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आनन्द का अक्षय स्रोत
उसके लिए सर्वतोभावेन निरुद्देश्य है, जबकि चेतन की क्रियाशीलता सोद्देश्य है । चेतन का परम उद्देश्य क्या है, और वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसी विश्लेषण की दिशा में मानव हजारों हजार वर्षों से प्रयत्न करता रहा है । यह चिन्तन, यह मनन, यह प्रयत्न ही चेतन का अपना स्व-विज्ञान है, जिसे शास्त्र की भाषा में अध्यात्म कहते हैं, अध्यात्म-भूमिका ज्योंही स्थिर स्थिति में पहुँचती है, साधक के अन्तर् में से सहज आनन्द का अक्षय-अजस्त्र स्त्रोत फूट पड़ता है।
चेतन के स्वरूपबोध का मूलाधार स्थूल दृश्य पदार्थों को आसानी से समझा जा सकता है, उनकी स्थिति एवं शक्ति का आसानी से अनुमान भी हो सकता है । किन्तु चेतना के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है । चेतना अत्यन्त सूक्ष्म तथा गूढ़ है । दर्शन की भाषा में वह • अणोरणीयान्। अणुसे भी अणु है, सूक्ष्म से भीसूक्ष्म है, सूक्ष्मतम है । साधारण मानव-बुद्धि के पास तत्त्व-चिन्तन के जो इन्द्रिय एवं मन आदि ऐहिक उपकरण हैं, वे बहुत ही अल्प हैं, सीमित हैं । साथ ही सत्य की मूल स्थिति के वास्तविक आकलन में अधूरे है, अक्षम हैं । चूँकि चेतन-अमूर्त है, जबकि इन्द्रियाँ सिर्फ मूर्त को ही देख पाती हैं " नो इन्दियगेज्झ अमुत्तभावा । अतः इन्द्रिय एवं मन आदि के माध्यम से चेतना का स्पष्ट परिबोध नहीं हो पाता है । केवल ऊपर की सतह पर तैरते रहनेवाले भला सागर की गहराई को कैसे जान सकते हैं ? जो साधक अन्तर्मुख होते हैं - साधना के पथ पर एक निष्ठा से गतिमान रहते हैं - चेतना के चिन्तन तक ही नहीं, अपितु चेतना के अनुभव तक पहुँचते हैं - निजानुभूति की गहराई में उतरते हैं, वेहीचेतना के मूलस्वरूपका दिन के उजाले की भाँति स्पष्ट परिबोध पा सकते हैं । उनकी यह प्रत्यक्षानुभूति जन-कल्याण की दिशा में जो शब्दात्मक अभिव्यक्ति का रूप लिया करती है, वही शब्दप्रमाण साधन बन जाता है सर्वसाधारण जन के लिए, चेतना के स्वरूपपरिबोध का - चेतना की मौलिकव्याख्याका । यह शब्दप्रमाणं, जिसे हम सब शास्त्र या सिद्धान्त कहते हैं, जितना ही अधिकवास्तविक और सक्षम होगा, उतनी हीअधिक चेतना की व्याख्या वास्तविक और सक्षम होगी ।
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