SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्वशांति के तीन सूत्र २. अपरिग्रह : भगवान् महावीर के चिन्तन में जितना महत्व अहिंसा को मिला, उतना ही अपरिग्रह को भी मिला । उन्होंने अपने प्रवचनों में जहां-जहां आरंभ(हिंसा) का निषेध किया, वहां-वहां परिग्रह का भी निषेध किया है । चूँकि मुख्यरूपेण परिग्रह के लिए ही हिंसा की जाती है, अतः अपरिग्रह अहिंसा की पूरक साधना है । 69 परिग्रह क्या है ? प्रश्न खड़ा होता है, परिग्रह क्या है ? उत्तर आया होगा-धन-धान्य, वस्त्र - भवन, पुत्र- परिवार और अपना शरीर यह सब परिग्रह है। इस पर एक प्रश्न खड़ा हुआ होगा कि यदि ये ही परिग्रह हैं तो फिर इनका सर्वथा त्यागकर कोई कैसे जी सकता है ? जब शरीर भी परिग्रह है, तो कोई अशरीर बनकर - I , क्या यह संभव है ? फिर तो अपरिग्रह का आचरण असंभव है । असंभव और अशक्य धर्म का उपदेश भी निरर्थक है ! भगवान महावीर ने हर प्रश्न का अनेकांत दृष्टि से समाधान दिया है । परिग्रह की बात भी उन्होंने अनेकांत दृष्टि से निश्चित की और कहा-वस्तु, परिवार और शरीर परिग्रह है भी और नहीं भी । मूलतः वे परिग्रह नहीं हैं, क्योंकि वे तो बाहर में केवल वस्तु रूप हैं । परिग्रह एक वृत्ति है, जो प्राणी के अन्तरंग चेतना की एक अशुद्ध स्थिति है, अतः जब चेतना बाह्य वस्तुओं में आसक्ति, मूर्च्छा, ममत्व (मेरापन) का आरोप करती है । तभी वे परिग्रह होते हैं, अन्यथा नहीं । इसका अर्थ है-वस्तु में परिग्रह नहीं, भावना में ही परिग्रह है। ग्रह एक चीज है, परिग्रह दूसरी चीज है । ग्रह का अर्थ उचित आवश्यकता के लिए किसी वस्तु को उचित रूप में लेना एवं उसका उचित रूप में ही उपयोग करना । और परिग्रह का अर्थ है - अनुचित का विवेक किए बिना आसक्ति -रूप में वस्तुओं को सब ओर से पकड़ लेना, जमा करना, और उनका मर्यादाहीन गलत असामाजिक रूप में उपयोग करना । वस्तु न भी हो, यदि उसकी आसक्तिमूलक मर्यादाहीन अभीप्सा है तो वह भी परिग्रह है । इसीलिए महावीर ने कहा था- 'मुच्छा परिग्गहो' मूर्च्छा, मन की ममत्वदशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001336
Book TitleVishwajyoti Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2002
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy