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महावीर का जीवन दर्शन आदि वर्ग बन गए । यह मात्र कर्म का विभाजन था, जो समाज कल्याण की दृष्टि से मानव की कर्मचेतना को विकासपथ पर व्यवस्थित रूप देने के लिए था । उक्त विभाजन में उस समय ऊँच-नीच या पवित्र अपवित्र जैसी कोई कल्पना नहीं थी।
महावीर के उपर्युक्त मानव-इतिहास-सम्बन्धी विश्लेषण का यह अर्थ है कि मानव मूल में केवल मानव था । कर्मयुग के आरंभ होने पर कर्त्तव्य-कर्म के अनुसार जो ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के वर्ग बने, वे सामाजिक दायित्वों की पूर्ति के लिए थे । उनका कुछ और अर्थ नहीं था । आगे चलकर पवित्रअपवित्र तथा ऊँच-नीच आदि की कल्पना का जो नग्न ताण्डव हुआ, जिसके कारण मानव समाज खण्ड-खण्ड हो गया, शूद्र एवं अन्त्यज कहा जानेवाला एक वर्ग अमानवीय अन्याय-अत्याचारों का शिकार हुआ, उसका कारण कुछ लोगों का अपना अपना निहित स्वार्थ और अहंकार था, अन्य कुछ नही ।
प्रायः होता ऐसा है कि सेवा कराने वाला शासक हो जाता है और सेवा करने वाला शासित । और शासक वर्ग जब प्रभुसत्ता के घोर अहंचक में उलझ जाता है, तो अन्ततः उसका यह कुफल होता है कि वह अपने को महान् और दूसरों को हीन समझने लगता है । भारत में जातीय उच्चता व नीचता की भावना का यही एक मूल कारण है ।
मानवीय गरिमा का दर्शन आज के ये छुआछूत, ऊँच-नीच, सवर्ण-अवर्ण आदि जाति प्रथा के जितने भी दुर्विकल्प हैं, उनका महावीर के दर्शन में कुछ भी स्थान नहीं है। महावीर का दर्शन मानवीय गरिमा का दर्शन है । ऐसी कोई भी व्यवस्था, जिसमें मानवीय प्रतिष्ठा का गौरवमय विकास संभव न हो, महावीर को स्वीकार नहीं है । न जन्म से स्वीकार है, न कर्म से स्वीकार है । सभी मानवों का जन्म से प्राप्त शरीर एक जैसा होता है - वही ब्राह्मण का, वही क्षत्रिय का, वही वैश्य का और वही शूद्र आदि का । अतः उसमें पवित्र-अपवित्र और ऊँच-नीच आदि के भेद प्रभेद कैसे हो सकते हैं ?
अब रहा कर्म का प्रश्न । अपने वैयक्तिक जीवन की या सामाजिक
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