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विश्वज्योति महावीर किया जाए तो वह भी वीतराग भाव का ही परिपोषक है, संरक्षक है । वीतराग भाव से जिसका दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं है, भला वह वीतराग महावीर का कहा या किया कैसे हो सकता है ? सूरज की उजली प्रकाशकिरणें काले अन्धकार से घिर जाएँ, कभी ऐसा हुआ है ?
वीतरागता : साधना भी, सिद्धि भी
महावीर के समग्र जीवन दर्शन को, उनकी साधनापद्धति को किसी एक ही शब्द में कहना हो तो वह है - वीतरागता । यही साधना का प्रारंभ बिन्दु है, और यही अन्तिम बिन्दु भी । जो अन्तर है, वह पूर्णता और अपूर्णता का है । वीतरागभाव की क्रमिक विकासधारा साधना है और कभी क्षीण न होने वाली पूर्णता साधना का अन्तिम बिन्दु सिद्धि
चैतन्यसूर्य के मेघावरण : राग द्वेष राग आसक्ति है, द्वेष घृणा ! अनादिकाल से चैतन्य ज्योति उक्त आवरणों से आच्छन्न है । आत्मा की बद्धता और कुछ नहीं, यही बद्धता है । स्वयं महावीर ने कहा है - दो ही बन्धन हैं, राग और द्वेष ।' जिस प्रकाश सहस्रकिरण सूर्य मेघों के आवरण में छिप जाता है, उसी प्रकार अनन्तकिरण आत्मा भी राग-द्वेष के आवरणों में छिप जाती है । उसका प्रकार दब जाता है । बादलों का निर्माण कौन करता है ? सूर्य । और उन्हें हटाता कौन है ? सूर्य । निर्माण और संहार दोनों ही शक्तियाँ सूर्य की हैं । चैतन्य भी ऐसी ही स्थिति में है । चैतन्य की विभाव शक्ति आवरणों को जन्म देती है, और उसकी स्वभावशक्ति उनका संहार करती है । सूर्य मेघों को हटाता है, जबकि आत्मा स्वयं हट जाती है । यही अन्तर है सूरज और आत्मा में । कहा जाता है महावीर ने आवरणों को हटाया, बन्धनों को तोड़ा । इसका यही अभिप्राय है कि उन्होंने अपने १. दुविहे बंधे - पेज्जबंधे चेव दोसबंधे चेव - स्थानांग २
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