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________________ प्राक्कथन जब कौशेय की निष्ठांत कमनीयता आत्मा की उत्तिष्ठित गरिमा में अवस्थित हो जाती है, तब राजप्रासाद के ऐश्वर्य का उत्तराधिकारी अनन्त ध्रुव-पथ की पद यात्रा में सुख पाने लगता है, कैवल्य का उद्भावक जब उस अमृत बूंद को ग्रहण कर मानव मात्र के लिए कैवर्त की भूमिका में उतरता है तो उस देवोपम लौकिक व्यक्तित्व की अलौकिकता के दर्शन की कामना हर हृदय का लक्ष्य बन जाती है। यह जनश्रुति के आधार पर सोचकर गढ़ी गई कोई बात नहीं, ना ही कल्पना के कोरे पृष्ठों पर लिखि कोई कथा है, यह तो सत्य का अभिसर्ग है जो विगत, वर्तमान और आगत के मस्तक पर सर्वदा अंकित मलय अभिषेक है। एक तेजस्वी राजकुमार जिसके जीवन के तीस वर्ष राजमहल के अतुल वैभव और कष्ट रहित परिस्थितियों की स्निग्ध छाँव में व्यतीत हुए, फिर भी वह सत्योन्मुख हुआ और आरम्भ हुई सत्य की यात्रा, सत्य की साधना, सत्य का प्रयोग और तब मार्ग में साथ चलते-चलते एक दिन सत्य ने उसे रोककर कहा - "तुम मेरे भीतर स्थापित हो। मैं तुम में अपना अर्थ देखता हूँ, तुम्हारी वाणी में मैं स्वयं को समिद्ध देखता हूँ। तुम अपनी आन्तरिक कला में मुझे आकार पाने दो। तुम मेरा 'वर्द्ध' हो, तुम मेरा 'मान' हो, तुम सा कोई ‘महान्' नहीं, तुम सा कोई 'वीर' नहीं - मैं आगत के अपने अन्वेषियों को तुम्हारा नाम देता हूँ महावीर"। सहज ही प्रश्न उठेगा कि सत्य को उस महाव्यक्तित्व में उद्भाषित होते किसने देखा? उसे ऐसा कहते हुए किसने सुना? किन्तु यह प्रश्न तभी तक रहेगा जब तक उस मानव विभूति की वाणी में मन प्राण अछते रहेंगे। उस वाणी को जो पढ़ेंगे, जानेंगे उन्हें स्वयं यह आभास होगा कि सत्य ने निश्चय ही महावीर के वाग्वैचित्र्य से निसृत होना चाहा होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001336
Book TitleVishwajyoti Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2002
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Sermon
File Size5 MB
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