनाकुलता की ही एक साधना थी । कभी-कभी भोजन के सम्बन्ध में, उनके कुछ पूर्व संकल्प भी होते थे, जिन्हें जैन साहित्य में अभिग्रह कहा गया है । अभिग्रह के अनुसार उन्हें आहार न मिलता, तो विना आहार ग्रहण किये ही लौट आते थे । इस प्रकार दिन पर दिन गुजरते जाते, और आहार न मिलता, फिर भी महावीर प्रसन्नचित । मिल गया तो प्राप्ति का कोई गर्व नहीं, और न मिला तो अप्राप्ति की कोई ग्लानि नहीं । दोनो ही स्थितियों में समरस ! साधारण व्यक्तियों को कठिनाइयाँ तोड़ देती हैं, आगे बढ़ने से रोक देती हैं, कभी-कभी तो वापस भी लौटा लाती हैं, परन्तु महावीर कहीं रुके नहीं । उनकी अन्दर की सृजनात्मक ऊर्जा उन्हें हमेशा आगे और आगे ही बढ़ाती रही, विकासोन्मुख करती रही । महावीर सच्चे अर्थों में महावीर थे वर्धमान थे • यथा नाम तथा गुणः |
क्षमा के क्षीर सागर
अपरिचित अनार्य प्रदेशों में महावीर पहुंचते हैं तो उन्हें अवज्ञा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ता है । लोग उन पर धूल फेंकते, पत्थर मारते, उन्हें नोच डालने के लिए शिकारी कुत्ते भी छोड़ देते । किन्तु महावीर शान्त रहते, किसी को कुछ भी नहीं कहते । उद्दण्ड विरोधियों के प्रति भी सौहार्द एवं सोजन्य से पूर्ण मधुर भाव था उनका । वाणी में तो क्या, मन में भी कटुता नहीं होती थी उनके । क्षमा के क्षीरसागर ! सागर में बिजलियाँ, उल्काएँ गिरें तो क्या हो? अपने आप शान्त हो जाती हैं, सागर का कुछ बिगाड़ नहीं पाती हैं ।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
33
दिव्यसाधक जीवन अतृणे पतितो वन्हिः स्वयमेव प्रशाम्यति बिना घास की भूमि में पड़ी हुई आग खुद-ब-खुद बुझ जाती है ।
सहज-स्फूर्त साधना कभी-कभी ऐसा होता कि अपरिचित लोग महावीर से उनका परिचय जानना चाहते और पूछते कि आप कौन हैं ? महावीर इसका क्या उत्तर देते ? यह कि .. मैं वैशाली का राजकुमार हूं । अब भी मेरा बड़ा भाई नन्दीवर्धन ज्ञातृगणराज्य का शासक है, सुप्रसिद्ध वैशाली गणराज्य का प्रमुख घटक है । नहीं, ऐसा कुछ नहीं । महावीर कहते .मैं श्रमण हं । पहले पीछे का कोई परिचय नहीं, केवल वर्तमान का परिचय, जैसा कि वे तब थे । अहंशून्य-अंतरंग-रसधारा में डूबे सच्चे साधक के ये ही उद्गार हो सकते हैं । अन्यथा भीतर में सोयी हुई वृत्तियाँ ऐसे प्रसंगों पर सहस जाग जाती हैं, फुकारने लगती हैं । ऐसे समय में कच्चा साधक कुचला जाता है, आगे बढ़ने से रुक जाता है, कभी-कभी तो मार्ग बदलने के लिए भी लाचार हो जाता है । किन्तु ऐसे प्रसंगों पर महावीर की क्षमता आश्चर्यजनक होती थी । निन्दा हो, स्तुति हो, कुछ हो, वे हवा के झोंके की तरह फूलों में से भी आगे चले जाते और काँटों में से भी । न स्तुति से उत्साहित होते, न निन्दा से अनुत्साहित । धैर्य और निष्ठा के साथ सन्तुलित भाव से सत्य की खोज में हर क्षण आगे बढ़ते रहे ।
प्रोत्साहित साधना में साधक का अहंभाव नहीं टूटता है, अतएव प्रोत्साहित साधना प्रशंसा के क्षणों में मचल जाती है । वह अपने विज्ञापन के लिए हर मौके की तलाश में रहती है । जय जयकार पाने की धुन में हर किसी को चौंका देनेवाले असाधारण दाँव पेच करने लगती है । प्रोत्साहित साधना हर क्षेत्र में, हर समय निन्दा एवं आलोचना से पीछे हटती है । अवज्ञा के क्षणों में रो भी पड़ती है । महावीर की साधना किसी के द्वारा प्रोत्साहित एवं प्रेरित साधना नहीं थी । अपनी भीतरी ऊर्जा से निष्पन्न वह एक सहज स्फूर्त साधना थी । वह सत्य की एक ऐसी प्यास थी, जो न प्रशंसा से बुझ सकती थी, न निन्दा से । यही कारण है कि महावीर
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
34
विश्वज्योति महावीर
मान और अपमान से, निन्दा और स्तुति से अलिप्त रह कर विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से अज्ञात तथ्य को ज्ञात करने की दिशा में प्रामाणिक प्रयत्न करते रहे, जीवन की जटिल समस्याओं के वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर सही निष्कर्ष निकालते रहे । उनका हर क्षण सत्य की उन्मुक्त खोज में संलग्न रहा ।
साधना के प्रयोगवीर
महावीर के सत्य की खोज परम्परागत पूर्व-विश्वासों के मोड़ पर रुकी न रही, जहाँ कि लोग अकसर रुक जाया करते हैं । तत्कालीन धार्मिक मूल्यों के प्रति एवं साधना की प्रचलित पद्धतियों के प्रति महावीर के मन में व्यामोह नहीं था । शुद्ध सत्य की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक भी होता है । अपने स्वतन्त्र प्रयोगों से प्राप्तव्य सत्य के प्रति श्रद्धा रखने वाले साधक परंपरागत सत्यों की सुरक्षा के व्यामोह में नहीं फँसते हैं । स्वानुभूति से लभ्य सत्य के साथ उनका गहरा सम्बन्ध होता है । साधना के सम्बन्ध में महावीर को प्रयोगात्मक पद्धति अभीष्ट थी । मुक्त-साधना पद्धति के द्वारा वे · स्व का अनुसंधान करते रहे, जीवन के अनन्त सौन्दर्य एवं अप्रतिम निरुपाधिक आनन्द की खोज करते रहे । निःसंदेह महावीर केये स्वतन्त्र-प्रयोग सत्य के उदघाटन की दिशा में अत्यन्त महात्त्वपूर्ण रहे हैं । कयोंकि जीवन की यही प्रयोगात्मक स्वतन्त्र खोज एक दिन साध्य से सम्पृक्त होती है, पूर्णता की अभिव्यक्ति का रूप लेती है।
महावीर के साधनाकाल सम्बन्धी जो थोड़े से उल्लेख मिलते हैं, उन पर से महावीर की अध्यात्मसाधना की वास्तविक स्थिति का परिचय मिलता है । महावीर की साधना परिवार के परिवेश एवं समाज के प्रचलित नियमोपनियमों से मुक्त थी । उनकी साधना अपने अनन्त स्व से सम्पर्क स्थापित करने की साधना थी, सुप्त स्व को जगाने की साधना थी । सोया स्व जाग जाए, तो अन्य सब प्रश्न अपने आप हल हो जाते हैं ।
अनन्त चैतन्य प्रबुद्ध करने की साधना में महावीर सर्वथा निर्भय, निर्द्वन्द्व
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिव्यसाधक जीवन
35
I
रहते हैं । असुरक्षा की स्थिति में कभी सुरक्षा का कोई प्रयास नहीं करते । प्राणघातक स्थिति में भी वे स्व की, चैतन्य की अमरता का विश्वास लिए अचल खड़े रहते हैं । उनके जीवन में परस्पर विरोधी स्थिति जैसी कोई वस्तु नहीं है । साध्य के प्रति उनके मन में अटल विश्वास लहरा रहा है । और उसके लिए हर साधन को वे अपने अनुकूल बना लेते हैं, चाहे वह कितना ही प्रतिकूल प्रभंजन लेकर आया हो । जीवन में कुछ ऐसे प्रसंग आते हैं, जब मनुष्य का मन उन्मत्त तूफान के धक्के खाते वृक्ष की तरह लड़खड़ा जाता है, शान्ति खतरे में पड़ जाती है। विवेक का दीप बुझने लगता है । किन्तु महावीर ऐसे प्रसंगों पर भी बोखलाते नहीं हैं, निराश नहीं होते हैं, शिथिल नहीं होते हैं । उनका साधुत्व तेजस्वी है । उनकी साधना का दीप आंधी-तूफानों में भी प्रज्वलित रहता है, बुझता नहीं है । कैसा भी क्यों न ऊँचा-नीचा प्रसंग हो, महावीर कभी भी अपने को गलत आश्वासन नहीं देते । वे अपने मन को फुसलाते नहीं हैं, इसलिए कहीं फिसलते नहीं हैं । प्रत्येक स्थिति का दृढ़ता और विवेक के साथ सूक्ष्म से सूक्ष्म निरीक्षण एवं विश्लेषण करते हैं, और इस प्रकार मुक्त चिन्तन के प्रकाश में प्रयोग की दिशा में आगे बढ़ जाते हैं ।
I
महावीर की साधना सत्य के प्रयोग की साधना है । शरीर की नहीं, आत्मा के सत्य की साधना है । वह साधना, जो साधक को बन्धनमुक्त करती है, सत्य का अनन्त प्रकाश दिखलाती है, और साधक को अनन्त आनन्द की धारा में सदा सर्वदा के लिए प्रवाहित करती है ।
☐☐☐☐☐☐☐☐☐☐AAAA÷☐☐
->
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्मुखी
चार
साधनापद्धति
महावीर की साधना : अन्दर की साधना
आज तक ढाई हजार वर्षों की लम्बी अवधि में महावीर के सम्बन्ध में जो लिखा गया है, उसमें उनकी साधना का अन्तरंग रूप बहुत कम चर्चितवर्णित हआ है । जबकि उनके लोक कल्याणकारी उपदेश की तरह ही उक्त अन्तरंग साधना पद्धति का विश्लेषण भी अतीव आवश्यक है । महावीर बाहर में उतने नहीं थे, जितने कि अन्दर में थे । अतः यह उनके अन्दर का जीवन ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है और इसी अन्तरंग जीवन के सम्बन्ध में प्राचीन लेखक प्रायः मौन हैं । फिर भी आज हम साधनाकाल की उन विभिन्न घटनाओं के आधार पर उनकी अन्तरंग साधनापद्धति की कुछ परिकल्पना कर सकते हैं ।
साधना का बाह्याकार : आचार __ महावीर अन्दर और बाहर दोनों तरह से परिग्रहमुक्त होकर प्रव्रजित हुए थे । उनके पास धन-संपत्ति के नाम पर कुछ नहीं था । जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी तो कोई साधन नहीं था । हजारों सेवकों से घिरा रहने वाला राजकुमार, जब स्वयं दीक्षित होकर सत्य की खोज में एकान्त सूने वनों की ओर चला, जहाँ कदम-कदम पर मौत नाचती फिरती
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्मुखी साधनापद्धति
I
थी, तो उसने अपने साथ परिचर्या के लिए एक सेवक भी नहीं रखा और न संरक्षण के लिए कोई शस्त्र ही । न अध्ययन के लिए कोई शास्त्र रखा और न पूजा अर्चना के लिए कोई चमत्कारी साधन ही । प्रव्रजित होते समय एक वस्त्र था, बाद में वह भी नहीं रखा । महावीर का यह पूर्ण अपरिग्रही रूप था, जो चरित्र ग्रन्थों में काफी विस्तार से वर्णित है । किन्तु, यहां हम कुछ और चर्चा करेंगे, जिसका हमने ऊपर संकेत किया है ।
महावीर का साधनामार्ग पूर्णतः स्वतंत्र था । तत्कालीन साधना पद्धतियाँ, जिनका समाज में यत्र तत्र प्रचलन था, महावीर को मान्य नहीं थीं । उनकी साधनापद्धति स्वनिर्धारित अन्तर्मुखी साधनापद्धति थी । हर पहले दिन की अनुभूति और उपलब्धि दूसरे दिन के मार्ग को प्रशस्त करती थी । अतः उनके इस दीर्घ साधनाकाल को किसी एक ही विशिष्ट पद्धति का नहीं कहा जा सकता । बाहर में उनकी साधनापद्धति काफी बदलती रही है, जिसके साक्ष्य चरित्र ग्रन्थों में आज भी उपलब्ध हैं । यही कारण है कि आज की आचार संहिता के साथ उनके बहुत से क्रियाकलाप ठीक तरह से मेल नहीं खाते हैं, हालांकि कुछ लोगों द्वारा मेल बिठाने के अब भी असफल प्रयास किये जा रहे हैं ।
37
साधना का मूल प्राणः वीतरागता
महावीर की साधना का बाह्याकार गौण है, क्योंकि वह शाश्वत नहीं है, स्वयं उनकी भाषा में वह साधना की मूल धारा नहीं है । उनकी साधना का मूल प्राण, जो साधनाकालीन घटनाओं से परिलक्षित होता है, साधनोत्तर जीवन में दिये गए उपदेशों से भी प्रकट होता है, वह है वीतरागभाव । वीतरागभाव, अर्थात् राग से परे, द्वेष से परे, तटस्थ भावमध्यस्थ भाव- समभाव ।' यही वीतराग भाव महावीर की वास्तविक साधनापद्धति है और यही संपूर्ण वीतरागता उनकी साधना की सिद्धि है । हाँ, वीतरागभाव की सिद्धि के लिए परिकररूप में कुछ और भी किया या कहा मिलता है, परन्तु वह और, सर्वथा और नहीं है । यदि गहराई से निरीक्षण
१. समो य जो तेसु स वीयरागो । उत्तराध्ययन ३२
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
38
विश्वज्योति महावीर किया जाए तो वह भी वीतराग भाव का ही परिपोषक है, संरक्षक है । वीतराग भाव से जिसका दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं है, भला वह वीतराग महावीर का कहा या किया कैसे हो सकता है ? सूरज की उजली प्रकाशकिरणें काले अन्धकार से घिर जाएँ, कभी ऐसा हुआ है ?
वीतरागता : साधना भी, सिद्धि भी
महावीर के समग्र जीवन दर्शन को, उनकी साधनापद्धति को किसी एक ही शब्द में कहना हो तो वह है - वीतरागता । यही साधना का प्रारंभ बिन्दु है, और यही अन्तिम बिन्दु भी । जो अन्तर है, वह पूर्णता और अपूर्णता का है । वीतरागभाव की क्रमिक विकासधारा साधना है और कभी क्षीण न होने वाली पूर्णता साधना का अन्तिम बिन्दु सिद्धि
चैतन्यसूर्य के मेघावरण : राग द्वेष राग आसक्ति है, द्वेष घृणा ! अनादिकाल से चैतन्य ज्योति उक्त आवरणों से आच्छन्न है । आत्मा की बद्धता और कुछ नहीं, यही बद्धता है । स्वयं महावीर ने कहा है - दो ही बन्धन हैं, राग और द्वेष ।' जिस प्रकाश सहस्रकिरण सूर्य मेघों के आवरण में छिप जाता है, उसी प्रकार अनन्तकिरण आत्मा भी राग-द्वेष के आवरणों में छिप जाती है । उसका प्रकार दब जाता है । बादलों का निर्माण कौन करता है ? सूर्य । और उन्हें हटाता कौन है ? सूर्य । निर्माण और संहार दोनों ही शक्तियाँ सूर्य की हैं । चैतन्य भी ऐसी ही स्थिति में है । चैतन्य की विभाव शक्ति आवरणों को जन्म देती है, और उसकी स्वभावशक्ति उनका संहार करती है । सूर्य मेघों को हटाता है, जबकि आत्मा स्वयं हट जाती है । यही अन्तर है सूरज और आत्मा में । कहा जाता है महावीर ने आवरणों को हटाया, बन्धनों को तोड़ा । इसका यही अभिप्राय है कि उन्होंने अपने १. दुविहे बंधे - पेज्जबंधे चेव दोसबंधे चेव - स्थानांग २
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्मुखी साधनापद्धति
39
भाव को बहिर्मुख से अन्तर्मुख किया, उनके भाव ने विभाव से स्वभाव का रूप लिया और वे बन्धन से मुक्त हो गए । विभाव बन्धन है, स्वभाव मुक्ति है ।
राग द्वेष क्या हैं ? विकल्प ही तो हैं । विकल्प है तो राग द्वेष हैं, विकल्प नहीं हैं तो राग द्वेष नहीं हैं । बन्धन द्विष्ठ होता है, दो में होता है। एक के हटने पर दूसरा स्वयं हट जाता है । आत्मा स्वयं अपने को विकल्प से हटाती है, और दूसरी ओर विकल्पमूलक राग-द्वेष स्वयं हट जाते हैं । हट क्या जाते हैं, उनका अस्तित्व ही निरवशेष हो जाता है । समता के समक्ष विषमता का क्या अस्तित्व ? दिन के समक्ष रात्रि की क्या सत्ता ?
