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________________ 41 अन्तर्मुखी साधनापद्धति में चेतना का अपना अन्तःस्फूर्त पुरुषार्थ है । जब चेतना विकृतियों से मुक्त होकर अपने विशुद्धमूल स्वरूप में पहुँच जाती है, सदा के लिए शुद्ध स्थिति में स्थिर हो जाती है, तब यही परम चेतना हो जाती है । यह परम चेतना ही परम तत्त्व है, परमात्म तत्त्व है । उक्त परम तत्त्व को , परम चैतन्य को पाने की आध्यात्मिक प्रक्रिया ही वह साधना है, जो महावीर ने स्वीकार की। दमन, शमन या क्षपण साधना का अर्थ विकृतियों से मुक्त होना है, अन्दर में दबे हुए शुद्ध चैतन्यस्वरूप परमतत्त्व को पाना है । परन्तु प्रश्न है, यह सब हो कैसे सकता है ? उक्त प्रश्न के उत्तर में जब हम नयी-पुरानी धर्मपरम्पराओं पर एक गहरी चिन्तनात्मक दृष्टि डालते हैं, तो हम देखते हैं, कि कुछ लोग दमन का पथ पकड़े हुए हैं । अनेक साधक हैं, जो शरीर को कठोर यातनाएँ देते हैं । कड़कड़ाती सरदी में नंगे रहते हैं, और भयंकर गरमी में कम्बल ओढ़े फिरते हैं । पोष माघ के महीनों में सारी रात जल में खड़े रहते हैं, और वैशाख जेठ की तपती दुपहरियों में चारों ओर प्रचण्ड अग्नि जलाकर बैठते हैं । कुछ काँटों पर सोते हैं, कुछ खड़े-खड़े ही वर्ष के वर्ष गुजार देते हैं और इस स्थिति में पशुओं की तरह खड़े-खड़े ही मलमूत्र की विसर्जना क्रिया भी करते हैं । कुछ सूखा घास या पत्ते चबाते हैं, कुछ जल पर की शैवाल (काई) ही खाते हैं कुछ लोग अपनी आँख, कान आदि इन्द्रियों को भी कुचल देते हैं, और अंधे बहरे हो जाते हैं । कुछ लोगों ने साधना के अति उत्साह में विकारों से मुक्त होने के लिए भीष्म कर्म (पुरषचिन्ह का छेदन) तक कर डाले हैं । ___ महावीर के युग में भी ऐसे हजारों साधक थे, जिनका जैन तथा वैदिक साहित्य से प्रामाणिक साक्ष्य मिलता है। आन्तरिक वृत्तियों को शून्यांश पर लाने के लिए साधना के जो प्रयोग होते चले आए हैं, उनमें उक्त प्रयोग दमन के प्रयोग हैं। दमन भीतर से उठने वाली अशुभ वृत्तियों को रोकने का तामसी प्रयोग है। इसमें शरीर और इन्द्रियों की प्रवृत्तियों को कुछ क्षणों के लिए रोक देने का एक विवेकशून्य हठ है, और कुछ नहीं । सर्प अन्दर बैठा है, फुकार मार रहा है, और लोग आँख बन्द किये बांबी (साँप के बिल) को पीटे जा रहे हैं। दर्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001336
Book TitleVishwajyoti Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2002
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Sermon
File Size5 MB
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