________________
40
विश्वज्योति महावीर
यह संकल्प-विकल्पों का एक ऐसा मायाजाल है, जिसमें मानव की अन्तर्चेतना बुरी तरह उलझी रहती हैं । राग और द्वेष, इनसे होने वाली उत्तेजना, घृणा. ईर्ष्या, अहंकार आदि विकृतियों की सूक्ष्म अभिव्यक्तियाँ सर्वप्रथम अन्तर्मन में जन्म लेती हैं । अनन्तर शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से उक्त विकृतियों की स्थूल अभिव्यक्ति होती है ।
मन पर विकारों, संस्कारों एवं अच्छे बुरे विचारों की एक पर एक सघन तह जमी हुई है । मन के क्षुद्र आँगन में विकृतियों की एक बहुत बड़ी भीड़ डेरा पड़ी है। यही वह भीड़ है, जो अन्दर की शुद्ध चेतना को प्रकट नहीं होने देती, उभरने नहीं देती । यह विकृतियों का आवरण चेतना की अनन्त ज्योति को सब ओर से आवृत किए हुए है, चाँद बादलों में छिप गया है ।
शरीर और इन्द्रियों की परतें कुछ खास हानिकर नहीं हैं। खास क्या, यों कहना चाहिए, कुछ भी हानिकर नहीं हैं । साधना की दृष्टि से इन परतों को तोड़ना आवश्यक नहीं है । वीतराग भाव की सिद्धि में शरीर कहाँ रुकावट डालता है, इन्द्रियाँ कहाँ बाधा उपस्थित करती हैं। राग-द्वेष शरीर में नही हैं। इनका केन्द्र शरीर एवं इन्द्रियाँ नहीं, कोई और है। और वह है मन ! मन भी स्वयं क्या गड़बड़ करता है ? जिस प्रकार शरीर और इन्द्रियों को मारना साधना नहीं है, उसी प्रकार मन को मारना भी साधना नहीं है । मन बुरा नहीं है, बुरी है मन की विकृतियाँ अर्थात् आन्तरिक भाव के विकार । साधना, बस, इन्हीं विकृतियों की परतों को तोड़ना है चेतना के मैल को साफ करना है। विकृतियों की भीड़ के कोलाहल में चेतना का अपना मूल स्वर विलीन हो गया है । साधना का उद्देश्य इसी स्वर को मुखरित करना है, भीड़ के कोलाहल को शान्त करना है । जब तक भीड़ रहेगी, कोलाहल होता ही रहेगा, और चेतना का अपना मूल स्वर इस कोलाहल में डूबा ही रहेगा अतः भीड़ को ही समाप्त करना है ।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह आदि असंख्य अनन्त विकृतियों के मूल बीज हैं- राग और द्वेष । साधना इसी राग- -द्वेष से मुक्त होने की दिशा
१ रागो य दोसो विय कम्म बीयं । उत्तराध्ययन ३२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org