निश्चय दृष्टि से देखें तो आत्मा पर बन्धन या आवरण है ही कहाँ ? अनन्त चैतन्य पर कोई आवरण नहीं, कोई बन्धन नहीं । ये सब आवरण और बन्धन आरोपित हैं । आरोपित अर्थात् अज्ञानता के कारण बन्धन की बन्धन के रूप में स्वीकृति ही बन्धन है । और बन्धन की अस्वीकृति ही मुक्ति है । महावीर ने अनादि काल के स्वीकृत बन्धन को अस्वीकृत कर दिया और वे बन्धन से मुक्त हो गए, वीतराग हो गए । बन्धन की अस्वीकृति का अमोघ साधन ध्यान है । ध्यान का अर्थ है अपने अन्दर के प्रसुप्त प्राय देवत्व को जगाने की एक आन्तरिक प्रक्रिया, विस्मृत स्व की स्मृति को उद्बोधित करने की एक आध्यात्मिक कला ।
परत, परत और परत
हमारे जीवन की समष्टि एक अति जटिल सघनता का, भीड़भाड़ का रूप लिए हुए है । सर्वाधिक स्थूल यह दृश्य शरीर है, फिर इन्द्रियां हैं, मन है और मन की विकृतियाँ हैं । अनेक परतों के नीचे दबे जलस्त्रोत की तरह ही इन परतों के नीचे चेतना का विशुद्ध अस्तित्व दबा पड़ा है । शरीर बहुत ऊपर की परत है । इन्द्रियाँ उसके नीचे की परत हैं और मन की परत इन सब परतों के नीचे है । शरीर क्या है ? अस्थि है, मांस है, मज्जा है, मल है, मूत्र है, मिट्टी है, पानी है, आदि आदि । इन्द्रियाँ शरीर से सूक्ष्म हैं। रूप, रस, गन्ध आदि भौतिक स्थितियों की अनुभूति तक ही इनकी गति है । सबसे जटिल मन है।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
40
विश्वज्योति महावीर
यह संकल्प-विकल्पों का एक ऐसा मायाजाल है, जिसमें मानव की अन्तर्चेतना बुरी तरह उलझी रहती हैं । राग और द्वेष, इनसे होने वाली उत्तेजना, घृणा. ईर्ष्या, अहंकार आदि विकृतियों की सूक्ष्म अभिव्यक्तियाँ सर्वप्रथम अन्तर्मन में जन्म लेती हैं । अनन्तर शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से उक्त विकृतियों की स्थूल अभिव्यक्ति होती है ।
मन पर विकारों, संस्कारों एवं अच्छे बुरे विचारों की एक पर एक सघन तह जमी हुई है । मन के क्षुद्र आँगन में विकृतियों की एक बहुत बड़ी भीड़ डेरा पड़ी है। यही वह भीड़ है, जो अन्दर की शुद्ध चेतना को प्रकट नहीं होने देती, उभरने नहीं देती । यह विकृतियों का आवरण चेतना की अनन्त ज्योति को सब ओर से आवृत किए हुए है, चाँद बादलों में छिप गया है ।
शरीर और इन्द्रियों की परतें कुछ खास हानिकर नहीं हैं। खास क्या, यों कहना चाहिए, कुछ भी हानिकर नहीं हैं । साधना की दृष्टि से इन परतों को तोड़ना आवश्यक नहीं है । वीतराग भाव की सिद्धि में शरीर कहाँ रुकावट डालता है, इन्द्रियाँ कहाँ बाधा उपस्थित करती हैं। राग-द्वेष शरीर में नही हैं। इनका केन्द्र शरीर एवं इन्द्रियाँ नहीं, कोई और है। और वह है मन ! मन भी स्वयं क्या गड़बड़ करता है ? जिस प्रकार शरीर और इन्द्रियों को मारना साधना नहीं है, उसी प्रकार मन को मारना भी साधना नहीं है । मन बुरा नहीं है, बुरी है मन की विकृतियाँ अर्थात् आन्तरिक भाव के विकार । साधना, बस, इन्हीं विकृतियों की परतों को तोड़ना है चेतना के मैल को साफ करना है। विकृतियों की भीड़ के कोलाहल में चेतना का अपना मूल स्वर विलीन हो गया है । साधना का उद्देश्य इसी स्वर को मुखरित करना है, भीड़ के कोलाहल को शान्त करना है । जब तक भीड़ रहेगी, कोलाहल होता ही रहेगा, और चेतना का अपना मूल स्वर इस कोलाहल में डूबा ही रहेगा अतः भीड़ को ही समाप्त करना है ।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह आदि असंख्य अनन्त विकृतियों के मूल बीज हैं- राग और द्वेष । साधना इसी राग- -द्वेष से मुक्त होने की दिशा
१ रागो य दोसो विय कम्म बीयं । उत्तराध्ययन ३२
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
41
अन्तर्मुखी साधनापद्धति में चेतना का अपना अन्तःस्फूर्त पुरुषार्थ है । जब चेतना विकृतियों से मुक्त होकर अपने विशुद्धमूल स्वरूप में पहुँच जाती है, सदा के लिए शुद्ध स्थिति में स्थिर हो जाती है, तब यही परम चेतना हो जाती है । यह परम चेतना ही परम तत्त्व है, परमात्म तत्त्व है । उक्त परम तत्त्व को , परम चैतन्य को पाने की आध्यात्मिक प्रक्रिया ही वह साधना है, जो महावीर ने स्वीकार की।
दमन, शमन या क्षपण
साधना का अर्थ विकृतियों से मुक्त होना है, अन्दर में दबे हुए शुद्ध चैतन्यस्वरूप परमतत्त्व को पाना है । परन्तु प्रश्न है, यह सब हो कैसे सकता है ? उक्त प्रश्न के उत्तर में जब हम नयी-पुरानी धर्मपरम्पराओं पर एक गहरी चिन्तनात्मक दृष्टि डालते हैं, तो हम देखते हैं, कि कुछ लोग दमन का पथ पकड़े हुए हैं । अनेक साधक हैं, जो शरीर को कठोर यातनाएँ देते हैं । कड़कड़ाती सरदी में नंगे रहते हैं, और भयंकर गरमी में कम्बल ओढ़े फिरते हैं । पोष माघ के महीनों में सारी रात जल में खड़े रहते हैं, और वैशाख जेठ की तपती दुपहरियों में चारों ओर प्रचण्ड अग्नि जलाकर बैठते हैं । कुछ काँटों पर सोते हैं, कुछ खड़े-खड़े ही वर्ष के वर्ष गुजार देते हैं और इस स्थिति में पशुओं की तरह खड़े-खड़े ही मलमूत्र की विसर्जना क्रिया भी करते हैं । कुछ सूखा घास या पत्ते चबाते हैं, कुछ जल पर की शैवाल (काई) ही खाते हैं कुछ लोग अपनी आँख, कान आदि इन्द्रियों को भी कुचल देते हैं, और अंधे बहरे हो जाते हैं । कुछ लोगों ने साधना के अति उत्साह में विकारों से मुक्त होने के लिए भीष्म कर्म (पुरषचिन्ह का छेदन) तक कर डाले हैं ।
___ महावीर के युग में भी ऐसे हजारों साधक थे, जिनका जैन तथा वैदिक साहित्य से प्रामाणिक साक्ष्य मिलता है। आन्तरिक वृत्तियों को शून्यांश पर लाने के लिए साधना के जो प्रयोग होते चले आए हैं, उनमें उक्त प्रयोग दमन के प्रयोग हैं। दमन भीतर से उठने वाली अशुभ वृत्तियों को रोकने का तामसी प्रयोग है। इसमें शरीर और इन्द्रियों की प्रवृत्तियों को कुछ क्षणों के लिए रोक देने का एक विवेकशून्य हठ है, और कुछ नहीं । सर्प अन्दर बैठा है, फुकार मार रहा है, और लोग आँख बन्द किये बांबी (साँप के बिल) को पीटे जा रहे हैं। दर्द
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
42
विश्वज्योति महावीर कहीं है, दवा कहीं। हिंसा और असत्य, घृणा और वैर, लोभ और मोह आदि विकृतियाँ शरीर की हैं या इन्द्रियों की? दोनों की ही नहीं । फिर बेचारे इन निर्दोष जीवन साथियों को क्यों मारा जाता है ? क्या बिगाड़ा है इन दोनों ने ?
यह ठीक है कि सावधानी के तौर पर साधक शरीर एवं इन्द्रियों पर भी निगरानी रखता है, इन्हें उच्छृङ्खल नहीं होने देता है । अभ्यास के लिए कुछ अंश तक इनका नियन्त्रण भी आवश्यक है । परन्तु यह सब शुद्ध विवेक के प्रकाश में अमुक सीमा तक ही होना चाहिए । ऐसा न हो कि औचित्य की सीमा पार हो जाए, और साधना केवल देहदण्ड का ही विकृत रूप धारण कर ले । महावीर की साधना दमन की साधना नहीं है । यह ठीक है कि महावीर नग्न रहते हैं, उग्र तप करते हैं, अधिकतर जन-जीवन से दूर एकान्त वन्यप्रदेशों में साधना करते हैं, परन्तु महावीर के लिए यह सब सहज था, अन्तःस्फूर्त था, ऊपर से बलात् थोपा गया हठ नहीं था । महावीर का बाह्याचार ... अपनी शक्ति की सीमा में था और था औचित्यपूर्ण । वस्तुतः यह साधना नहीं, साधना के लिए अच्छा वातावरण तैयार करने की प्रक्रिया थी । साधनोत्तर जीवन में स्वयं महावीर ने इसे बाह्याचार या बाह्य तप की संज्ञा दी है । और जब हम किसी चीज को बाह्य मानते हैं और कहते हैं, तो फिर हमारी दृष्टि में उसका सही मूल्य क्या है, अपने आप स्पष्ट हो जाता है । उपयोग अवश्य किया, किंतु उससे चिपके नहीं रहे । जब आवश्यक हुआ, तब उन्होंने वाह्याचार में उचित हेरफेर भी किए । चिपकने वाला कभी ऐसा नहीं कर सकता ।
हाँ, तो महावीर की साधना दमन की साधना नहीं थी । वस्तुतः दमन साधना है ही नहीं । वृत्तियों का विवेकहीन अन्धनिग्रह करके वृत्तियों को शुद्ध नहीं बनाया जा सकता । यह अन्ध आत्मनिग्रह, जीवनोपयोगी साधना की हठात् अभावस्थिति, जनसाधारण में जय-जयकार पाने का एक प्रदर्शन हो सकता है, अन्तर को जगाने वाली साधना नहीं । दमन के द्वारा निगृहीत वृत्तियाँ पिंजरे में अवरुद्ध भूखे बाघ की तरह होती हैं । हाहाकार मचा देती हैं । बाँध में अवरुद्ध महानद की तूफानी जलधारा एक दिन बाँध को तोड़ देती है
.
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्मुखी साधनापद्धति
43
और वह ऐसी संहार लीला करती है कि साक्षात् रौरव का दृश्य उपस्थित हो जाता है। दमन के साधकों की भी अन्त में एक दिन यही स्थिति हो सकती है।
दमन का आधार अविवेक हैं, अज्ञान है । अतः उसमें उचित अनुचित का कुछ विचार नहीं होता है, केवल एक हठ होता है, जो अहं के केन्द्र पर खड़ा रहता है । दमन का साधक अधिकतर परम्परागत सामाजिक व्यवस्थाओं पर बल देता है और इन्हें ही साधना का अन्तिम आदर्श मान लेता है । और, . इस प्रकार दमन का साधक आसानी से धार्मिक एवं आध्यात्मिक होने की प्रसिद्धि पा लेता है, शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाता है । और जब ऐसा होता है तो वह फिर कुछ और अधिक अपनी घेराबन्दी शुरु करता है । अपने को पहले नंबर का और दूसरों को दूसरे तथा तीसरे नंबर का, या किसी भी नंबर का नहीं, प्रमाणित करने के लिए वह कठोर एवं विचित्र क्रियाकाण्डों की नयी-नयी उद्भावनाएँ करता है । और, इस प्रकार वह सिद्धि एवं प्रसिद्धि के फेर में पड़कर कहीं का भी नहीं रहता ।
धार्मिक जगत् में परस्पर निन्दा एवं आलोचना का जो अभद्र वातावरण रहता है, उसका क्या कारण है ? यही कारण है कि दमन के साधक को यश की भूख बहुत तीव्र हो जाती है, और इसके लिए वह दूसरों को यश के सिंहासन से नीचे गिराकर खुद उस पर बैठने को पागल हो जाता है। आमतौर पर • प्रसिद्धि को पाने या प्राप्त प्रसिद्धि को बनाये रखने के लिए एक ओर कठोर से कठोर, साथ ही जनसाधारण को चमत्कृत कर देने वाले क्रियाकाण्डों का पथ अपनाता है, तो दूसरी ओर अन्य साधकों एवं धार्मिकों के लिए निन्दा का वातावरण खड़ा करता है ।
वस्तुतः अशुभ वृत्तियों की निवृत्ति का दावा करने वाला यह दमन स्वयं ही एक अशुभ वृत्ति है । जो स्वयं अशुभ है, और केवल बाहर में शुभ का बाना पहन ले, तो क्या वह इतने भर से शुभ हो सकता है ? अशुभ को दूर कर सकता है ? काले कोयले को दूध से धोकर सफेद नहीं किया जा सकता । रावण को राम के वस्त्र पहना कर राम नहीं बनाया जा सकता है । अशुभ एवं विकृत वृत्तियों को भी केवल देहदण्डस्वरूप निर्जीव संयम का चोला पहनाकर विशुद्धता के रूप में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता । संयम के नाम से
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
44
विश्वज्योति महावीर प्रचारित बाहर के मोहक अवगुंठन के नीचे अन्दर में विकृतियों एवं कुण्ठाओं की कुरूपता विद्यमान रहती है । सुन्दर अवगुंठन कुरूपता को छिपाये रख सकता है, उसे मिटा नहीं सकता । दमन वृत्तियों का निष्कासन नहीं करता, अपितु निष्कासन का या तो भुलावा करता है या प्रदर्शन । और कुछ नहीं ।
___अनेक बार ऐसा होता है कि विकृतियाँ नष्ट नहीं होती, प्रत्युत नष्ट होने का भ्रम हो जाता है और यह भ्रम समय पर साधक को बहुत बड़ा धोखा देता है । बर्फ में दबा सर्प, लगता है, मर गया है, किन्तु ज्योंही इधर-उधर की गरमी पाता है, कुंकार मारने लगता है । दमन वृत्तियों को दबा देता है, कुछ क्षणों के लिए वृत्तियों का शमन एवं उपशमन कर देता है, और बस, दमन का कार्य पूरा हो जाता है । साधक विश्वस्त होकर बैठ जाता है कि चलो, ठीक सफलता मिल गई । परन्तु यह पथ खतरे से भरा है, अतः यह साधना का सफल मार्ग नहीं है ।
___ दमन के विपरीत एक और पथ है - वृत्तियों को खुलकर खेलने देना । कुछ लोग कहते हैं - मन में जो भी वृत्ति उभरे, जैसे भी हो उसकी पूर्ति की जानी चाहिये । दमित वृत्तियाँ नहीं, मुक्त वृत्तियाँ ही मन को हलका करती हैं, और इस प्रकार स्वच्छन्द विलासी जीवन बिताते हुए भी लक्ष्य-सिद्धि का, आध्यात्मिक पवित्रता का पथ प्रशस्त हो जाता है । परंतु साधना का उक्त पथ भी प्रशस्त नहीं है । वृत्तियों की मनचाही पूर्ति एवं सन्तुष्टि करके भी उन्हें मिटाया नहीं जा सकता । अग्नि में खुलकर घृत डालने से वह और अधिक प्रज्वलित होती है, बुझती नहीं है । नदी की बहती जलधारा के निकट रेत में लोग गड्ढे खोद लेते हैं, धीरे-धीरे उनमें पानी भर जाता है । उलीचने से कुछ क्षणों के लिए अवश्य रिक्तता आ जाती है, परन्तु यह रिक्तता स्थायी नहीं होती, इस तरह गड्ढे सूखते नहीं हैं । यही बात वृत्तियों को उलीचने के सम्बन्ध में भी है । हम उन्हें पूर्ति के द्वारा उलीच देते हैं, और समझ लेते हैं कि चलो, वृत्तियों से छुटकारा हुआ । परन्तु ऐसे छुटकारा होता नहीं है । कुछ समय के लिए छुटकारे का आभास मात्र होता है, क्षणिक समाधान मिलता है, परन्तु यह स्थायी एवं वास्तविक समाधान नहीं है । अस्तु, जिस प्रकार वृत्तियों को दमित
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
45
अन्तर्मुखी साधनापद्धति करके वृत्तियों को नष्ट नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार वृत्तियों को मुक्त रूप से सन्तुष्ट करके भी उनको नष्ट नहीं किया जा सकता। ' प्रस्तुत सन्दर्भ में महावीर की साधना जिस तरह दमन की साधना नहीं है, उसी तरह भोगविलास के पथ पर वृत्तियों को खुला छोड़ देने की भी उनकी साधना नहीं है ।
महावीर की साधना का इन दोनों से भिन्न एक और ही अद्भुत रूप है। उसका पथ विवेक का है, चेतना का है । उचित निवृत्ति और उचित प्रवृत्ति, इन दोनों को स्पर्श करता हुआ बीच से पथ जाता है महावीर की साधना का। बाह्य विधिनिषेध अमुक सीमा तक उन्हें मान्य हैं । उनके लिए उपयोगी भी रहे हैं । परन्तु उनका मुख्य साधनापथ बाहर में नहीं, अन्दर में था । वृत्तियों का दमन या शमन नहीं, क्षपण ही उनका आदर्श था । शास्त्र की शुद्ध भाषा में इसे क्षायिक मार्ग कहा जाता है । साधना की क्षायिकपद्धति में वृत्तियों के बीज को देखा और समझा जाता है । उनके कारणों की सही-सही खोज की जाती हैं । उन्हें शून्यांश पर लाने के लिए शुद्ध वैज्ञानिक अध्यात्म पद्धति को उपयोग में लाग जाता है । महावीर की साधना पद्धति यही क्षायिक साधना पद्धति थी, जिसने जीवन की वृत्तियों को, विकृतियों को जड़ से उखाड़ फेंका । वे मूलतः नष्ट हो गई, और इसके फलस्वरूप महावीर अपने चैतन्य तत्त्व के विकास शिखर पर पहुंच गए।
वीतरागसाधना का मूलाधार : ध्यान
महावीर की साधना, जिसे हम वीतराग साधना कहते हैं, जो वृत्तियों के दमन से या शमन से सम्बन्धित न होकर क्षपण से सम्बन्धित है, अतः वह क्षायिक साधना है । प्रश्न है, उसका मूल आधार क्या है ? वह कैसे एवं किस रूप में की जा सकती है ?
