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महावीर के अमर उपदेश
बाहर (दूसरों के सुख दुःख की अनुभूति) को भी जानता है ।
५.
अंतरं च खलु इमं संपेहाए, धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए।
- आचारांग १।२।१ जीवन के अनन्त प्रवाह में, मानव जीवन को बीच का एक सुअवसर जानकर, धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे । अणभिकंतं च वयं संपेहाए, खणं जाणाहि पंडिए। - आचारांग १।२।१
हे आत्मविद् साधक ! जो बीत गया सो बीत गया, शेष रहे जीवन को ही लक्ष्य में रखते हुए प्राप्त अवसर को परख !
७.
अणोहंतरा एए नो य ओहं गमित्तए । अतीरंगमा एए नो य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एए नो य पारं गमित्तए ।
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- आचारांग १।२।३
जो वासना के प्रवाह को नहीं तैर पाए हैं, वे संसार के प्रवाह को नहीं तैर सकते।
जो इन्द्रियजन्य कामभोगों को पारकर तट पर नहीं पहुँच पाए हैं, वे संसार सागर के तट पर नहीं पहुँच सकते ।
जो राग द्वेष को पार नहीं कर पाए हैं, वे संसार सागर से पार नहीं हो सकते ।
८. सव्वे पाण पिआउया, सुहसाया, दुक्खपड़िकूला,
अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउकामासव्वेसिं जीवियं पियं, नाइवाएज्ज कंचणं । - आचारांग १।२।३
सब प्राणियों को अपनी जिन्दगी प्यारी है । सबको सुख अच्छा लगता है और दुःख बुरा ।
वध सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय । सब प्राणी जीना चाहते हैं।
कुछ भी हो, सबको जीवन प्रिय है । अत- किसी भी प्राणी की हिंसा न करो।
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