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महावीर के अमर उपदेश
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-स्थानांग ८
२५. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए
रोगी की सेवा के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए ।
२६. अहिंसा तस-थावर-सव्वभूयखेमंकरी । -प्रश्नव्याकरण २।१
अहिंसा, त्रस और स्थावर (चर-अचर) सब प्रणियों को कुशल क्षेम करने वाली है।
२७. सव्वे पाणा न हीलियव्वा, न निंदियव्वा । -प्रश्न० २।१.
विश्व के किसी भी प्राणी की न अवहेलना करनी चाहिए, और न निन्दा ।
२८. न कया वि मणेण पावएणं पावगं किंचिवि झायव्वं । वईए पावियाए पावगं न किंचिवि भासियव्वं । -प्रश्न० ३।१
मन से कभी भी बुरा नहीं सोचना चाहिए। वचन से कभी भी बुरा नहीं बोलना चाहिए ।
२९. जे य कंते पिऐ भोए, लद्धे वि पिट्ठिकुव्वइ ।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई || -दशवैकालिक २।३ . जो मनोरम और प्रिय भोगों के उपलब्ध होने पर भी स्वाधीनतापूर्वक उन्हें पीठ दिखा देता है-त्याग देता है, वस्तुतः वही त्यागी है ।।
३०. दिह्र मियं असंदिद्धं पडिपुन्नं विअंजियं ।
अयंपिरमणुव्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं । -दशवैकालकि ८।४ ___आत्मवान् साधक दृष्ट (अनुभूत), परिमित, सन्देहरहित, परिपूर्ण (अधूरी कटी-छटी बात नहीं) और स्पष्ट वाणी का प्रयोग करे । किन्तु यह ध्यान में रहे कि वह वाणी भी वाचालता से रहित तथा दूसरों को उद्विग्न करने वाली न हो।
३१. जे य चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे ।
वुज्झइसे अविणीयप्पा, कट्ठ सोयगयंजहा । -दशवैकालिक ९।२।३
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