उक्त प्रश्न का उत्तर एक ही शब्द में दिया जा सका है, वह शब्द है - ध्यान । महावीर की साधना का आन्तरिक मार्ग यही था । ध्यान के मार्ग
१ न यावि भोगा समयं उर्वति । - उत्तराध्ययन ३२
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
46
विश्वज्योति महावीर
से ही वे अन्दर की गहराई में अपने अनन्त ईश्वरत्व को प्रकट कर सके, विशुद्ध आध्यात्मिक सत्ता तक पहुंच सके । आध्यात्मिक साधना का अर्थ ही ध्यान है ।
1
वस्तुतः ध्यान से ही आध्यात्मिक तथ्य की वास्तविकता का बोध होता है । ध्यान जीवन की बिखरी हुई शक्तियों को केन्द्रित करता है, चैतन्य की अन्तर्निहित अनन्त क्षमता का उद्घाटन करता है । ध्यान आध्यात्मिक शक्ति की पूर्णता का विस्फोट है, जीवन की समग्र सत्ता का एक वास्तविक जागरण है। ध्यान हमारी अशुद्ध शक्तियों का शोधन करता है। ध्यान के द्वारा ही चेतना की अशुभ धारा शुभ में रूपान्तरित होती है, शास्त्र की भाषा में कहें तो चेतना की शुभाशुभ समग्र धारा अन्ततः शुद्ध में संक्रमित हो जाती है । प्रकाश में जैसे अन्धकार विनष्ट हो जाता है, वैसे ही ध्यान की ज्योति में विकृतियाँ सर्वतोभावेन समाप्त हो जाती है । विकृतियों का तभी तक शोरगुल है, जब तक कि चेतना सुप्त है । चेतना की जागृति में आध्यात्मिक सत्ता का अथ से इति तक संपूर्ण कायाकल्प ही हो जाता है, फलतः अन्तरात्मा में एक अद्भुत नीरव एवं अखण्ड शान्ति की धारा प्रवाहित होने लगती है । चेतना के वास्तविक जागरण में न कोई तनाव रहता हैं, न पीड़ा, न दुःख, न द्वन्द्व । जिसे हम मन की आकुलता कहते हैं, चित्त की व्यग्रता कहते हैं, उसका तो कहीं अस्तित्व तक नहीं रहता । ध्यान चेतना के जागरण का अमोघ हेतु है । हेतु क्या, एक तरह से यह जागरण ही तो स्वयं ध्यान है ।
I
जीवन में दुःख क्यों होता है ? उद्विग्नता क्यों बढ़ती है ? मनुष्य क्यों आकुल-व्याकुल हो जाता है ? यह सब इसलिए होता है कि अपनी भूल को देखने के लिए बहुत कम लोगों के पास सही आँखें होती हैं । अधिकतर मनुष्य अपनी गलतियों पर नजर ही नहीं डालते । कभी संगी-साथियों पर दोषारोपण करते हैं तो कभी प्रकृति पर, कभी परिस्थिति पर और कभी ईश्वर पर । हर कोई दूसरों की ओर देखता है, स्वयं अपनी ओर नहीं । यदि मनुष्य तटस्थ भाव से अपने को देखले, अपने मूल स्वरूप को देखले, शुभाशुभ जो भी हो रहा है, उसे देखले, तो फिर द्वन्द्व कहाँ रह सकता है ? आकुलता कैसे रह
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
47
अन्तर्मुखी साधनापद्धति सकती है ? ध्यान का अर्थ है अपने को देखना, अन्तर्मुख होकर तटस्थभाव से अपनी स्थिति का सही निरीक्षण करना । सुख-दुःख की, मान-अपमान की, हानि-लाभ की, जीवन-मरण की जो भी शुभाशुभ घटनाएँ हो रही हैं, उन्हें केवल देखिए । रागद्वेष से परे होकर तटस्थभाव से देखिए । केवल देखना भर है, देखने के सिवा और कुछ नहीं करना है । बस, यही ध्यान है । शुभाशुभ का तटस्थ दर्शन, शुद्ध स्व का तटस्थ निरीक्षण ! चेतना का बाहर से अन्दर में प्रवेश ! अन्दर में लीनता !
__ महावीर की साधना ध्यान की साधना थी । इतिहास में महावीर के तप की बहुत बड़ी प्रसिद्धि है । उनके कठोर एवं दीर्घ तपश्चरण का काफी विस्तार से वर्णन है । परन्तु यदि कोई गहरी नजर डालकर अन्तर में देखे तो उसे उक्त तप में भी ध्यान ही परिलक्षित होगा । उनका तप ध्यान के लिए था । यही बात है कि जहाँ कहीं ऐसा वर्णन आता है, वहाँ लिखा मिलता है कि - भगवान् ध्यान में लीन रहे । सर्वप्रथम स्थान-शरीर की स्थिरता, फिर मौन वाणी की स्थिरता, और फिर ध्यान-अन्तर्मन की स्थिरता । आज भी हम कायोत्सर्ग की स्थिति में ध्यान करते समय यही कहते हैं । ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामिः | महावीर के ध्यान का यही क्रम था, और , इस प्रकार तप करते-करते महावीर का ध्यान हो जाता था । अथवा यों कहिए कि ध्यान करते-करते अन्तर्लीन होते-होते तप हो जाता था । और, यदि स्पष्टता के साथ वस्तुस्थिति का विश्लेषण किया जाए तो ध्यान स्वयं तप है । स्वयं भगवान् की भाषा में अनशन आदि तप बाह्य तप हैं । इनका सम्बन्ध शरीर से अधिक है । शरीर की भूख-प्यास आदि को पहले निमन्त्रण देना और फिर उसे सहना, यह बाह्य तप की प्रक्रिया है । और ध्यान अन्तरंग तप है, अन्तरंग अर्थात् अन्दर का तप, मन का तप, भाव का तप, स्व का स्व में उतरना, स्व का स्व में लीन होना । महावीर की यह आत्माभिमुख ध्यान साधना धीरे-धीरे सहज होती गई, अर्थात् अन्तर्लीनता बढ़ती गई । विकल्प कम होते गए, चंचलता उद्विग्नता कम होती गई और इस प्रकार धीरे-धीरे निर्विकल्पता, उदासीनता, अनाकुलाता, वीतरागता विकसित होती गई । ध्यान सहज होता
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वज्योति महावीर
गया, हर क्षण, हर स्थिति में होता गया । महावीर के जीवन में आकुलता के, पीड़ा के, द्वन्द्व के एक-से-एक भीषण प्रसंग आए । किंतु महावीर अनाकुल रहे । निर्द्वन्द्व रहे । कैसे रहे ? ऐसे रहे कि वे ध्यान योगी थे । अतएव वे हर अच्छी-बुरी घटना के तटस्थ दर्शक बनकर रह सकते थे । अपमान- तिरस्कार के कड़वे प्रसंगों में, और सम्मान सत्कार के मधुर क्षणों में उनकी अन्तश्चेतना सम रही, तटस्थ रही, वीतराग रही । वे आने वाली या होने वाली हर स्थिति के केवल द्रष्टा रहे, न कर्त्ता रहे और न भोक्ता । हम बाहर में उन्हें अवश्य कर्ता भोक्ता देखते हैं । किन्तु देखना तो यह है कि वे अन्दर में क्या थे ? सुख-दुःख का कर्त्ता, भोक्ता विकल्पात्मक स्थिति में होता है । केवल द्रष्टा ही है, जो शुद्ध निर्विकल्पात्मक ज्ञान-चेतना का प्रकाश प्राप्त करता है ।
48
-
महावीर का यह ध्यानकेन्द्र से सम्बन्धित समत्व दर्शन-उनका अपना स्वयंस्फूर्त सहज दर्शन था । आरोपित या किसी के द्वारा प्रशिक्षित नहीं । उन्होंने किसी गुरु से सुनकर या किसी शास्त्र में पढ़ कर समत्व की यह स्वीकृति अपने उपर आरोपित नहीं की थी कि कोई कुछ भी कहे या करे । मुझे तो मेरे गुरु या शास्त्र का आदेश है कि मैं निन्दा और प्रशंसा में, सुख और दुःख में, हानि और लाभ में सम रहूं, समान भाव से रहूं । इंधर-उधर से उधार लिए, आरोपित ज्ञान से सच्ची समता एवं समानता उद्भासित नहीं होती । भेदातीतता की सहज स्थिति ही अन्दर और बाहर सर्वत्र अभेद का, समत्व का दर्शन करती है । वीतरागता साधना की वह स्थिति है, जहाँ द्वन्द्वात्मक सभी भेद समाप्त हो जाते हैं, फलतः आकुलता, व्याकुलता, उद्विग्नता और व्यग्रता का कहीं कोई अस्तित्व नहीं रहता । एक अखण्ड आनन्द एवं शक्ति की धारा बहने लगती है । और यह सब ध्यान का चमत्कार है, और कुछ नहीं ।
महावीर का ध्यान शुद्ध आत्मबोध पर आधारित था । उनके ध्यान में आरोपित उद्देश्य, उपेक्षा या उदासीनता जैसी कोई स्थिति नहीं थी । बहुत दुःख है, बड़ा कष्ट है, क्या करूँ, इससे मुक्त कैसे होऊँ- ऐसा कुछ नहीं । सुख मिले तो कितना अच्छा हो, जल्दी से जल्दी मुक्ति मिले तो दुःख से छुटकारा हो - ऐसा भी कुछ नहीं । संसार बड़ा खराब है, यहाँ कोई किसी का
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तर्मुखी साधनापद्धति
49 नहीं । सब स्वार्थी हैं, धूर्त हैं, मोहमाया में फँसाने वले हैं -ऐसा भी कुछ नहीं । यह सब निचले स्तर की दृष्टि है, जिसे भगवान् ने आर्तध्यान कहा है । शुद्ध आत्मबोध एवं विवेक पर आधारित ध्यानसाधना, जो वीतराग भाव को उबुद्ध करती है, उसमें सर्वत्र समत्व की ज्योति झलकती है । यहाँ तक कि संसार
और मोक्ष में भी समरसता आ जाती है । न संसार से द्वेष रहता है, न • मोक्ष से राग । मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः ।।
सच्चा बोध ध्यान को जन्म देता है और सच्चा ध्यान सच्चे बोध को जन्म देता है । इस प्रकार बोध से ध्यान, और ध्यान से बोध की एक धारा चल पड़ती है, जो आगे चलकर चिदानन्द एवं सहजानन्द के अनन्त सागर में समाहित हो जाती है । ध्यान साधना है, शुद्ध चैतन्य सिद्धि है । ध्यान साधना है, शुद्ध आनन्द सिद्धि है | ध्यान जितना गहरा होता जायेगा, उतनी ही गहराई से आनन्द प्राप्त होता जायेगा । भगवान् महावीर की साधना अन्दर में इसी ध्यान के पथ पर गतिशील हुई । बाहर में तप रहा, त्याग रहा, बहुत कुछ रहा, परन्तु अन्दर में एक ध्यान ही था, जो सब कुछ था । बाहर के बन्धन कैसे भी तोड़े जा सकते हैं, किन्तु अन्दर के बन्धन ध्यान ही तोड़ सकता है । ध्यान के द्वारा ही महावीर मुक्त हुए, आनन्दमय और बोधरूप हुए । महावीर के आनन्द और बोध का सूर्य के समान, सूर्य के समान क्या, सूर्यातिशायी वह निर्मल प्रकाश विकीर्ण हुआ, जो हजारों हजार साधकों को अतीत में मार्गदर्शन करता रहा, वर्तमान में मार्गदर्शन कर रहा है और भविष्य में भी मार्गदर्शन करता रहेगा।
___ ध्यान की फलश्रुति में कालान्तर का प्रश्न नहीं है । यह बात नहीं है कि ध्यान अब होता है, उसका परिणाम या फल भविष्य में कहीं दूर होता है ? ध्यान तो तत्काल की साधना है । इधर ध्यान होता है, उधर तत्काल कर्मों की निर्जरा होती है, बन्धन टूटते हैं, आत्मा मुक्त होती है । प्रकाश हुआ नहीं कि अन्धकार समाप्त ! प्रकाश होने पर एक क्षण के लिए भी अन्धकार की स्थिति नहीं रह सकती । सच्चा विकास संपूर्णता में होता है, आंशिकता में नहीं । ध्यान वस्तुतः इसी संपूर्ण विकास का मार्ग है । महावीर का ध्यान संपूर्णता की इसी
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
50
विकासदिशा में अग्रसर था ।
प्रश्न हो सकता है, महावीर को साधना में साढ़े बारह वर्ष जितना लम्बा समय लगा । वह क्यों लगा ? जब ध्यान तत्काल सिद्धि की साधना है, तब क्यों इतनी देर हुई ? ध्यान लगाते हो तत्काल कैवल्य क्यों नहीं हुआ ? बात यह है कि महावीर का ध्यान प्रारम्भ में अन्तर्लीनता की पूर्ण स्थिति तक नहीं पहुंचा था। जो तीव्रता और गति ध्यान में होनी चाहिए थी, वह नहीं हो सकी थी । यही कारण है कि वे आध्यात्मिक शुद्धि की प्राथमिक भूमिकाओं में ही काफी देर तक अटके रहे, आगे नहीं बढ़ सके, समुचित विकास प्राप्त नहीं कर सके । बाहर के तप और त्याग भले ही प्रारम्भ से उग्र एवं तीव्र रहे, परन्तु ध्यान में तीव्रता नहीं आ सकी । क्रमशः अन्तर्लीनता की स्थिति आई, ध्यान में तीव्रता आई, ध्यान ने विकास की गति पकड़ी, अन्तर्लीनता और गहरी हुई, और उसी क्षण अन्तर्जगत कैवल्य के दिव्य आलोक से भर गया । जो काम वर्षों में नहीं हुआ, वह कुछ क्षणों में ही हो गया ।
विश्वज्योति महावीर
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर का
जीवन दर्शन
प्रज्ञान का अनंत सागर
भगवान् महावीर ने अपनी लम्बी साधना के द्वारा क्या प्राप्त किया और जनता को क्या दिया ? उनके प्रबोध-प्रवचनों की उपयोगिता उस युग में क्या थी और आज के युग में क्या है ? उनका जीवन दर्शन क्या था और क्या नहीं था ? प्रस्तुत सन्दर्भ में उक्त महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर कुछ चिंतन कर लेना आवश्यक है ।
पाँच
भगवान् महावीर ने जो सत्य का प्रकाश प्राप्त किया था, उसे शब्दों में अंकित करना आसान नहीं है । बात यह है कि सत्य की अनुभूतियाँ उनकी अपनी थी, अभिव्यक्ति के शब्द हमारे हैं। सत्य की उपलब्धियाँ उनकी थी, अभिव्यक्ति के संकेत हमारे हैं । अतः उनकी दिव्य अनुभूतियों का, विराट् उपलब्धियों का सम्यक् बोध न हमारे विमर्शात्मक ज्ञान से हो सकता है और न हमारी आज की विश्लेषणात्मक वचनपद्धति से ही संभव है । हमारा ज्ञान सीमित है, हमारे शब्दसंकेत अपूर्ण हैं । उनकी प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ, हमारे लिए परोक्ष हैं । प्रत्यक्ष अनुभूतियों को परोक्ष अनुभूतियों के द्वारा कैसे अभिव्यक्ति दी जा सकती है ? अनन्त, असीम अनुभूतियों को परिमित एवं अपूर्ण साधनों के द्वारा अभिव्यक्त करना निश्चय ही असंभव है । फिर भी लेखक का दायित्व है कि उसे कुछ न कुछ कहना ही चाहिए । भले ही वह अपूर्ण हो, इससे क्या ? आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है अबोध शिशु जैसे अपने नन्हे नन्हे
1
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
52
विश्वज्योति महावीर हाथ फैला कर समुद्र का परिमाण बताता है कि समुद्र इतना बड़ा है, वैसे ही भक्त भी अपनी क्षुद्र बुद्धि के द्वारा अनन्त प्रज्ञान-सागर का आकलन करता है, भगवान के अनन्त गुणों की महिमा का गान करता है । सदा से ऐसा ही होता आया है और ऐसा ही होता रहेगा । सागर की व्याख्या बूंद के द्वारा जब होती है, तब यही तो स्थिति उत्पन्न होती है । हम भी इसी स्थिति में से गुजर रहे हैं, इतना समझ कर ही आगे बढ़ना अच्छा रहेगा।
अनन्त आनन्द ! अनन्त बोध ! महावीर अपने युग के एक महान् साधक थे । वे जन्म से सिद्ध होकर नहीं आए थे, अपितु अपनी साधना से सिद्ध हुए थे । प्राचीन धर्मग्रन्थों में साधना पथ पर अंकित उनके चरणचिन्ह आज भी देखे जा सकते हैं । महावीर की उपलब्धि सचमुच ही महान् उपलब्धि थी, स्वयं के द्वारा अर्जित थी । वह न किसी के आशीर्वाद से उन्हें मिली थी और न किसी के द्वारा भिक्षा में ही। यही कारण है कि महावीर की उपलब्धि पूर्ण उपलब्धि है, शास्त्र की भाषा में अनन्त उपलब्धि है । दिया-लिया पूर्ण नहीं होता है, अनन्त नहीं होता है । पूर्ण एवं अनन्त जो होता है, वह किया हुआ होता है, शत-प्रतिशत अपना किया हुआ हो । अतएव प्रस्तुत सन्दर्भ में इतना अवश्य जानकर चलिए कि महावीर ने वह प्राप्त कर लिया था, जिसकी प्राप्ति के बाद और कुछ प्राप्तव्य शेष नहीं रहता है । और न अन्य नयी प्राप्ति की कोई अपेक्षा ही रह जाती है । उन्होंने वह जान लिया था, जिसे जान लेने के बाद और कुछ भी जानने को शेष नहीं रह जाता । जानना या पाना कुछ भी कहें, वह सब अपने में समग्र था,अनन्त था । समग्र चेतना अखण्ड अनन्त-आनन्द से परिपूर्ण ! अखण्ड अनन्त बोध से परिपूर्ण !
