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विश्वज्योति महावीर प्रचारित बाहर के मोहक अवगुंठन के नीचे अन्दर में विकृतियों एवं कुण्ठाओं की कुरूपता विद्यमान रहती है । सुन्दर अवगुंठन कुरूपता को छिपाये रख सकता है, उसे मिटा नहीं सकता । दमन वृत्तियों का निष्कासन नहीं करता, अपितु निष्कासन का या तो भुलावा करता है या प्रदर्शन । और कुछ नहीं ।
___अनेक बार ऐसा होता है कि विकृतियाँ नष्ट नहीं होती, प्रत्युत नष्ट होने का भ्रम हो जाता है और यह भ्रम समय पर साधक को बहुत बड़ा धोखा देता है । बर्फ में दबा सर्प, लगता है, मर गया है, किन्तु ज्योंही इधर-उधर की गरमी पाता है, कुंकार मारने लगता है । दमन वृत्तियों को दबा देता है, कुछ क्षणों के लिए वृत्तियों का शमन एवं उपशमन कर देता है, और बस, दमन का कार्य पूरा हो जाता है । साधक विश्वस्त होकर बैठ जाता है कि चलो, ठीक सफलता मिल गई । परन्तु यह पथ खतरे से भरा है, अतः यह साधना का सफल मार्ग नहीं है ।
___ दमन के विपरीत एक और पथ है - वृत्तियों को खुलकर खेलने देना । कुछ लोग कहते हैं - मन में जो भी वृत्ति उभरे, जैसे भी हो उसकी पूर्ति की जानी चाहिये । दमित वृत्तियाँ नहीं, मुक्त वृत्तियाँ ही मन को हलका करती हैं, और इस प्रकार स्वच्छन्द विलासी जीवन बिताते हुए भी लक्ष्य-सिद्धि का, आध्यात्मिक पवित्रता का पथ प्रशस्त हो जाता है । परंतु साधना का उक्त पथ भी प्रशस्त नहीं है । वृत्तियों की मनचाही पूर्ति एवं सन्तुष्टि करके भी उन्हें मिटाया नहीं जा सकता । अग्नि में खुलकर घृत डालने से वह और अधिक प्रज्वलित होती है, बुझती नहीं है । नदी की बहती जलधारा के निकट रेत में लोग गड्ढे खोद लेते हैं, धीरे-धीरे उनमें पानी भर जाता है । उलीचने से कुछ क्षणों के लिए अवश्य रिक्तता आ जाती है, परन्तु यह रिक्तता स्थायी नहीं होती, इस तरह गड्ढे सूखते नहीं हैं । यही बात वृत्तियों को उलीचने के सम्बन्ध में भी है । हम उन्हें पूर्ति के द्वारा उलीच देते हैं, और समझ लेते हैं कि चलो, वृत्तियों से छुटकारा हुआ । परन्तु ऐसे छुटकारा होता नहीं है । कुछ समय के लिए छुटकारे का आभास मात्र होता है, क्षणिक समाधान मिलता है, परन्तु यह स्थायी एवं वास्तविक समाधान नहीं है । अस्तु, जिस प्रकार वृत्तियों को दमित
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