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विश्वशांति के तीन सूत्र नहीं मिला । हिंसा का प्रतिकार हिंसा से नहीं, अहिंसा से होना चाहिए था, घृणा का प्रतिकार घृणा से नहीं, प्रेम से होना चाहिए था । आग का प्रतिकार आग नहीं, जल है । जल ही जलते दावानल को बुझा सकता है । इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था “क्रोध को क्रोध से नहीं क्षमा से जीतो । अहंकार को अहंकार से नहीं, विनय एवं नम्रता से जीतो । दंभ को दंभ से नहीं, सरलता और निश्छलता से जीतो । लोभ को लोभ से नहीं, सन्तोष से जीतो, उदारता से जीतो ।" इसी प्रकार भय को अभय से, घृणा को प्रेम से जीतना चाहिए । और विजय की यह सात्त्विक प्रक्रिया ही अहिंसा है । अहिंसा प्रकाश की अन्धकार पर, प्रेम की घृणा पर, सद्भाव की वैर पर, अच्छाई की बुराई पर विजय का अमोघ उद्घोष है।
___ अहिंसा की दृष्टि
भगवान् महावीर कहते थे वैर हो, घृणा हो, दमन हो, उत्पीड़न होकुछ भी हो, अंततः सब लौटकर कर्ता के ही पास आते हैं । यह मत समझो कि बुराई वहीं रह जाएगी, तुम्हारे पास लौट कर नहीं आएगी । वह आएगी, अवश्य आएगी, कृतकर्म निष्फल नहीं जाता है । कुएँ में की ध्वनि प्रतिध्वनि के रूप में वापस लौटती है । और भगवान् महावीर तो यह भी कहते थे कि वह और तू कोई दो नहीं हैं । चैतन्य चैतन्य एक है । जिसे तू पीड़ा देता है, वह और कोई नहीं, तू ही तो है । भले आदमी, तू दूसरे को सताता है तो सचमुच दूसरे को नहीं, अपने को ही सताता है । इस सम्बन्ध में आचारांग सूत्र में आज भी उनका एक प्रवचन उपलब्ध है -
जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है । जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है । जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है ।
यह भगवान् महावीर की अद्वैतदृष्टि है, जो अहिंसा का मूलाधार है ।
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