लोककल्याण की सहज अभिव्यक्ति आप देखते हैं जब पुष्प खिलता है, तो उसका सौरभ फैल जाता है । दीप जब जलता है, तो उसकी ज्योति वातावरण को प्रकाश से भर देती है । पुष्प से सौरभ स्वयं फैलता है, फैलाया नहीं जाता । दीपक से प्रकाश स्वयं
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर का जीवन दर्शन
53
जगमगाता है, जगमगाया नहीं जाता । बात यह है कि पुष्प और दीपक को अपने विस्तार के लिए कोई योजना नहीं बनानी पड़ती, अपने सौरभ एवं प्रकाश के प्रसार के लिए कोई उपक्रम नहीं रचने पड़ते । न विज्ञापन, न प्रचार ! न हल्ला, न शोरगुल ! जो कुछ विस्तार एवं प्रसार होता है, वह सब बिना आयास के, बिना प्रयास के होता है, स्वतः और सहज होता है । भगवान् महावीर का साधनोत्तर जीवनदर्शन लोककल्याण की दिशा में इसी प्रकार सहज भाव से विस्तार एवं प्रसार पाता गया । इस विस्तार एवं प्रसार में न कोई हठ था, न कोई आग्रह । न कोई आदेश था, न कोई अहम् । जो भी हुआ, सहज हुआ, अपने आप हुआ । आवेश के धक्के से होने वाली गति कुछ दूर चलकर क्षीण हो जाती है, किन्तु सहज भाव से जन जीवन में प्रबुद्ध होने वाली बोध की धारा अबाधगति से महाकाल की सीमाओं को, युगयुगान्तर को लाँघती चली जाती है । यही कारण है कि तब से लेकर अब तक महावीर का जीवनदर्शन कोटि-कोटि मनुष्यों के जीवनविकास में दिशानिर्देश का काम करता आ रहा है ।
सृजनात्मक क्रांति
भगवान् महावीर ने जीवन के समग्र पहलुओं पर प्रकाश डाला है । उन्होंने व्यक्ति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्व से लेकर विश्व के विराट् एवं व्यापक तत्त्वों तक की बोधदृष्टि दी है । उनका उपदेश व्यक्ति को वर्तमान समाज से पृथक् करके किसी पारलौकिक सुख के लिए तत्पर करना नहीं था । उनका उपदेश मानव की अन्तरात्मा को प्रबुद्ध करने के लिए था, अंदर में सोये देवत्व को जगाने के लिए था, और था अपने समग्र उचित दायित्वों को शान के साथ पूरा करने के लिए । उन्होंने धर्म एवं समाज के परम्परागत नियमोपनियमों को, पहले से चले आ रहे पुराने मूल्यों को, जो अनुपयोगी हो गए थे, एक सशक्त क्रांति लाकर तोड़ा,
और तत्कालीन जनजीवन के लिए उपयोगी नये मूल्यों को स्थापित किया । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उन्होंने उस युग की परम्परागत
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
54
विश्वज्योति महावीर
अच्छाइयों का भी विरोध किया हो, उपयोगी व्यवस्थाओं को भी ध्वस्त किया हो । वस्तुतः उनका प्रहार न पुराने पर था, न नये पर । उनका प्रहार असत्य पर था, अनुपयोगी पर था, भले ही वह पुराना रहा हो या नया !
सत्य के दो रूप हैं - एक है शाश्वत सत्य और दूसरा है सामयिक सत्य ! शाश्वत सत्य अनादि-अनन्त है, अतः वह नये पुराने की सीमा से परे होता है । न वह कभी नया होता है, न कभी पुराना । अतः उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । परिवर्तन होता है सामयिक सत्य में, क्योंकि वह नये पुराने की परिधि में घिरा रहता है । एक समय का सत्य, दूसरे समय में पुराना पड़ जाता है, अनुपयोगी हो जाता है, अतः वह असत्य हो जाता है । महापुरुष इसी सामयिक सत्य को तोड़कर युगानुरूप नये सामयिक सत्य की स्थापना करते हैं । सामयिक सत्य का ही एक दूसरा रूप है, दैशिक सत्य । एक देश, एक क्षेत्र, एक स्थान में जो सत्य है, वह दूसरे देश, दूसरे क्षेत्र एवं दूसरे स्थान में अपना मूल्य खो देता है । अतः वह परिवर्तित देश-क्षेत्रस्थान में असत्य हो जाता है । महापुरुष इसमें भी देश, क्षेत्र एवं स्थान के अनुसार परिवर्तन करने की सूचना देते हैं । भगवान् महावीर ने शास्वत सत्य में नहीं, सामयिक सत्य में परिवर्तन किया । सामयिक सत्य में भी जो अंश युगानुकूल न होने के कारण अनुपयोगी हो गया था, उसको तोड़ फेंका और उसके स्थान में युगसापेक्ष उपयोगी नये समायिक सत्य की स्थापना की । विश्वहितंकर विराट् आत्माएँ मृत सत्यों को ढोने के लिए नहीं आती । वे आती हैं मृत सत्यों को दफनाकर जीवित सत्यों की प्राण-प्रतिष्ठा करने के लिए । भगवान् महावीर ऐसे ही जीवित सत्य की प्राण-प्रतिष्ठा करने वाले तीर्थंकर थे ।
मानव : देवों का भी देव _भगवान् महावीर का दर्शन मानव की महत्ता का दर्शन है । वे देववादी नहीं, प्रत्युत मानववादी थे । उनका कहना था कि सदाचारी एवं संयमी मानव देवों से भी ऊँचा है । जो मानव सच्चे मन से धर्माचरण करता है, अपने अन्दर
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
55
महावीर का जीवन दर्शन की विकृतियों पर विजय प्राप्त कर लेता है, अपने में सोये हुए दिव्यभाव को जगा लेता है, वह स्वर्ग के देवताओं का भी वन्दनीय देवता हो जाता है । मानव देवों के चरणों में झुकने के लिए नहीं है, अपितु देव ही मानव के चरणों में झुकने के लिए हैं । शर्त है केवल अपने जीवन को परिमार्जित करने की । अहिंसा, संयम
और तप की धर्मज्योति जिसके जीवन में प्रज्वलित हो जाती है, उसके लिए स्वर्ग के वैभव भी तुच्छ हैं, देवता भी उसके पवित्र चरणों में श्रद्धानत हैं । १
यह केवल एक आदर्श ही नहीं था, अपितु यथार्थ सत्य था । एक बार ऐसा हुआ कि देवराज इन्द्र ने अपने स्वर्गीय वैभव का मुक्त प्रदर्शन कर भगवान महावीर के भक्त राजा दशार्णभद्र को अपमानित करने की भूमिका रची । दशार्णभद्र असमंजस में पड़ गया । क्या करे, क्या न करे ? तभी भगवान् महावीर ने कहा- .. दशार्ण, क्या सोचते हो ? तुम मनुष्य हो, देवों से भी महान् ? अपनी अन्तःशक्ति को पहिचानो । जो तुम कर सकते हो, वह इन्द्र नहीं कर सकता । भोग से त्याग पराजित नहीं होता, त्याग से ही भोग पराजति होता है ।" अब क्या था, दशार्णभद्र राज्य ऐश्वर्य का त्याग कर मुनि बन गए । उनके जीवन के कण-कण में वैराग्य की ज्योति जल गई । इन्द्र भौतिक ऐश्वर्य के साथ तो स्पर्धा कर सकता था, किन्तु त्याग-मूलक आध्यात्मिक ऐश्वर्य के समक्ष हतप्रभ था । वह भक्तिगद्गद् हृदय से राजर्षि के चरणों में नतमस्तक हो गया । देवराज इन्द्र ने उस समय कहा था -
सत्यप्रतिज्ञस्त्वं जातो, निर्जितोऽहं पुरन्दरः । गृहीतुमपि चारित्रं, यन्नाहं त्वमिव क्षमः || . .
पुरुषार्थ को जगाओ!
महावीर का युग देववाद का युग था । तत्कालीन जन-जीवन भय एवं प्रलोभन से प्रताड़ित था । जिधर देखो उधर ही जनता दुःखों एवं विपत्तियों से त्राण पाने के लिए देवताओं की ओर भागती फिरती थी । हजारों मन्दिर थे, उनमें हजारों ही यक्ष, भूत, १. देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो । -दशवैकालिक. १११
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
56.
विश्वज्योति महावीर राक्षस आदि के नाम पर देवता प्रतिष्ठित थे । आर्त मानव उन यक्षों, भूतों, राक्षसों एवं देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नाना प्रकार की पूजा रचाते फिरते थे । यज्ञ होते थे, बलियाँ दी जाती थी, मालाएँ जपी जाती थी और यात्राएँ की जाती थी । और तो क्या, शान्तिकर्म के नाम पर मनुष्यों तक का अग्नि में होम कर दिया जाता था । ___मानव में ऐश्वर्य प्राप्ति का दिग्भ्रम भी कुछ कम नहीं था । मनुष्य अपने स्वयं के पुरुषार्थ को भूलकर देवों से ऐश्वर्य की भिक्षा माँगता फिरता था । धन चाहिए तो लक्ष्मी से माँगो । कुबेर से माँगो । राज्यशासन चाहिए तो इन्द्र का आशीर्वाद लो, ब्रह्मा या विष्णु को मनाओ । बुद्धि चाहिए तो सरस्वती को प्रसन्न करो, गणेश को खुश करो । पुत्र चाहिए तो इस देव की उपासना करो, उस देव का वरदान लो । रोग निवृत्ति के लिए, शत्रु संहार के लिए मान प्रतिष्ठा के लिए सब एकमात्र सब कुछ देव ही देव ! मनुष्य स्वयं कुछ नहीं . यह था अपने प्रति हीनभाव ! मनुष्य एक तरह से देवताओं के हाथ का खिलौना बन गया था । .. मैं दीन हूं ! मैं हीन हूँ ! मैं क्षुद्र हुँ ! मैं तुच्छ हूँ ! मैं कुछ नहीं कर सकता ! जो कुछ करेंगे, देवता ही करेंगे ! वे सर्व शक्तिमान हैं, वे महान् हैं !
और मैं ! मैं कुछ नहीं ! कुछ भी नहीं ! इस प्रकार रुदन से भरे निराश एवं हताश जनजीवन में महावीर की दिव्य ध्वनि गूंज उठी - .. मनुष्य, तू क्षुद्र नहीं है, दीन-हीन नहीं है । तू तो अनन्त शक्ति का पुंज है, दिव्यशक्ति का अक्षय स्रोत है । तू क्या नहीं है ? तू सब कुछ है । तू क्या नहीं कर सकता? तू सब कुछ कर सकता है । तू सोया हुआ है, इसीलिए परेशान है, हैरान है । तू जगा नहीं कि सब कुछ जग जाएगा -मति, कृति और शक्ति का कण कण जग जाएगा । कर्म ही तेरा असली देवता है, जो कुछ पाना है अपने स्वयं के कृत कर्म से पाना है । मानव जीवन में दूसरों से लेने-जैसा कुछ नहीं है, जो भी है स्वयं करनेजैसा है । लेने-देने से कुछ नहीं होता, जो होता है, करने से होता है। .. महावीर के कर्मवाद का सन्देश सोते मानव को जगाने के लिए था, अपने स्वयं के पुरषार्थ के बल पर अपने भविष्य का निर्माण करने के लिए था ।
मानव चेतना, जो ईश्वरवाद एवं देववाद के शिकंजे में जकड़ी हुई थी,
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
57
महावीर का जीवन दर्शन पुरुषार्थ, पराक्रम और प्रयोग के स्थान पर सिर्फ प्रार्थना, याचना, नियति और परम्परा के घेरे में बंद थी, उसे सहसा एक झटका दिया, महावीर की पुरुषार्थप्रबोधिनी वाणी ने ।
महावीर का कर्मवाद वास्तव में ईश्वरवाद और देववाद के विरोध में एक सबल मोर्चा था । उन्होंने कहा “जब सब तेरे भीतर है, तो फिर किसी से मांगना क्या ? कर्म कर पुरुषार्थ कर ! जो जैसा बीज बोयेगा, वह वैसा फल भी पायेगा, अवश्य पायेगा । जीवन की खेती में जो सत्कर्म का बीज डालेगा, उसे शुभ, सुन्दर और सुखरूप अच्छा फल मिलेगा । और जो दुष्कर्म के बीज बोयेगा - उसे दुःख, यंत्रणा और पीड़ा रूप बुरा फल मिलेगा । देवता हो, या कोई और हो, कृत कर्मों से छुटकारा नहीं, दिला सकता ।
नैतिकता और सदाचार की मर्यादाएँ जो देववाद के नाम पर शिथिल हो चुकी थीं, महावीर के कर्मवाद से पुनः सुदृढ़ हुईं । समाज में सत्कर्म की प्रेरणाएँ जगीं, भलाई के सुन्दर प्रतिफल और बुराई के दुष्परिणामों से जनता में स्व-कर्म पर विश्वास हुआ । अपना कर्म ही, अपना है, दूसरों के पुण्य से न हमें पुण्य मिलेगा और न दूसरे के पाप से हम पापभागी होंगे - यह है स्व-कर्म-सिद्धान्त, जिसने मानव की पतनोन्मुख नैतिक आस्था को स्थिर किया और उस के आचरण को सदाचार की सीमा में बांधा।
इस प्रकार महावीर का दिव्य संदेश श्रवण कर हजारों ही मानव जाग उठे, अपने को पहचान गए, अपने भाग्य का फैसला खुद करना सीख गए और उन्होंने चिरकाल से चली आई कल्पित -देवों की कल्पित दासता के बन्धनों को तोड़ फेंका।
आध्यात्मिक श्रेष्ठता ____ महावीर ने कहा-भौतिक ऐश्वर्य कर्मानुसार भोगने के लिए तो हो सकता है, पर, वह महत्त्व और अहंकार के लिए नहीं है । मानवआत्मा का महत्त्व भौतिक उपलब्धि में उतना नहीं, जितना आध्यात्मिक उपलब्धि में है । आध्यात्मिक विकास के समक्ष भौतिक विकास नगण्य है, श्रीहीन है । यह अध्यात्मविकास ही है, जो १. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति ।
दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति || -औपपातिक, समवसरण अधिकार
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वज्योति महावीर भौतिक दृष्टि से क्षुद्र मानव को देवताओं का भी देवता बना देता है ।
भगवान् महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि मनुष्य ही संयम की साधना कर सकता है, देवता नहीं । अतएव आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से मनुष्य देवताओं से भी महान् है । मनुष्य ही नहीं, इस दिशा में तो, देवताओं से पशु भी महान् हैं । आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं में देव चतुर्थ भूमिका' तक ही पहुँच पाते हैं, जबकि पशुपंचम भूमिका तक पहुंच सकते हैं । और मनुष्य ? मनुष्य का क्या कहना, वह तो सभी अध्यात्म भूमिकाओं को पार कर चैतन्य से परम चैतन्य की, आत्मा से परमात्मा की - पूर्ण शुद्ध स्थिति तक पहुंच सकता है । मनुष्य के विकास की संभावनाएँ अनन्त हैं, असीम हैं । उनकी इयत्ता नहीं है, सीमा नहीं है । महावीर के दर्शन में ईश्वर भी मानव का सर्वोच्च आध्यात्मिक विकास ही है, इतर और कुछ नहीं ।
ईश्वर कौन है, कहाँ है ? मानव जाति ईश्वर के विषय में काफी भ्रान्त रही है । संभव है, अन्य किसी विषय में उतनी भ्रान्त न रही हो, जितनी कि ईश्वर के विषय में रही है ! कुछ धर्मों ने ईश्वर को एक सर्वोपरि प्रभुसत्ता के रूप में माना है । वे कहते हैं : “ईश्वर एक है अनादिकाल से वह सर्वसत्ता संपन्न एक ही चला आ रहा है । दूसरा कोई ईश्वर नहीं है। नहीं क्या ? दूसरा कोई ईश्वर हो ही नहीं सकता । वह ईश्वर अपनी इच्छा का राजा है । जो चाहता है, वही करता है । वह असंभव को संभव कर सकता है, और संभव को असंभव ! जो हो सकता है, उसे न होने दे, और जो नहीं हो सकता, उसे करके दिखा दे।” जो किसी अन्य रूप में होने जैसा हो, उसे किसी अन्य, सर्वथा विपरीत रूप में कर दे । ऐसा है ईश्वर का तानाशाही व्यक्तित्व, जिसे एक ईश्वरभक्त ने “कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थः" कहा है । वह जगत् का निर्माता है, संहर्ता है, एक क्षण में वह विराट् विश्व को बना सकता है, और एक क्षण में उसे नष्ट भी कर सकता है । उसकी लीला का कुछ पार नहीं है । उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल १ चतुर्थ गुणस्थान
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर का जीवन दर्शन
59 सकता । और वह रहता कहाँ है ? किसी का ईश्वर वैकुण्ठ में रहता है, किसी का ब्रह्मलोक में तो किसी का सातवें आसमान पर रहता है, तो किसी का समग्र विश्व में व्याप्त है।
ईश्वरीय सत्ता की उक्त स्थापना ने मनुष्य को पंगु बना दिया है । उसने मानव में पराश्रित रहने की दुर्बल मनोवृत्ति पैदा की है । देववाद के समान ही ईश्वरवाद भी मानव को भय एवं प्रलोभन के द्वार पर लाकर खड़ा कर देता है । वह ईश्वर से डरता है, फलतः उसके प्रकोप से बचने के लिए वह नाना प्रकार के विचित्र क्रियाकाण्ड करता है । स्तोत्र पढ़ता है, माला जपता है, यज्ञ करता है, मूक पशुओं की बलि देता है । वह समझता है कि इस प्रकार करने से ईश्वर मुझ पर प्रसन्न रहेगा, मेरे सब अपराध क्षमा कर देगा, मुझे किसी प्रकार का दण्ड न देगा । इस तरह ईश्वरीय उपासना मनुष्य को पापाचार से नहीं बचाती, अपितु पापाचार के फल से बच निकलने की दूषित मनोवृत्ति को बढ़ावा देती है । मनुष्य को कर्त्तव्यनिष्ठ नहीं, अपितु खुशामदी बनाती है ।
यही बात प्रलोभन के सम्बन्ध में है । मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न्यायोचित प्रयत्न करना चाहिए, जो पाना है, उसके लिए अपने पुरुषार्थ पर भरोसा रखना चाहिए । परंतु ईश्वरवाद मनुष्य को इसके विपरीत आलसी, निष्कर्मण्य एवं भिखारी बनाता है । अतएव मानव हर आवश्यकता के लिए ईश्वर से भीख माँगने लगा है । वह समझता है, यदि ईश्वर प्रसन्न हो जाए तो बस कुछ का कुछ हो सकता है । ईश्वर के बिना मेरी भाग्य लिपि को कौन पलट सकता है ? कोई नहीं । और उक्त प्रलोभन से प्रभावित मनोवृत्ति का आखिर यही परिणाम होता है कि जैसे भी हो, ईश्वर को प्रसन्न किया जाय और अपना मतलब साधा जाय !
