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दिव्यसाधक जीवन अतृणे पतितो वन्हिः स्वयमेव प्रशाम्यति बिना घास की भूमि में पड़ी हुई आग खुद-ब-खुद बुझ जाती है ।
सहज-स्फूर्त साधना कभी-कभी ऐसा होता कि अपरिचित लोग महावीर से उनका परिचय जानना चाहते और पूछते कि आप कौन हैं ? महावीर इसका क्या उत्तर देते ? यह कि .. मैं वैशाली का राजकुमार हूं । अब भी मेरा बड़ा भाई नन्दीवर्धन ज्ञातृगणराज्य का शासक है, सुप्रसिद्ध वैशाली गणराज्य का प्रमुख घटक है । नहीं, ऐसा कुछ नहीं । महावीर कहते .मैं श्रमण हं । पहले पीछे का कोई परिचय नहीं, केवल वर्तमान का परिचय, जैसा कि वे तब थे । अहंशून्य-अंतरंग-रसधारा में डूबे सच्चे साधक के ये ही उद्गार हो सकते हैं । अन्यथा भीतर में सोयी हुई वृत्तियाँ ऐसे प्रसंगों पर सहस जाग जाती हैं, फुकारने लगती हैं । ऐसे समय में कच्चा साधक कुचला जाता है, आगे बढ़ने से रुक जाता है, कभी-कभी तो मार्ग बदलने के लिए भी लाचार हो जाता है । किन्तु ऐसे प्रसंगों पर महावीर की क्षमता आश्चर्यजनक होती थी । निन्दा हो, स्तुति हो, कुछ हो, वे हवा के झोंके की तरह फूलों में से भी आगे चले जाते और काँटों में से भी । न स्तुति से उत्साहित होते, न निन्दा से अनुत्साहित । धैर्य और निष्ठा के साथ सन्तुलित भाव से सत्य की खोज में हर क्षण आगे बढ़ते रहे ।
प्रोत्साहित साधना में साधक का अहंभाव नहीं टूटता है, अतएव प्रोत्साहित साधना प्रशंसा के क्षणों में मचल जाती है । वह अपने विज्ञापन के लिए हर मौके की तलाश में रहती है । जय जयकार पाने की धुन में हर किसी को चौंका देनेवाले असाधारण दाँव पेच करने लगती है । प्रोत्साहित साधना हर क्षेत्र में, हर समय निन्दा एवं आलोचना से पीछे हटती है । अवज्ञा के क्षणों में रो भी पड़ती है । महावीर की साधना किसी के द्वारा प्रोत्साहित एवं प्रेरित साधना नहीं थी । अपनी भीतरी ऊर्जा से निष्पन्न वह एक सहज स्फूर्त साधना थी । वह सत्य की एक ऐसी प्यास थी, जो न प्रशंसा से बुझ सकती थी, न निन्दा से । यही कारण है कि महावीर
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