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दिव्यसाधक जीवन रहे। जब देखो तब शरीर की चिन्ता, शरीर की सुख-सुविधाओं की उधेड़बुन । यह वृत्ति साधना के तेज को धूमिल कर देती है । अतः साधक शरीर को साधता है, साधना के लिए उसे सक्षम बनाता है । सक्षमता यही कि यदि कभी मर्यादा के अनुकूल समय पर कुछ न मिले, तो सहज भाव से भूखा रह सके, प्यासा रह सके । इधर भूख लगी कि उधर साधकजी फूल से मुरझा गए । इधर प्यास लगी कि उधर हाय मरा का शोर मचाने लगे । साधना के पथ पर ऐसा नहीं होना चाहिए । संकट की घड़ियों में भी अनाकुलता बनाये रखना, विचलित न होना, साधना का उद्देश्य है । महावीर की साधना इसी पथ पर गतिशील थी।
सहज तप
महावीर तपस्वी थे, जैन इतिहासकारों की भाषा में -उग्र तपस्वी, घोर तपस्वी और बौद्ध साहित्य की भाषा में दीर्घतपस्वी । परन्तु उनकी यह तप की उग्रता व दीर्घता विवेक की सीमा में थी । न हठ से फैलती थी और न हठ से सिमटती थी । तप सहज था, वह हो जाता था । जब तक वह होता रहता, अनाकुलता का, आनन्द का भाव बना रहता । और जब वह समाप्त होता, तब भी वही अनाकुलता, वही आनन्द की धारा । न होने में गर्व और न न होने में ग्लानि। एक सहज भाव, जो तप का या किसी भी अन्य साधना का प्राण है । इसलिए अध्यात्म की भाषा में कहा जाता है - महावीर ने तप किया नहीं, तप हो गया । जो तप महावीर के लिए सहज था, खेद है कुछ दूर आगे चलकर वह दूसरों के लिए हठ बन गया । महावीर का शारीरिक तप, जो उन के लिए अध्यात्मभाव का एक निमित्त मात्र था, अनुकरणशील साधकों ने उसे ही धर्म
और अध्यात्म का एकमात्र आधारस्तम्भ मान लिया, बिना सोचे-विचारे हर किसी के लिए दीर्घ-तप आदर्श बन गया ! महावीर की साधना का मुख्य आधार बाहर नहीं, अन्दर था, बाह्य तप नहीं, अन्तस्तप था और वह ध्यान था । वह ध्यान, जिसने उनके जीवन की समस्त अशुभवृत्तियों को शुभ में, और आगे चलकर शुद्ध में परिवर्तित कर दिया, अन्धकाराच्छन्न अन्तर् को अनन्त ज्योति से भर दिया । जहाँ कहीं भी महावीर के तप का वर्णन आया है,
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