आत्मा ही, परमात्मा है
भगवान् महावीर ने प्रस्तुत सन्दर्भ में मानव को एक नयी दृष्टि दी । उन्होंने कहा-मानव ! विश्व में तू ही सर्वोपरि है । यह दीनता और हीनता तेरे स्वयं के अज्ञान का दुष्फल है । जो तू अच्छा-बुरा कुछ भी पाता है, वह तेरा
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
60
विश्वज्योति महावीर
अपना किया हुआ होता है, किसी का दिया हुआ नहीं होता । तू ईश्वर की सृष्टि नहीं हैं, बल्कि ईश्वर ही तेरी सृष्टि है । ईश्वर का अस्तिव है, परन्तु वह मनुष्य से भिन्न कोई परोक्ष सत्ता नहीं है । ईश्वर शासक है और मनुष्य शासित, ऐसा कुछ नहीं है । मानवीय चेतना का चरम विकास ही ईश्वरत्व है । ईश्वर कोई एक व्यक्तिविशेष, नहीं, अपितु एक आध्यात्मिक भूमिका विशेष है, जिसे हर कोई मानव प्राप्त कर सकता है । ईश्वरत्व की स्थिति पाने के लिए न किसी तथा कथित देश का बन्धन है, न किसी जाति, कुल और पन्थ-विशेष का । जो भी मनुष्य आध्यात्मिक विकास की उच्च भूमिका तक पहुंच जाता है, रागद्वेष के विकारों से अपने को मुक्त कर लेता है, स्व में स्व की लीनता प्राप्त कर लेता है, वह परमात्मा हो जाता है । भगवान् महावीर का कहना था कि हर आत्मा शक्तिरूप से तो अब भी ईश्वर है, सदा ही ईश्वर है । आवश्यकता है उस शक्ति को अभिव्यक्ति देने की । हर बिन्दु में सिन्धु छिपा है । सिन्धु का क्षुद्र रूप बिन्दु है, बिन्दु का विराट् रूप सिन्धु है । मानवीय चेतना जब क्षुद्र रहती है, राग-द्वेष के बन्धन में बद्ध रहती है, तब वह एक साधारण संसारी प्राणी की अशुद्ध औपाधिक चेतना है । परन्तु जब चेतना विकृति-शून्य होती है, आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च सीमा पर पहुंचती है, तो वह परम शुद्ध चेतना बन जाती है, परमात्मा हो जाती है । परमात्मा मूलतः और कुछ नहीं है, सदा-सदा के लिए चेतना का शुद्ध हो जाना ही परमात्मा होना है ।
आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया
संसार-भूमिका पर खड़ी बद्ध-चेतना अन्दर में दुर्बलताओं का शिकार होती है, अतः वह अन्तर्मन के सागर में तरंगायित होने वाले विकृति रूप विकल्पों के आदेशों का पालन करती है, उनके निर्दिष्ट मार्गों का अनुसरण करती है । तन और मन की कुछ सुविधाओं को पाकर वह सन्तुष्ट हो जाती है । परन्तु चेतना के सूक्ष्म अन्तःस्तर पर जब परिवर्तन होता है, जब उसमें अधोमुखता से ऊर्ध्वमुखता आती है, तब जीवन के समग्र तोष-रोष अर्थात् राग-द्वेष समाप्त हो जाते है, आत्मानन्द की शाश्वत धारा प्रवाहित हो जाती है,
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर का जीवन दर्शन
61 और इस प्रकार चेतना अनन्त प्रज्ञा में परिवर्तित एवं विकसित होकर परमात्मा हो जाती है । चेतना का शुद्ध रूप ही प्रज्ञा है, जिसे दर्शन की भाषा में ज्ञानचेतना कहते हैं । बाहर के किसी प्रभाव को ग्रहण न करना ही अर्थात् राग या द्वेष रूप में प्रभावित न होना ही चेतना का प्रज्ञा हो जाना है, ज्ञानचेतना हो जाना है । यही आध्यात्मिक पवित्रता है, वीतरागता है, जो आत्मचेतना को परमात्मचेतना में रूपान्तरित करती है, जन से जिन और नर से नारायण बना देती है । यह विकासप्रक्रिया क्रमिक है । जितनाजितना प्रज्ञा के द्वारा चेतना का जड़ के साथ चला आया रागात्मक संपर्क टूटता जाता है, जितना-जितना भेदविज्ञान के आधार पर जड़ और चेतना का विभाजन गहरा और गहरा होता जाता है, उतनी-उतनी चेतना में परमात्मस्वरूप की अनुभूति स्पष्ट होती जाती है । अध्यात्म भाव की इस विकासप्रक्रिया को महावीर ने गुणस्थान की संज्ञा दी है । चेतन अज्ञान दशा से मुक्ति पाने और 'स्व' में प्रतिष्ठित होने के लिए जिस प्रकार ऊर्ध्वगति करता है, उसके क्रमिक गतिक्रम या विकास क्रम को ही गुणस्थान कहा गया है । चेतन की शुद्ध-शुद्धतर शुद्धतम भूमिका ही गुणस्थान की आरोहण पद्धति है।
आत्मा से परमात्मा होने की विकासप्रक्रिया के सम्बन्ध में महावीर ने स्पष्ट घोषणा की है कि परमात्मा विश्वप्रकृति का द्रष्टा है, स्रष्टा नहीं । स्रष्टा स्वयं विश्वप्रकृति है । विश्वप्रकृति के दो मूल तत्त्व हैं - जड़ और चेतन । दोनों ही अपने अन्दर में कर्तृत्व की वह शक्ति लिए हैं, जो स्वभाव से विभाव और विभाव से स्वभाव की ओर गतिशील रहती है । पर के निमित्त से होने वाली कर्तृत्व शक्ति विभाव है, और पर के निमित्त से रहित स्वयंसिद्ध सहज कर्तृत्वशक्ति स्वभाव है । जब चेतनातत्त्व पूर्ण शुद्ध होकर परमात्मचेतना का रूप लेता है, तब वह पराश्रितता से मुक्त हो जाता है, पर के कर्तृत्व का विकल्प उसमें नहीं रहता, 'स्व' अपने ही 'स्व' रूप में पूर्णतया समाहित हो जाता है । यह चेतना की विभाव से स्वभाव में पूरी तरह वापस लौट आने की अन्तिम स्थिति है । और यह स्थिति ही वह परमात्म सत्ता है, जो मानव जीवन की सर्वोत्तम शुद्ध चेतना में प्रतिष्ठित है।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वज्योति महावीर
इस प्रकार भगवान् महावीर ने संसार की अन्धेरी गलियों में भटकते मनुष्य को जीवनशुद्धि का दिव्य सन्देश देकर उसे अनंत ज्योतिर्मय ईश्वर के पदपर प्रतिष्ठित किया । महावीर ईश्वर को, जैसा कि कुछ लोग मान रहे थे, शक्ति और शासन का प्रतीक नहीं, अपितु शुद्धि का प्रतीक मानते थे । उनका कहना था कि मानव आत्मा जब पूर्ण शुद्धि की भूमिका पर जा पहुंचती है, तो वह सिद्ध हो जाती है, आत्मा से परमात्मा हो जाती है । इस तरह महावीर ने ईश्वर सत्ता को नकारा नहीं, किन्तु प्राणिमात्र में ईश्वर सत्ता की स्वीकृति दी है और उसे विकसित करने का मार्ग बताया है ।
62
मानव-मानव एक समान
1
I
भगवान् महावीर की व्यापक दृष्टि में मानव केवल मानव था, और कुछ नहीं । वे मानव जाति को एक अखण्ड समाज के रूप में देखते थे । उनका कहना था कि ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र, मानवता की दृष्टि से उनमें कुछ भी अन्तर नहीं है । सभी मानवों का जन्म एक ही तरह से होता है । सबके शरीर रक्त, मांस, मज्जा और ओज के पिण्ड हैं, मल मूत्र से भरे हैं । अतः जन्म की दृष्टि से न कोई ऊँचा है, न कोई नीचा है । सब मानव एक हैं, एक समान हैं । जन्म से किसी को पवित्र और किसी को अपवित्र मानना, मानवता का अपमान है । विभिन्न जातियों के रूप में मनुष्यों का विभाजन, यदि ऊँच-नीच के आधार पर होता है, तो वह सर्वथा अमानवीय है । इस प्रकार का विभाजन मावसमाज में परस्पर घृणा और वैर को जन्म देता है ।
मानव जाति के उत्थान और पतन का इतिहास बताते हुए युग-द्रष्टा भगवान महावीर ने कहा था, प्राचीन आदिम युग में, जो अकर्मभूमि युग था, सब मानव एक समान थे । वे केवल मानव नाम से ही सम्बोधित होते थे । उस युग में न को ब्राह्मण था, न क्षत्रिय था, न वैश्य था और न कोई शूद्र ही था । न कोई ऊँचा था और न कोई नीचा था। आगे चलकर जब कर्मभूमियुग का आरम्भ हुआ तो अपने-अपने कर्त्तव्य-कर्म के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय
.
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
63
महावीर का जीवन दर्शन आदि वर्ग बन गए । यह मात्र कर्म का विभाजन था, जो समाज कल्याण की दृष्टि से मानव की कर्मचेतना को विकासपथ पर व्यवस्थित रूप देने के लिए था । उक्त विभाजन में उस समय ऊँच-नीच या पवित्र अपवित्र जैसी कोई कल्पना नहीं थी।
महावीर के उपर्युक्त मानव-इतिहास-सम्बन्धी विश्लेषण का यह अर्थ है कि मानव मूल में केवल मानव था । कर्मयुग के आरंभ होने पर कर्त्तव्य-कर्म के अनुसार जो ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के वर्ग बने, वे सामाजिक दायित्वों की पूर्ति के लिए थे । उनका कुछ और अर्थ नहीं था । आगे चलकर पवित्रअपवित्र तथा ऊँच-नीच आदि की कल्पना का जो नग्न ताण्डव हुआ, जिसके कारण मानव समाज खण्ड-खण्ड हो गया, शूद्र एवं अन्त्यज कहा जानेवाला एक वर्ग अमानवीय अन्याय-अत्याचारों का शिकार हुआ, उसका कारण कुछ लोगों का अपना अपना निहित स्वार्थ और अहंकार था, अन्य कुछ नही ।
प्रायः होता ऐसा है कि सेवा कराने वाला शासक हो जाता है और सेवा करने वाला शासित । और शासक वर्ग जब प्रभुसत्ता के घोर अहंचक में उलझ जाता है, तो अन्ततः उसका यह कुफल होता है कि वह अपने को महान् और दूसरों को हीन समझने लगता है । भारत में जातीय उच्चता व नीचता की भावना का यही एक मूल कारण है ।
मानवीय गरिमा का दर्शन आज के ये छुआछूत, ऊँच-नीच, सवर्ण-अवर्ण आदि जाति प्रथा के जितने भी दुर्विकल्प हैं, उनका महावीर के दर्शन में कुछ भी स्थान नहीं है। महावीर का दर्शन मानवीय गरिमा का दर्शन है । ऐसी कोई भी व्यवस्था, जिसमें मानवीय प्रतिष्ठा का गौरवमय विकास संभव न हो, महावीर को स्वीकार नहीं है । न जन्म से स्वीकार है, न कर्म से स्वीकार है । सभी मानवों का जन्म से प्राप्त शरीर एक जैसा होता है - वही ब्राह्मण का, वही क्षत्रिय का, वही वैश्य का और वही शूद्र आदि का । अतः उसमें पवित्र-अपवित्र और ऊँच-नीच आदि के भेद प्रभेद कैसे हो सकते हैं ?
अब रहा कर्म का प्रश्न । अपने वैयक्तिक जीवन की या सामाजिक
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
64
विश्वज्योति महावीर जीवन की तथाकथित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किये जाने वाले कर्म भी अपने कर्ता के ऊँच-नीचपन के द्योतक नहीं है । कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अध्ययन अध्यापन का काम करता है, दूसरा, नगर की स्वच्छतासफाई आदि का । क्या अध्ययन अध्यापन अपने में एक पवित्र कर्म है, और नगर की स्वच्छता-सफाई आदि अपवित्र कर्म है ? कर्म यदि उपयोगी है, वह सामाजिक कल्याण की दिशा में कुछ प्रगति प्रदान करता है, तो वह फिर कोई भी कर्म क्यों न हो, पवित्र है । यदि कर्म अनुपयोगी है, सामाजिक कल्याण की दिशा में अपना कुछ भी योगदान नहीं करता है, अपितु मानव समाज का अहित करता है, तो वह फिर कोई भी कर्म क्यों न हो, अपवित्र होता है, उसका अपना अन्दर का रूप, कर्ता के मन का अपना वैचारिक अन्तरंग ! अतएव महावीर सामाजिक उत्थान एवं निर्माण के प्रत्येक कार्य को पवित्र मानते थे। उनकी दृष्टि में मानव अपिवत्र नही, मानव का अनाचार, दुराचार अपवित्र था । हिंसा, घृणा, वैर, असत्य, दंभ, चोरी, व्यभिचार आदि अनैतिक आचारण अपवित्र हैं, फिर भले ही उक्त दुराचरणों को कोई ब्राह्मण करे, क्षत्रिया करे, वैश्य या शूद्र करे, इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता । भगवान् महावीर के दर्शन में सदाचार पवित्र कर्म है, और दुराचार अपवित्र । ऊँच-नीच की कसौटी मनुष्य का अपना नैतिक और अनैतिक जीवन है, न कि जीवनोपयोगी अपने कर्म, अपने पुरुषार्थ, अपने प्रयत्न ।
महावीर का जीवनदर्शन अखण्ड चेतना का दर्शन है, मानवीय गरिमा का दर्शन है । मानव को मानव रूप में प्रतिष्ठित देखने का दर्शन है । और मानव ही क्यों, वह चैतन्य मात्र को अखण्ड एवं अभेद दृष्टि से देखता है । उसकी चैतन्य मात्र के प्रति अद्वैत भाव की उदात्त एकत्व-बुद्धि है । अस्तु, जो दर्शन 'एगे आया' का महान उद्घोष करता है, जो प्राणिमात्र में एक समान आत्मतत्त्व का वास्तविक दर्शन करता है, जो यह कहता है कि विश्व का समग्र चैतन्य तत्त्व एक-जैसा है, वह मानव मानव में स्पृश्य-अस्पृश्य की, ऊँच-नीच की, पवित्र-अपवित्र की तथ्यहीन मान्यता को कैसे प्रश्रय दे सकता है ?
