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________________ 46 विश्वज्योति महावीर से ही वे अन्दर की गहराई में अपने अनन्त ईश्वरत्व को प्रकट कर सके, विशुद्ध आध्यात्मिक सत्ता तक पहुंच सके । आध्यात्मिक साधना का अर्थ ही ध्यान है । 1 वस्तुतः ध्यान से ही आध्यात्मिक तथ्य की वास्तविकता का बोध होता है । ध्यान जीवन की बिखरी हुई शक्तियों को केन्द्रित करता है, चैतन्य की अन्तर्निहित अनन्त क्षमता का उद्घाटन करता है । ध्यान आध्यात्मिक शक्ति की पूर्णता का विस्फोट है, जीवन की समग्र सत्ता का एक वास्तविक जागरण है। ध्यान हमारी अशुद्ध शक्तियों का शोधन करता है। ध्यान के द्वारा ही चेतना की अशुभ धारा शुभ में रूपान्तरित होती है, शास्त्र की भाषा में कहें तो चेतना की शुभाशुभ समग्र धारा अन्ततः शुद्ध में संक्रमित हो जाती है । प्रकाश में जैसे अन्धकार विनष्ट हो जाता है, वैसे ही ध्यान की ज्योति में विकृतियाँ सर्वतोभावेन समाप्त हो जाती है । विकृतियों का तभी तक शोरगुल है, जब तक कि चेतना सुप्त है । चेतना की जागृति में आध्यात्मिक सत्ता का अथ से इति तक संपूर्ण कायाकल्प ही हो जाता है, फलतः अन्तरात्मा में एक अद्भुत नीरव एवं अखण्ड शान्ति की धारा प्रवाहित होने लगती है । चेतना के वास्तविक जागरण में न कोई तनाव रहता हैं, न पीड़ा, न दुःख, न द्वन्द्व । जिसे हम मन की आकुलता कहते हैं, चित्त की व्यग्रता कहते हैं, उसका तो कहीं अस्तित्व तक नहीं रहता । ध्यान चेतना के जागरण का अमोघ हेतु है । हेतु क्या, एक तरह से यह जागरण ही तो स्वयं ध्यान है । I जीवन में दुःख क्यों होता है ? उद्विग्नता क्यों बढ़ती है ? मनुष्य क्यों आकुल-व्याकुल हो जाता है ? यह सब इसलिए होता है कि अपनी भूल को देखने के लिए बहुत कम लोगों के पास सही आँखें होती हैं । अधिकतर मनुष्य अपनी गलतियों पर नजर ही नहीं डालते । कभी संगी-साथियों पर दोषारोपण करते हैं तो कभी प्रकृति पर, कभी परिस्थिति पर और कभी ईश्वर पर । हर कोई दूसरों की ओर देखता है, स्वयं अपनी ओर नहीं । यदि मनुष्य तटस्थ भाव से अपने को देखले, अपने मूल स्वरूप को देखले, शुभाशुभ जो भी हो रहा है, उसे देखले, तो फिर द्वन्द्व कहाँ रह सकता है ? आकुलता कैसे रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001336
Book TitleVishwajyoti Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2002
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Sermon
File Size5 MB
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