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विश्वज्योति महावीर
भगवान् महावीर की अहिंसा भगवान महावीर ने अहिंसा को केवल आदर्श ही नहीं दिया, अपने जीवन में उतार कर उसकी शत-प्रतिशत यथार्थता भी प्रमाणित की । उन्होंने अहिंसा के सिद्धान्त और व्यवहार को एक करके दिखा दिया । उनका जीवन उनके अहिंसायोग के महान् आदर्श का ही एक जीता-जागता मूर्तिमान परिदर्शन था । विरोधी से विरोधी के प्रति भी उनके मन में कोई घृणा नहीं थी, कोई द्वेष नहीं था । वे उत्पीड़क एवं घातक विरोधी के प्रति भी मंगल कल्याण की पवित्र भावना ही रखते रहे । संगम जैसे भयंकर उपसर्ग देने वाले व्यक्ति के लिए भी उनकी आँखें करुणा से गीली हो आई थीं । वस्तुतः उनका कोई विरोधी था ही नहीं । उनका कहना था - विश्व के सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, मेरा किसी के भी साथ कुछ भी वैर नहीं है - 'मित्ती में सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणई ।'
भगवान् महावीर का यह मैत्रीभावमूलक अहिंसाभाव इस चरम कोटि पर पहुंच गया था कि उन के श्री चरणों में सिंह और मृग, नकुल और सर्प-जैसे प्राणी भी अपना जन्मजात वैर भुला कर सहोदर बन्धु की तरह एक साथ बैठे रहते थे । न सबल में क्रूरता की हिंस्रवृत्ति रहती थी, और न निर्बल में भय, भय की आशंका । दोनों और एक जैसा स्नेह का, सद्भाव का व्यवहार ! इसी सन्दर्भ में यह प्राचीन उक्ति है कि भगवान् के समवसरण में सिंहिनी का दूध मृगशिशुपीता रहता, और हिरनी का सिंहशिशु - 'दुग्धं मृकेन्द्रवनितास्तनजं पिबन्ति ।' भारत के आध्यात्मिक जगत् का वह महान् एवं चिरंतन सत्य, भगवान् महावीर के जीवन पर से साक्षात् साकार रूप में प्रकट हो रहा था कि साधक के जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा-पूर्ण जागृति होने पर उस के समक्ष जन्मजात वैरवृत्ति के प्राणी भी अपना वैर त्याग देते हैं, प्रेम की निर्मल धारा में अवगाहन करने लगते हैं । 'अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ।'
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