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वशांति
छह
के
तीन सूत्र
१. अहिंसा:
भगवान् महावीर का अहिंसाधर्म एक उच्चकोटि का आध्यात्मिक एवं सामजिक धर्म है । यह मानव जीवन को अन्दर और बाहर-दोनों ओर से प्रकाशमान करता है । महावीर ने अहिंसा को भगवती कहा है । मानव की अन्तरात्मा को, अहिंसा भगवती, बिना किसी बाहरी दबाव, भय, आतंक अथवा प्रलोभन के सहज अन्तःप्रेरणा देती है कि मानव विश्व के अन्य प्राणियों को भी अपने समान ही समझे, उनके प्रति बिना किसी भेद-भाव के मित्रता एवं बन्धुता का का प्रेमपूर्ण व्यवहार करे । मानव को जैसे अपना अस्तित्व प्रिय है, अपना सुख प्रिय एवं अभीष्ट है यह सह-अस्तित्वरूप परिबोध ही अहिंसा का मूल स्वर है । अहिंसा 'स्व' और 'पर' की 'अपने' और 'पराये की,घृणा एवं वैर के आधार पर खड़ी की गई भेदरेखा को तोड़ देती है ।
अहिंसा का धरातल
अहिंसा विश्व के समग्र चैतन्य को एक धरातल पर खड़ा कर देती है । अहिंसा समग्र जीवन में एकता देखती है, सब प्राणियों में
वेतन्याको काराला
१ सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया ।आचारांग १।२।३
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वज्योति महावीर
-
समानता पाती है । इसी दृष्टि को स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था 'एगे आया' आत्मा एक है, एक रूप है, एक समान है । चैतन्य के जाति, कुल, समाज, राष्ट्र, स्त्री, पुरुष आदि के रूप में जितने भी भेद हैं, वे सब आरोपित भेद हैं, बाह्य निमित्तों के द्वारा परिकल्पित किये गए मिथ्या भेद हैं । आत्माओं के अपने मूल स्वरूप में कोई भेद नहीं है । और जब भेद नहीं है तो फिर मानवजाति में यह कलह एवं विग्रह कैसा ? त्रास एवं संघर्ष कैसा ? घृणा एवं वैर कैसा ? यह सब भेदबुद्धि की देन है । और अहिंसा में भेद बुद्धि के लिए कोई स्थान नहीं है । अहिंसा और भेदबुद्धि में न कभी समन्वय हुआ है और न कभी होगा । आज जो विश्व नागरिक की कल्पना कुछ प्रबुद्ध मास्तिष्कों में उड़ान ले रही है, जयजगत् का उद्घोष मुखरित हो रहा है, उसको अहिंसा के द्वारा ही मूर्तरूप मिल सकता है ।
66
अहिंसा की प्रक्रिया
अहिंसा मानव जाति को हिंसा से मुक्त करती है । वैर, वैमनस्य द्वेष, कलह, घृणा, ईर्ष्या- डाह, दुःसंकल्प, दुर्वचन, क्रोध, अभिमान, दम्भ, लोभ, लालच, शोषण, दमन आदि जितनी भी व्यक्ति और समाज की ध्वंसमूलक विकृतियाँ हैं, सब हिंसा के ही रूप हैं। मानव मन हिंसा के उक्त विविध प्रहारों से निरन्तर घायल होता आरहा है । मानव उक्त प्रहारों के प्रतिकार के लिए भी कम प्रयत्नशील नहीं रहा है । परन्तु वह प्रतिकार इस लोकोक्ति को ही चरितार्थ करने में लगा रहा कि ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही गया । बात यह हुई कि मानव ने वैर का प्रतिकार वैर से, दमन का प्रतिकार दमन से करना चाहा, अर्थात् हिंसा का प्रतिकार हिंसा से करना चाहा, और यह प्रतिकार की पद्धति ऐसी ही थी, जैसी कि आग को आग से बुझाना, रक्त से सने वस्त्र को रक्त से
I
धोना । वैर से वैर बढ़ता है, घटता नहीं है । घृणा से घृणा बढ़ती है, घटती नहीं है । यह उक्त प्रतिकार ही था, जिसमें से युद्ध का जन्म हुआ, सूली और फाँसी का आविर्भाव हुआ । लाखों ही नहीं, करोड़ों मनुष्य भयंकर से भयंकर उत्पीड़न के शिकार हुए, निर्दयता के साथ मौत के घाट उतार दिए गए, परन्तु समस्या ज्यों-की-त्यों सामने खड़ी रही । मानव को कोई भी ठीक समाधान
AAJ
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
67
विश्वशांति के तीन सूत्र नहीं मिला । हिंसा का प्रतिकार हिंसा से नहीं, अहिंसा से होना चाहिए था, घृणा का प्रतिकार घृणा से नहीं, प्रेम से होना चाहिए था । आग का प्रतिकार आग नहीं, जल है । जल ही जलते दावानल को बुझा सकता है । इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था “क्रोध को क्रोध से नहीं क्षमा से जीतो । अहंकार को अहंकार से नहीं, विनय एवं नम्रता से जीतो । दंभ को दंभ से नहीं, सरलता और निश्छलता से जीतो । लोभ को लोभ से नहीं, सन्तोष से जीतो, उदारता से जीतो ।" इसी प्रकार भय को अभय से, घृणा को प्रेम से जीतना चाहिए । और विजय की यह सात्त्विक प्रक्रिया ही अहिंसा है । अहिंसा प्रकाश की अन्धकार पर, प्रेम की घृणा पर, सद्भाव की वैर पर, अच्छाई की बुराई पर विजय का अमोघ उद्घोष है।
___ अहिंसा की दृष्टि
भगवान् महावीर कहते थे वैर हो, घृणा हो, दमन हो, उत्पीड़न होकुछ भी हो, अंततः सब लौटकर कर्ता के ही पास आते हैं । यह मत समझो कि बुराई वहीं रह जाएगी, तुम्हारे पास लौट कर नहीं आएगी । वह आएगी, अवश्य आएगी, कृतकर्म निष्फल नहीं जाता है । कुएँ में की ध्वनि प्रतिध्वनि के रूप में वापस लौटती है । और भगवान् महावीर तो यह भी कहते थे कि वह और तू कोई दो नहीं हैं । चैतन्य चैतन्य एक है । जिसे तू पीड़ा देता है, वह और कोई नहीं, तू ही तो है । भले आदमी, तू दूसरे को सताता है तो सचमुच दूसरे को नहीं, अपने को ही सताता है । इस सम्बन्ध में आचारांग सूत्र में आज भी उनका एक प्रवचन उपलब्ध है -
जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है । जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है । जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है ।
यह भगवान् महावीर की अद्वैतदृष्टि है, जो अहिंसा का मूलाधार है ।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
68
विश्वज्योति महावीर
भगवान् महावीर की अहिंसा भगवान महावीर ने अहिंसा को केवल आदर्श ही नहीं दिया, अपने जीवन में उतार कर उसकी शत-प्रतिशत यथार्थता भी प्रमाणित की । उन्होंने अहिंसा के सिद्धान्त और व्यवहार को एक करके दिखा दिया । उनका जीवन उनके अहिंसायोग के महान् आदर्श का ही एक जीता-जागता मूर्तिमान परिदर्शन था । विरोधी से विरोधी के प्रति भी उनके मन में कोई घृणा नहीं थी, कोई द्वेष नहीं था । वे उत्पीड़क एवं घातक विरोधी के प्रति भी मंगल कल्याण की पवित्र भावना ही रखते रहे । संगम जैसे भयंकर उपसर्ग देने वाले व्यक्ति के लिए भी उनकी आँखें करुणा से गीली हो आई थीं । वस्तुतः उनका कोई विरोधी था ही नहीं । उनका कहना था - विश्व के सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, मेरा किसी के भी साथ कुछ भी वैर नहीं है - 'मित्ती में सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणई ।'
भगवान् महावीर का यह मैत्रीभावमूलक अहिंसाभाव इस चरम कोटि पर पहुंच गया था कि उन के श्री चरणों में सिंह और मृग, नकुल और सर्प-जैसे प्राणी भी अपना जन्मजात वैर भुला कर सहोदर बन्धु की तरह एक साथ बैठे रहते थे । न सबल में क्रूरता की हिंस्रवृत्ति रहती थी, और न निर्बल में भय, भय की आशंका । दोनों और एक जैसा स्नेह का, सद्भाव का व्यवहार ! इसी सन्दर्भ में यह प्राचीन उक्ति है कि भगवान् के समवसरण में सिंहिनी का दूध मृगशिशुपीता रहता, और हिरनी का सिंहशिशु - 'दुग्धं मृकेन्द्रवनितास्तनजं पिबन्ति ।' भारत के आध्यात्मिक जगत् का वह महान् एवं चिरंतन सत्य, भगवान् महावीर के जीवन पर से साक्षात् साकार रूप में प्रकट हो रहा था कि साधक के जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा-पूर्ण जागृति होने पर उस के समक्ष जन्मजात वैरवृत्ति के प्राणी भी अपना वैर त्याग देते हैं, प्रेम की निर्मल धारा में अवगाहन करने लगते हैं । 'अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ।'
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वशांति के तीन सूत्र
२.
अपरिग्रह :
भगवान् महावीर के चिन्तन में जितना महत्व अहिंसा को मिला, उतना ही अपरिग्रह को भी मिला । उन्होंने अपने प्रवचनों में जहां-जहां आरंभ(हिंसा) का निषेध किया, वहां-वहां परिग्रह का भी निषेध किया है । चूँकि मुख्यरूपेण परिग्रह के लिए ही हिंसा की जाती है, अतः अपरिग्रह अहिंसा की पूरक साधना है ।
69
परिग्रह क्या है ?
प्रश्न खड़ा होता है, परिग्रह क्या है ? उत्तर आया होगा-धन-धान्य, वस्त्र - भवन, पुत्र- परिवार और अपना शरीर यह सब परिग्रह है। इस पर एक प्रश्न खड़ा हुआ होगा कि यदि ये ही परिग्रह हैं तो फिर इनका सर्वथा त्यागकर कोई कैसे जी सकता है ? जब शरीर भी परिग्रह है, तो कोई अशरीर बनकर
-
I
, क्या यह संभव है ? फिर तो अपरिग्रह का आचरण असंभव है । असंभव और अशक्य धर्म का उपदेश भी निरर्थक है !
भगवान महावीर ने हर प्रश्न का अनेकांत दृष्टि से समाधान दिया है । परिग्रह की बात भी उन्होंने अनेकांत दृष्टि से निश्चित की और कहा-वस्तु, परिवार और शरीर परिग्रह है भी और नहीं भी । मूलतः वे परिग्रह नहीं हैं, क्योंकि वे तो बाहर में केवल वस्तु रूप हैं । परिग्रह एक वृत्ति है, जो प्राणी के अन्तरंग चेतना की एक अशुद्ध स्थिति है, अतः जब चेतना बाह्य वस्तुओं में आसक्ति, मूर्च्छा, ममत्व (मेरापन) का आरोप करती है । तभी वे परिग्रह होते हैं, अन्यथा नहीं । इसका अर्थ है-वस्तु में परिग्रह नहीं, भावना में ही परिग्रह है। ग्रह एक चीज है, परिग्रह दूसरी चीज है । ग्रह का अर्थ उचित आवश्यकता के लिए किसी वस्तु को उचित रूप में लेना एवं उसका उचित रूप में ही उपयोग करना । और परिग्रह का अर्थ है - अनुचित का विवेक किए बिना आसक्ति -रूप में वस्तुओं को सब ओर से पकड़ लेना, जमा करना, और उनका मर्यादाहीन गलत असामाजिक रूप में उपयोग करना । वस्तु न भी हो, यदि उसकी आसक्तिमूलक मर्यादाहीन अभीप्सा है तो वह भी परिग्रह है । इसीलिए महावीर ने कहा था- 'मुच्छा परिग्गहो' मूर्च्छा, मन की ममत्वदशा
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
70
विश्वज्योति महावीर ही वास्तव में परिग्रह है । जो साधक ममत्व से मुक्त हो जाता है, वह सोने चांदी के पहाड़ो पर बैठा हुआ भी अपरिग्रही कहा जा सका है । इस प्रकार भगवान् महावीर ने परिग्रह की, एकान्त जड़वादी परिभाषा को तोड़कर उसे भाववादी, चैतन्यवादी परिभाषा दी ।
.. अपरिग्रह का मौलिक अर्थ भगवान् महावीर ने बताया, अपरिग्रह का सीधा सादा अर्थ है - निस्पृहता, निरीहता । इच्छा ही सबसे बड़ा बंधन है, दुःख है । जिसने इच्छा का निरोध कर दिया - उसे मुक्ति मिल गई । इच्छा मुक्ति ही वास्तव में संसारमुक्ति है । इसलिए सबसे प्रथम इच्छाओं पर, आकांक्षाओं पर संयम करने का उपदेश महावीर ने दिया । बहुत से साधक, जिनकी चेतना इतनी प्रबुद्ध होती है कि वे अपनी संपूर्ण इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, महाव्रती-संयमी के रूप में पूर्ण अपरिग्रह के पथ पर बढ़ते हैं । किंतु इससे अपरिग्रह केवल संन्यास क्षेत्र की ही साधना मात्र बनकर रह जाता है, अतः सामाजिक क्षेत्र में अपरिग्रह की अवतारणा के लिए उसे गृहस्थधर्म के रूप में भी एक परिभाषा दी गई । महावीर ने कहा सामाजिक प्राणी के लिए इच्छाओं का संपूर्ण निरोध, आसक्ति का समूल विलय-यदि संभव न हो, तो वह आसक्ति को क्रमशः कम करने की साधना कर सकता है, इच्छाओं को सीमित करके ही वह अपरिग्रह का साधक बन सकता है ।
इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं, उनका जितना विस्तार करते जाओ, वे उतनी ही व्यापक,असीम बनती जाएँगी, और उतनी हो चिंताएँ, कष्ट, अशांति बढ़ती जाएँगी । इच्छाएँ सीमित होंगी, तो चिंता और अशांति भी कम होंगी । इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए महावीर ने इच्छापरिमाणव्रत का उपदेश किया । यह अपरिग्रह का सामाजिक रूप था । बड़े-बड़े धनकुबेर श्रीमंत एवं सम्राट् भी अपनी इच्छाओं को सीमित-नियंत्रित कर मन को शांत एवं प्रसन्न रख सकते हैं । और साधनहीन साधारण लोग भी, जिनके पास सर्वग्राही लंबे चौड़े साधन तो नहीं होते, पर इच्छाएँ असीम दौड़ लगाता रहती हैं, वे भी इच्छापरिमाण के द्वारा समाजोपयोगी उचित आवश्कताओं की पूर्ति करते हुए भी अपने अनियंत्रित इच्छाप्रवाह के सामने अपरिग्रह का एक आन्तरिक अवरोध खड़ा कर उसे रोक सकते हैं ।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
71
विश्वशांति के तीन सूत्र
इच्छापरिमाण-एक प्रकार से स्वामित्व-विसर्जनकी प्रक्रिया थी । महावीर के समक्ष जब वैशाली का आनन्द श्रेष्ठी इच्छापरिमाण व्रत का संकल्प लेने उपस्थित हुआ, तो महावीर ने बताया-तुम अपनी आवश्यकताओं को सीमित करो, जो अपार-साधन सामग्री तुम्हारे पास है, उसका पूर्ण रूप में नहीं तो उचित सीमा में विसर्जन करो । एक सीमा से अधिक अर्थ- धन पर अपना अधिकार मत रखो, आवश्यक क्षेत्र, वास्तु रूप भूमि से अधिक भूमि पर अपना स्वामित्व मत रखो, इसी प्रकार पशु, दास-दासी आदि को भी अपने सीमाहीन अधिकार से मुक्त करो ।
स्वामित्वविसर्जन की यह सात्विक प्रेरणा थी, जो समाज में संपत्ति के आधार पर फैली अनर्गल विषमताओं का प्रतिकार करने में सफल सिद्ध हुई। मनुष्य जब आवश्यकता से अधिक संपत्ति व वस्तु के संग्रह पर से अपना अधिकार हटा लेता है, तो वह समाज और राष्ट्र के उपयोग के लिए उन्मुक्त हो जाती है, इसप्रकार अपने आप ही एक सहज समाजवादी अन्तरप्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।
भोगोपभोग एवं दिशा-परिमाण मानव सुखाभिलाषी प्राणी है । वह अपने सुख के लिए नाना प्रकार के भोगोपभोगों की परिकल्पना के माया जाल में उलझा रहता है । यह भोग बुद्धि ही अनर्थ की जड़ है । इसके लिए ही मानव अर्थ संग्रह एवं परिग्रह के पीछे पागल की तरह दौड़ रहा है । जब तक भोगबुद्धि पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक परिग्रह-बुद्धि से मुक्ति नहीं मिलेगी ।
- यह ठीक है कि मानव जीवन भोगोपभोग से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता । शरीर है, उसकी कुछ अपेक्षाएँ हैं। उन्हें सर्वथा कैसे ठुकराया जा सकता है । अतः महावीर आवश्यक भोगोपभोग से नहीं, अपितु अमर्यादित भोगोपभोग से मानव की मुक्ति चाहते थे । उन्होंने इसके लिए भोग के सर्वथा त्याग का व्रत न बताकर, भोगोपभोग परिमाण का व्रत बताया है । भोग
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
72
विश्वज्योति महावीर परिग्रह का मूल है, ज्योंही भोग यथोचित आवश्यकता की सीमा में आबद्ध होता है, परिग्रह भी अपने आप सीमित हो जाता है । इस प्रकार महावीर द्वारा उपदिष्ट भोगोपभोगपरिमाण व्रत में से अपरिग्रह स्वतः फलित हो जाता है ।
महावीर ने अपरिग्रह के लिए दिशा परिमाण और देशावकासिक व्रत भी निश्चित किए थे । इन व्रतों का उद्देस्य भी आस पास के देशों एवं प्रदेशों पर होने वाले अनुचित व्यापारिक, राजकीय एवं अन्य शोषणप्रधान आक्रमणों से मानव समाज को मुक्त करना था । दूसरे देशों की सीमाओं, अपेक्षाओं एवं स्थितियों का योग्य विवेक रखे बिना भोग-वासना पूर्ति के चक्र में इधर उधर अनियंत्रित भाग-दौड़ करना, महावीर के साधना क्षेत्र में निषिद्ध था । आज के शोषणमुक्त समाज की स्थापना के विश्व मंगल उद्घोष में, इसप्रकार महावीर का चिन्तन-स्वर पहले से ही मुखरित होता आ रहा है ।
.. परिग्रह का परिष्कार, दान पहले के संचित परिग्रह की चिकित्सा उसका उचित वितरण है । प्राप्त साधनों का जनहित में विनियोग दान है, जो भारत की विश्व मानव को एक बहुत बड़ी देन है किन्तु स्वामित्व विसर्जन की उक्त दान-प्रक्रिया में कुछ विकृतियां आगईं थीं, अतः महावीर ने चालू दानप्रणाली में भी संशोधन प्रस्तुत किया । महावीर ने देखा, लोग दान तो करते हैं, किंतु दान के साथ उनके मन में आसक्ति एवं अहंकार की भावनाएँ भी पनपती हैं । वे दान का प्रतिफल चाहते हैं - यश, कीर्ति, बड़प्पन, स्वर्ग और देवताओं की प्रसन्नता ! आदमी दान तो देता था, पर वह याचक की विवशता या गरीबी के साथ प्रतिष्ठा और स्वर्ग का सौदा भी कर लेना चाहता था । इस प्रकार का दान समाज में गरीबी । को बढ़ावा देता था, दाताओं के अहंकार को प्रोत्साहित करता था । महावीर ने इस गलत दान-भावना का परिष्कार किया। उन्होंने कहा-किसी को कुछ देना मात्र ही दान-धर्म नहीं है, अपितु निष्कामबुद्धि से, जनहित में संविभाग करना, सहोदर बन्धु के भाव से उचित हिस्सा देना; दान-धर्म है । दाता बिना किसी प्रकार के अहंकार व भौतिक प्रलोभन से ग्रस्त हुए, सहज सहयोग की पवित्र बुद्धि से दान करे - वही दान वास्तव में दान है । इसीलिए भगवान
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वशांति के तीन सूत्र
73 महावीर दान को संविभाग कहते थे। संविभाग-अर्थात् सम्यक्-उंचित, विभाजन-बँटवारा । और इसके लिए भगवान् का गुरु गंभीर घोष था कि संविभागी को ही मोक्ष है, असंविभागी को नहीं - असंविभागी न हु तस्स मोक्खो ।
वैचारिक अपरिग्रह भगवान महावीर ने परिग्रह के मूल मानव-मन की बहुत गहराई में देखें। उनकी दृष्टि में मानवमन की वैचारिक अहंता एवं आसक्ति की हर प्रतिबद्धता परिग्रह है । जातीय श्रेष्ठता, भाषागत पवित्रता, स्त्री पुरषों का शरीराश्रित अच्छा बुरापन, परम्पाराओं का दुराग्रह आदि समग्र वैचारिक आग्रहों, मान्यताओं एवं प्रतिबद्धताओं को महावीर ने आन्तरिक परिग्रह बताया और उससे मुक्त होने की प्रेरणा दी । महावीर ने स्पष्ट कहा कि विश्व की मानव जाति एक है । उसमें राष्ट्र, समाज एवं जातिगत उच्चता-नीचता जैसी कोई चीज नहीं। कोई भी भाषा शाश्वत एवं पवित्र नहीं है । स्त्री और पुरुष आत्मदृष्टि से एक हैं, कोई ऊँचा-नीचा नहीं है । इसी तरह के अन्य सब सामाजिक तथा सांप्रदायिक आदि भेद विकल्पों को महावीर ने औपाधिक बताया, स्वाभाविक नहीं । इस प्रकार भगवान् महावीर ने मानव-चेतना को वैचारिक परिग्रह से भी मुक्त कर उसे विशुद्ध अपरिग्रह भाव पर प्रतिष्ठित किया ।
भगवान महावीर के अपरिग्रहवादी चिन्तन की पाँच फलश्रुतियाँ आज हमारे समक्ष हैं
१. इच्छाओं का नियमन, २. समाजोपयोगी साधनों के स्वामित्व का विसर्जन ३. शोषणमुक्त समाज की स्थापना ४. निष्कामबुद्धि से अपने साधनों का जनहित में __'संविभाग-दान । ५. अध्यात्मिक-शुद्धि ।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
74
विश्वज्योति महावीर
३. अनेकांत : भगवान महावीर ने जितनी गहराई के साथ अहिंसा और परिग्रह का विवेचन किया, अनेकांत दर्शन के चिंतन में भी वे उतने ही गहरे उतरे । अनेकांत को न केवल एक दर्शन के रूप में, किंतु सर्वमान्य जीवन धर्म के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय महावीर को ही है । अहिंसा और अपरिग्रह के चिंतन में भी उन्होंने अनेकांत दृष्टि का प्रयोग किया । प्रयोग ही क्यों, यहाँ तक कहा जा सकता है कि अनेकांत-रहित अहिंसा और अपरिग्रह भी महावीर को मान्य नहीं थे।
आप शायद चौकेंगे यह कैसे ? किंतु वस्तु स्थिति यही है । चूंकि प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक सत्ता, प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक विचार अनन्त धर्मात्मक है । उसके विभिन्न पहलू, विभिन्न पक्ष होते हैं । उन पहलुओं और पक्षों पर विचार किए बिना यदि हम कुछ निर्णय करते हैं, तो यह उस वस्तुतत्त्व के प्रति स्वरूपघात होगा, वस्तुविज्ञान के साथ अन्याय होगा। और स्वयं की ज्ञानचेतना के साथ भी धोखा होगा। किसी भी वस्तु के तत्त्व-स्वरूप पर चिंतन करने से पहले हमें अपनी दृष्टि को पूर्वाग्रहों से मुक्त, स्वतन्त्र और व्यापक बनाना होगा। उसके प्रत्येक पहलू को अस्ति, नास्ति आदि विभिन्न विकल्पों द्वारा परखना होगा, तभी हम उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे । अहिंसा और अपरिग्रह के विषय में भी यही बात है, इसलिए मैंने कहा-महावीर के अहिंसा और अपरिग्रह भी अनेकांतात्मक थे ।
अहिंसात्मक अनेकांतवाद का एक उदाहरण लीजिए । भगवान् महावीर ने साधक के लिए सर्वथा हिंसा का निषेध किया । किसी भी प्रकार की हिंसा का समर्थन उन्होंने नहीं किया ।' किन्तु जनकल्याण की भावना से, किसी उदात्त ध्येय की प्राप्ति के लिए, तथा वीतराग जीवन चर्या में भी कभी-कहीं परिस्थितिवश अनचाहे भी जो सूक्ष्म या स्थूल प्राणिघात हो जाता है, उस विषय में उन्होंने कभी एकांत निवृत्ति का आग्रह नहीं किया, अपितु व्यवहार में उस प्राणिहिंसा १. सव्वाओ पाणाइवायाओ विरमणं -सथानांग सूत्र
,
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वशांति के तीन सूत्र
75
को हिंसा स्वीकार करके भी उसे निश्चय में हिंसा की परिधि से मुक्त माना । क्योंकि उन्होंने अहिंसा की मौलिक तत्त्व दृष्टि से बाहर में दृश्यमान प्राणिवध
-
नहीं, किंतु रागद्वेषात्मक अन्तर्वृत्ति को, प्रमत्तयोग को ही हिंसा बताया, कर्मबन्धन का हेतु कहा, यही उनका अहिंसा के क्षेत्र में अनेकांतवादी चिंतन
था ।
1
परिग्रह और अपरिग्रह के विषय में भी महावीर बहुत उदार और स्पष्ट थे । यद्यपि जहां परिग्रह की गणना की गई, वहां वस्त्रपात्र, भोजन, भवन आदि बाह्य वस्तुओं को, यहां तक कि शरीर को भी परिग्रह की परिगणना में लिया गया, किन्तु जहां परिग्रह का तात्विक प्रश्न आया, वहां उन्होंने मूर्च्छा भाव के रूप में परिग्रह की एक स्वतंत्र एवं व्यापक व्याख्या की । महावीर वस्तुवादी नहीं, भाववादी थे, अतः उनका अपरिग्रह का सिद्धान्त बाह्य जड़ वस्तुवाद में कैसे उलझ जाता ? उन्होंने स्पष्ट घोषणा की वस्तु परिग्रह नहीं, भाव ही ( ममता ) परिग्रह है । मन की मूर्च्छा, ३ आसक्ति और रागात्मक विकल्प-यही परिग्रह है, बन्धन है ।
I
इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, चिंतन के हर नये मोड़ पर महावीर 'हाँ-और-ना' के साथ चले । उनका उत्तर अस्ति नास्ति के साथ अपेक्षापूर्वक होता था । एकान्त अस्ति या एकांत नास्ति-जैसा निरपेक्ष कुछ भी उनके तत्त्व दर्शन में न था ।
अपने शिष्यों से महावीर ने स्पष्ट कहा था . सत्य अनन्त है, विराट है । कोई भी अल्पज्ञानी सत्य को सम्पूर्ण रूप से जान नहीं सकता । जो जानता है वह उसका केवल एक पहलू होता है, एक अंश होता है । सर्वज्ञ सर्वदर्शी, जो सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार कर लेता है, वह भी उस ज्ञात सत्य को वाणी द्वारा पूर्णरूप से अविकल व्यक्त नहीं कर सकता।" इस स्थिति में सत्य को संपूर्ण रूप से जानने का, और समग्र रूप से कथन करने का दावा कौन कर सकता है ? हम जो कुछ देखते हैं, वह एक पक्षीय होता है । और जो कुछ कथन करते हैं वह भी एक पक्षीय ही है, वस्तुसत्य के सम्पूर्ण स्वरूप को
1
२. पमायं कम्मंमाहंसु । - सूत्रकृतांग १।८।३ ३. मुच्छा परिग्गाहो। - दशवैकालिक
AMPS
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
76
विश्वज्योति महावीर न हम एक साथ पूर्णरूप से देख सकते हैं, न व्यक्त कर सकते हैं, फिर अपने दर्शन को एकांतरूप से पूर्ण, यथार्थ और अपने कथन को एकांत सत्य करार देकर दूसरों के दर्शन और कथन को असत्य घोषित करना, क्या सत्य के साथ अन्याय नहीं है ?
इस तश्य को हम एक अन्य उदाहरण से भी समझ सकते हैं । एक विशाल एवं उत्तुंग सुरम्य पर्वत है, समझ लीजिए हिमालय है । अनेक पर्वतारोही विभिन्न मार्गों से उसपर चढ़ते है, और भिन्न-भिन्न दिशाओं की ओर से उसके चित्र लेते हैं । कोई पूरब से तो कोई पश्चिम से, कोई उत्तर से तो कोई दक्षिण से, यह तो निश्चित है कि विभिन्न दिशाओं से लिए गए चित्र परस्पर एक दूसरे से कुछ भिन्न ही होंगे, फलस्वरूप देखने में वे एक दूसरे से विपरीत ही दिखाई देंगे। इस पर यदि कोई हिमालय की एक दिशा के चित्र को ही सही बताकर अन्य दिशाओं के चित्रों को झूठा बताये, या उन्हें हिमालय के चित्र मानने से ही इन्कार करदे, तो उसे आप क्या कहेंगे?
वस्तुतः सभी चित्र एक पक्षीय हैं । हिमालय की एक देशीय प्रतिच्छवि ही उनमें अंकित है । किंतु हम उन्हें असत्य और अवास्तविक तो नहीं कह सकते । सब चित्रों को यथाक्रम मिलाइए, तो हिमालय का एक पूर्ण रूप आपके सामने उपस्थित हो जायेगा । खण्ड-खण्ड हिमालय एक अखण्ड आकृति ले लेगा, और इसके साथ हिमालय के दृश्यों का खण्ड-खण्ड सत्य एक अखण्ड सत्य की अनुभूति को अभिव्यक्ति देगा ।।
यही बात विश्व के समग्र सत्यों के सम्बन्ध में हे । कोई भी सत्य हो, उसके एक पक्षीय दृष्टि कोणों को लेकर अन्य दृष्टि कोणों का अपलाप या विरोध नहीं होना चाहिए, किंतु उन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दृष्टि कोणों के यथार्थ समन्वय का प्रयत्न होना चाहिए । दूसरों को असत्य घोषित कर स्वयं को ही सत्य का एक मात्र ठेकेदार बताना, एक प्रकार का अज्ञान-भरा अन्ध अहं है, दंभ है, छलना है । भगवान महावीर ने कहा है संपूर्ण सत्य को समझने के लिए सत्य के समस्त अंगों का अनाग्रह पूर्वक अवलोकन करो और फिर उनका अपेक्षा पूर्वक कथन करो ।
.
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वशांति के तीन सूत्र
77
अनेकांतवाद और स्याद्वाद भगवान् महावीर की यह चिंतन शैली अपेक्षावादी, अनेकांतवादी शैली थी, और उनकी कथनशैली स्याद्वाद या विभज्यवाद' के नाम से प्रचलित हुई । अनेकांत वस्तु में अनन्त धर्म की तत्वदृष्टि रखता है, अतः वह वस्तुपरक होता है, और स्याद्वाद अनन्तधर्मात्मक वस्तु के स्वरूप का अपेक्षाप्रधानं वर्णन है, अतः वह शब्दपरक होता है । जन साधारण इतना सूक्ष्म भेद लेकर नहीं चलता, अतः वह दोनों को पर्यायवाची मान लेता है । वैसे दोनों में ही अनेकांत का स्वर है।
जन सुलभ भाषा में एक उदाहरण के द्वारा महावीर के अनेकांत एवं स्याद्वाद का स्वरूप इस प्रकार समझा जा सकता है -आप जब एक कच्चे आम को देखते हैं, तो सहसा कह उठते हैं -आम हरा है, उसको चखते हैं तो कहते हैं -आम खट्टा है । इस कथन में आम में रहे हुए अन्य गंध, स्पर्श आदि वर्तमान गुण धर्मों की, तथा भविष्य में परिवर्तित होनेवाले पीत एवं माधुर्य आदि परिणमन-पर्यायों की सहज उपेक्षा-सी हो गई है । निषेध नहीं, उन्हें गौणकर दिया गया है । और वर्तमान में जिस वर्ण एवं रस का विशिष्ट अनुभव हो रहा है, उसी की अपेक्षा से आम को हरा और खट्टा कहा गया है । आम के सम्बन्ध में यह कथन सत्य कथन है, क्योंकि उसमें अनेकांत मूलक स्वर है । किन्तु यदि कोई कहे कि आम हरा ही है, खट्टा ही है, तो यह एकान्त आग्रहवादी कथन होगा । ही के प्रयोग में वर्तमान एवं भविष्य कालीन अन्य गुण धर्मों का सर्वथा निषेध है, इतर सत्य का सर्वथा अपलाप है, एक ही प्रतिभासित आंशिक सत्य का आग्रह है । और जहाँ इस तरह का आग्रह होता है वहाँ आंशिक सत्य भी सत्य न रहकर असत्य का चोला पहन लेता है । इसलिए महावीर ने प्रतिभासित सत्य को स्वीकृति देकर भी, अन्य सत्यांशों को लक्ष्य में रखते हुए आग्रह का नहीं, अनाग्रह का उदार दृष्टिकोण ही दिया ।
लोक जीवन के व्यवहार क्षेत्र में भी हम ही का प्रयोग करके नहीं, किंतु भी का प्रयोग करके ही अधिक सफल और संतुलित रह सकते हैं । १. विभजवायं च वियागरेज्जा । -सूत्र ० १।१४।२२
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वज्योति महावीर
कल्पना करिए, आपके पास एक प्रौढ़ व्यक्ति खड़ा है, तभी कोई एक युवक आता है और उससे पूछता है भैया ! किधर जा रहे हो ? दूसरे ही क्षण एक बालक दौड़ा-दौड़ा आता है और पुकारता है पिताजी ! मेरे लिए मिठाई लाना। तभी कोई वृद्ध पुरुष उधर आ जाता है और वह उस प्रौढ़ व्यक्ति को पूछता है बेटा ! इस धूप में कहाँ चले ? इस प्रकार अनेक व्यक्ति आते है, और कोई उसे चाचा कहता है, कोई मामा, कोई मित्र और कोई भतीजा ।
78
I
आप आश्चर्य में तो नहीं पडेंगे ! यह क्या बात है ? एक ही व्यक्ति किसी का भाई है, किसी का भतीजा है, किसी का बेटा है और किसी का बाप है । बाप है तो बेटा कैसे ? और बेटा हे तो बाप कैसे ? इसी प्रकार चाचा और भतीजा भी एक ही व्यक्ति एक साथ कैसे हो सकता है ? ये सब रिश्ते-नाते परस्पर विरोधी हैं, और दो विरोधी तत्त्व एकमें कैसे घटित हो सकते हैं ? उक्त शंका एवं भ्रम का समाधान अपेक्षावाद में है । अपेक्षावाद वस्तु को विभिन्न अपेक्षाओं, दृष्टि बिन्दुओं से देखता है । इसके लिए वह ही का नहीं, भी का प्रयोग करता है । जो बेटा है, वह सिर्फ किसी का बेटा ही नहीं, किसी का बाप भी है । वह सिर्फ किसी का चाचा ही नहीं, किसी का भतीजा भी हैं । यही बात मामा आदि के सम्बन्ध में है । यदि हम ही को ही पकड़ कर बैठ जाएँगे तो सत्य की रक्षा नहीं कर सकेंगे । एकान्त ही का प्रयोग अपने से भिन्न समस्त सत्यों को झुठला देता है, जबकि भी का प्रयोग अपने द्वारा प्रस्तुत सत्य को अभिव्यक्ति देता हुआ भी दूसरे सत्यों को भी बगल में मूक एवं गौण स्वीकृति दिये रहता है । अतः किसी एक पक्ष एवं सत्यांश के प्रति एकान्त अन्ध आग्रह न रखकर उदारता पूर्वक अन्य पक्षों एवं सत्याशों को भी सोचना - समझना और अपेक्षा पूर्वक उन्हें स्वीकार करना, यही है महावीर का अनेकांत दर्शन !
•
भगवान महावीर ने कहा- किसी एक पक्ष की सत्ता स्वीकार भले ही करो, किन्तु उसके विरोधी जैसे प्रतिभासित होने वाले (सर्वथा विरोधी नहीं) दूसरे पक्ष की भी जो सत्ता है, उसे झुठलाओ मत ! विपक्षी सत्य को भी जीने दो, चूंकि देशकाल के परिवर्तन के साथ आज का प्रच्छन्न सत्यांश कल प्रकट हो सकता है । उसकी सत्ता, उसका अस्तित्व व्यापक एवं उपादेय बन सकता
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वशांति के तीन सूत्र
है अतः हमें दोनों सत्यों के प्रति जागरूक रहना है व्यक्त सत्य को स्वीकार करना है, साथ ही अव्यक्त सत्य को भी । हाँ, देश, काल, व्यक्ति एवं स्थिति के अनुसार उसकी कथाचित् गौणता, सामयिक उपेक्षा की जा सकती है, किन्तु सर्वथा निषेध नहीं ।
I
भगवान महावीर का यह दार्शनिक चिंतन, सिर्फ दर्शन और धर्म के क्षेत्र में ही नहीं, किंतु संपूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला चिंतन है । इसी अनेकांतदर्शन के आधार पर हम गरीबों को, दुर्बलों को और अलपसंख्यकों को न्याय दे सकते हैं, उनके अस्तित्व को स्वीकार कर उन्हें भी विकसित होने का अवसर दे सकते हैं । आज विभिन्न वर्गों में, राष्ट्र-जाति-धर्मों में जो विग्रह, कलह एवं संघर्ष हैं, उसका मूल कारण भी एक दूसरे के दृष्टिकोण को न समझना है, वैयक्तिक आग्रह एवं हठ है । अनेकान्त ही इन सबमें समन्वय स्थापित कर सकता है । अनेकान्त संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल बनाता है, बनाता है । और यह विशालता, उदारता ही परस्पर के सौहार्द, सहयोग, सद्भावना एवं समन्वय का मूल प्राण है ।
उदार
79
अनेकांतवाद वस्तुतः मानव का जीवन-धर्म है, समग्र मानव जाति का जीवन-दर्शन है । आज के युग में इसकी और भी आवश्यकता है । समानता और सहअस्तित्व का सिद्धान्त अनेकांत के बिना चल ही नहीं सकेगा । उदारता और सहयोग की भावना तभी बलवती होगी, जब हमारा चिंतन अनेकांतवादी होगा | भगवान महावीर के व्यापक चिंतन की यह समन्वयात्मक देन धार्मिक सामाजिक जगत में, बाह्य और अन्तर् जीवन में सदा सर्वदा के लिए एक अद्भुत देन मानी जा सकती है । अस्तु, हम अनेकान्त को समग्र मानवता के सहज विकास की, विश्व - जनमंगल की धुरी भी कह सकते हैं ।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर
सात
अमर उपदेश
१.
२.
जाए सद्धाए निक्खंते तमेव अणुपालेज्जा, विजहित्ता विसोत्तियं ।
___ -आचारांग १।१।३ जिस श्रद्धा के साथ निष्क्रमण किया है, साधनापथ अपनाया है, उसी श्रद्धा के साथ विस्रोतसिका (मन की शंका या कुण्ठा ) से दूर रह कर उसका अनुपालन करना चाहिए। वीरेहिं एवं अभिभूय दिठें, संजतेहिं सया अप्पमत्तेहिं 1-आचारांग १।१४
सतत अप्रमत्त-जाग्रत रहनेवाले जितेन्द्रिय वीर पुरुषों ने मन के समग्र द्वन्द्वों को पराभूत कर सत्य का साक्षात्कार किया है । तं परिण्णाय मेहावी, इयाणिं णो, जमहं पुव्वमकासी पमाएणं । -आचारांग १।१।४
मेधावी साधक को आत्मपरिज्ञान के द्वारा यह निश्चय करना चाहिए कि .. मैंने अपने गतजीवन में प्रमादवश जो कुछ भूलें की हैं, वे अब भविष्य में फिर कभी नहीं करूंगा।" जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ ।
-आचारांग १।१४ जो वस्तुतः अपने अन्दर (अपने सुख दुःख की अनुभूति) को जानता है, वह
४.
.
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
81
__81
महावीर के अमर उपदेश
बाहर (दूसरों के सुख दुःख की अनुभूति) को भी जानता है ।
५.
अंतरं च खलु इमं संपेहाए, धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए।
- आचारांग १।२।१ जीवन के अनन्त प्रवाह में, मानव जीवन को बीच का एक सुअवसर जानकर, धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे । अणभिकंतं च वयं संपेहाए, खणं जाणाहि पंडिए। - आचारांग १।२।१
हे आत्मविद् साधक ! जो बीत गया सो बीत गया, शेष रहे जीवन को ही लक्ष्य में रखते हुए प्राप्त अवसर को परख !
७.
अणोहंतरा एए नो य ओहं गमित्तए । अतीरंगमा एए नो य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एए नो य पारं गमित्तए ।
.
- आचारांग १।२।३
जो वासना के प्रवाह को नहीं तैर पाए हैं, वे संसार के प्रवाह को नहीं तैर सकते।
जो इन्द्रियजन्य कामभोगों को पारकर तट पर नहीं पहुँच पाए हैं, वे संसार सागर के तट पर नहीं पहुँच सकते ।
जो राग द्वेष को पार नहीं कर पाए हैं, वे संसार सागर से पार नहीं हो सकते ।
८. सव्वे पाण पिआउया, सुहसाया, दुक्खपड़िकूला,
अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउकामासव्वेसिं जीवियं पियं, नाइवाएज्ज कंचणं । - आचारांग १।२।३
सब प्राणियों को अपनी जिन्दगी प्यारी है । सबको सुख अच्छा लगता है और दुःख बुरा ।
वध सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय । सब प्राणी जीना चाहते हैं।
कुछ भी हो, सबको जीवन प्रिय है । अत- किसी भी प्राणी की हिंसा न करो।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
82
९.
१०
बहुपि लधुं न निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्जा ।
अधिक मिलने पर संग्रह न करो । परिग्रह-वृत्ति से अपने को दूर रखो ।
११. बन्धप्पमोक्खो अज्झत्थेव ।
गुरु
से 'कामा, तओ से मारस्स अंतो, जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे ।
नेव से अंतो व दूरे ।
- आचारांग १।५।१
जिसकी कामनाएँ तीव्र होती हैं, वह मृत्यु से ग्रस्त होता है, और जो मृत्यु से ग्रस्त होता है, वह शाश्वत सुख से दूर रहता है ।
परन्तु जो निष्काम होता है, वह न मृत्यु से ग्रस्त होता है, और न शाश्वत सुख से दूर ।
१२. तुमंस नाम तं चैव जं हंतव्वं ति मन्नसि । तुमंस नाम तं चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि ।
विश्वज्योति महावीर
- आचारांगा १।२।५.
वस्तुतः बन्धन और मोक्ष अन्दर में आत्मा में ही हैं ।
- आचारांग १।५।२.
तुमंसि नाम तं चेव जं परियावेयव्वं ति मन्नसि । - आचारांग १।५।५.
जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है ।
जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है ।
जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है, ।
(स्वरूप दृष्टि से सब चैतन्य एक समान हैं। यह अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलाधार है ।)
१३. जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया ।
वियाण से आया । तं पडुच्च पडिसंखाए । - आचारांग १।५।५. आत्मा है, वह विज्ञाता जाननेवाला है । जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है । जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती है ।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
83
महावीर के अमर उपदेश १४. बुज्झिज्जत्ति तिउटिज्जा, बंधणं परिजाणिया । -सूत्रकृतांग १।१।१।१
सर्वप्रथम बन्धन को समझो, और समझ कर फिर उसे तोड़ो | १५. अप्पणोय परं नालं, कुतोअन्नाणुसासिउं । -सूत्रकृतांग १।१।२।१७
जो अपने पर अनुशासन नहीं रख सकता, वह दूसरों पर अनुशासन कैसे कर सकता है ?
१६. एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं ।
अहिंसा समयं चेव, एतावंतं वियाणिया । -सूत्रकृतांग १।१।४।१७
___ ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । • अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है बस, इतनी बात सदैव ध्यान में
रखनी चाहिए। १७. संबुज्झह, किं न बुज्झह ?
संबोही खलु पेच दुल्लहा । णो हूवणमंति राइयो,
नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ -सूत्रकृतांग १.२।१।१ समझो ! अभी इसी जीवन में समझो । क्यों नहीं समझ रहे हो? मरने के बाद परलोक में संबोधि का मिलना कठिन है ।
जैसे बीती हुई रातें फिर लौटकर नहीं आतीं, उसी प्रकार गुजरा हुआ जीवन फिर हाथ नहीं आता ।
१८.
सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए ।
-सूत्रकृतांग ११२।२।११ समभाव उसी को रह सकता है, जो अपने को हर किसी भय से मुक्त रखता है ।
१९. जहा कुम्मे सअंगाइ सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे। -सूत्रकृतांग १८ ।१६
कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्म-योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखे ।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
84
२०. सव्वं जगं तु समायाणुपेही,
है ।
पियमप्पियं कस्स वि नो करेजा ।
- सूत्रकृतांग १।१० ६
समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी से राग करता है। और न किसी से द्वेष । अर्थात् समदर्शी अपने-पराये की भेद-बुद्धि से परे होता
२१. आहंसु विज्जा चरणं पमोक्खं । -सूत्रकृतांग १।१२।१ ज्ञान और कर्म के समन्वय से ही मोक्ष प्राप्त होता है ।
२२. णो अन्नस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । अगिला धम्ममाइक्खेज्जा,
विश्वज्योति महावीर
कम्मनिज्जरट्ठाए धम्ममाइक्खेज्जा । - सूत्रकृतांग २।१।१५
खाने पीने की लालसा से किसी को धर्म का उपदेश नहीं करना चाहिए । साधक बिना किसी भौतिक इच्छा के प्रशांतभाव से एक मात्र कर्म - निर्जरा के लिए धर्म का उपदेश करे ।
२३. सारदसलिल इव सुद्ध हियया..... विहग इव विप्पमुक्का....
वसुंधरा इव सव्वफासविसहा ।
- सूत्रकृतांग २ । २ । ३८
मुनिजनों का हृदय शरद्कालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है । वे पक्षी की तरह बन्धनों से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख - दुःखों को समभाव से सहन करने वाले होते हैं ।
२४. असंगिहीयपरिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्ठेयव्वं भवति ।
- स्थानांग ८
जो अनाश्रित एवं असहाय हैं, उनको सहयोग तथा आश्रय देने में सदा तत्पर रहना चाहिए ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर के अमर उपदेश
85
-स्थानांग ८
२५. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए
रोगी की सेवा के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए ।
२६. अहिंसा तस-थावर-सव्वभूयखेमंकरी । -प्रश्नव्याकरण २।१
अहिंसा, त्रस और स्थावर (चर-अचर) सब प्रणियों को कुशल क्षेम करने वाली है।
२७. सव्वे पाणा न हीलियव्वा, न निंदियव्वा । -प्रश्न० २।१.
विश्व के किसी भी प्राणी की न अवहेलना करनी चाहिए, और न निन्दा ।
२८. न कया वि मणेण पावएणं पावगं किंचिवि झायव्वं । वईए पावियाए पावगं न किंचिवि भासियव्वं । -प्रश्न० ३।१
मन से कभी भी बुरा नहीं सोचना चाहिए। वचन से कभी भी बुरा नहीं बोलना चाहिए ।
२९. जे य कंते पिऐ भोए, लद्धे वि पिट्ठिकुव्वइ ।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई || -दशवैकालिक २।३ . जो मनोरम और प्रिय भोगों के उपलब्ध होने पर भी स्वाधीनतापूर्वक उन्हें पीठ दिखा देता है-त्याग देता है, वस्तुतः वही त्यागी है ।।
३०. दिह्र मियं असंदिद्धं पडिपुन्नं विअंजियं ।
अयंपिरमणुव्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं । -दशवैकालकि ८।४ ___आत्मवान् साधक दृष्ट (अनुभूत), परिमित, सन्देहरहित, परिपूर्ण (अधूरी कटी-छटी बात नहीं) और स्पष्ट वाणी का प्रयोग करे । किन्तु यह ध्यान में रहे कि वह वाणी भी वाचालता से रहित तथा दूसरों को उद्विग्न करने वाली न हो।
३१. जे य चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे ।
वुज्झइसे अविणीयप्पा, कट्ठ सोयगयंजहा । -दशवैकालिक ९।२।३
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
86
३२.
३३.
विश्वज्योति महावीर
जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, दुर्बादी, कपटी और धूर्त है, वह संसार के प्रवाह में वैसे ही बह जाता है, जैसे जल के प्रवाह में काष्ठ ।
जे आयरिय-उवज्झायाणं, सुस्सूसा वयणं करे । तेसिं सिक्खा पवंति, जलसित्ता इव पायवा ।
जो अपने आचार्य एवं उपाध्यायों की, अर्थात् गुरुजनों की शुश्रूषा सेवा उनकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, तथा उनकी शिक्षाएँ (विद्याएँ) वैसे ही बढ़ती हैं जैसे कि जल से सींचे जाने पर वृक्ष ।
३४.
वाया दुरुत्ताणि दुरूद्धराणि, वेणुबंधीणि महत्भयाणि ।
- दशवैकालिक ९ । ३ ॥७
• वाणी से बोले हुए दुष्ट और कठोर वचन जन्म-जन्मान्तर के लिए वैर और भय के कारण बन जाते हैं ।
अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुधमो ।
अप्पा दंतो सही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य । - उत्तराध्ययन१।१५ अपने आप पर नियन्त्रण रखना चाहिए। आपने आप पर नियन्त्रण रखना वस्तुतः कठिन है । अपने पर नियन्त्रण रखने वाला ही इस लोक तथा परलोक में सुखी होता है ।
३५. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य ।
माहं परेहिं दम्मंतो बंधणेहिं वहेहि य ॥
- दशवैकालिक ९।२।१२
- उत्तराध्ययन १।१६
दूसरे वध बन्धन आदि से दमन करें, इससे तो अच्छा है कि, मैं स्वयं ही
संयम और तप के द्वारा अपना (इच्छाओं का दमन करलूं ।
३६. अप्पाणं पि न कोवए ।
अपने आप पर भी कभी क्रोध न करो ।
- उत्तराध्ययन १।४०
.
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर के अमर उपदेश
.87
३७. सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। -उत्तराध्ययन ३।१२
ऋजु अर्थात् सरल आत्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है।
३८ भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्वए कम्मई दिवं । -उत्तराध्ययन ५।३३
भिक्षु हो, चाहे गृहस्थ हो, जो सुव्रती (सदाचारी) है, वह दिव्यगति को प्राप्त होता है।
३९. परिजूरइ ते सरीरयं केसा पंडुरया हवन्ति ते । से सव्वबले य हायई, समयं गोयम ! मा पमायए ।.
__-उत्तराध्ययन १०।२६ तेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा है, केश पक कर सफेद हो चले हैं । शरीर का सब बल क्षीण होता जा रहा है, अतएव हे गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद न कर ।
४०. अह पचहिं ठाणेहिं जेहिं सिक्खा न लब्भइ ।
थंभा कोहा पमाएणं रोगेणालस्सएण वा ॥ - उत्तराध्ययन ११।३
- अहंकार, क्रोध, प्रमाद (विषयासक्ति), रोग और आलस्य-इन पांच कारणोंसे व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता ।
४१. । न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई ।
अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई। - उत्तराध्ययन ११।१२
सुशिक्षित व्यक्ति न किसी पर दोषारोपण करता है, और न कभी साथियों पर कुपित ही होता है । और तो क्या, मित्र से मतभेद होने पर भी परोक्ष में उसकी भलाई की ही बात करता है ।
४२. जा जा वचई रयणी, न सा पडिनियत्तई ।
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ । -उत्तराध्ययन १४।२५
___ जो रात्रियां बीत जाती हैं, वे पुनः लौटकर नहीं आतीं । किन्तु जो धर्म का आचरण करता रहता है, उसकी रात्रियां सफल हो जाती हैं ।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
88
४३. जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वडत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ||
४४.
- उत्तराध्ययन १३/२७
जिसकी मृत्यु के साथ मित्रता हो, जो मृत्यु से कहीं भाग कर बच सकता हो, अथवा जो यह जानता हो कि मैं कभी मरूंगा ही नहीं, वही कल पर भरोसा कर सकता है ।
सद्धा खमं णे विणइत्तु रागं ।
विश्वज्योति महावीर
धर्म-श्रद्धा हमें राग (आसक्ति) से मुक्त कर सकती है ।
४५. सीहो व सद्देण न संतसेज्जा ।
- उत्तराध्ययन १४।२९
- उत्तराध्ययन २१ ।१४
सिंह के समान निर्भीक रहिए । केवल शब्दों (किसी की आवाजकशी) से न डरिए ।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________ भगवान महावीर की आठअमर शिक्षाएँ * पहले कभी नहीं सुने गए पवित्रधर्म (धर्म-प्रवचन) को सुनने के लिए तत्पर रहो। * सुने हए धर्म का आचरण करने को तत्पर रहो। संयमसाधना के द्वारा नये पाप कर्मों का निरोध करने में तत्पर रहो। तप:साधना के द्वारा पुराने सचित पाप-कर्मों को नष्ट करने में तत्पर रहो। अनाश्रित एवं असहायजनों को सहयोग एवं आश्रय देने में तत्पर रहो। शैक्ष (नये शिक्षार्थी) को सदाचार का उचित मार्ग-दर्शन करने में तत्पर रहो। दीन-दुखी, रोगियों की सेवा करने के लिए सदा प्रसन्नभाव से तत्पर रहो। यदि अपने सहधर्मी बन्धुओं में किसी कारण मतभेद, कलह, विग्रह आदि उत्पन्न हो गया हो, तो उसे शांत कर परस्पर सद्भावना बढ़ाने में सदा तत्पर रहो। स्थानांग सूत्र, अष्ठम स्थान