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विश्वज्योति महावीर
शब्द - सत्य : अनुभूति - सत्य
शब्द प्रमाण की, शास्त्र की चर्चा आ गई है, तो प्रस्तुत संदर्भ में एक बात समझ लेनी बहुत आवश्यक है । यह ठीक है कि सत्य के साक्षात्कर्ता महान् आत्माओं का अपना प्रत्यक्षानुभव साधारण साधकों को शास्त्र के माध्यम से मार्गदर्शन की दिशा में काफी उपयोगी होता है । परन्तु यह उपयोगिता एक सीमा तक ही है । शब्द-प्रमाण पर अधिक निर्भर रहने की मनोवृत्ति साधक को पंगु बना देती है । वैसाखी के सहारे जैसे-तैसे गति तो हो सकती है, किन्तु प्रगति नहीं । वास्तविक प्राप्तव्य तथ्य का बोध दूसरों के शब्द-तंत्र से मानससागर में उच्छल होने वाली चन्द गिनी चुनी परिकल्पनातरंगों या भावनालहरियों पर से नहीं हो सकता है । दूसरों की अनुभूतियों से नहीं, किन्तु अपनी ही अनुभूतियों से सत्य का साक्षात्कार होता है । अन्धे को दूसरों की आँखों का देखा कितना बोध दे पाता है ? दूसरों की जीभ का चखा हमें कितना रसबोध देता है ? और वह बोध होता भी कैसा है ? मात्र परोक्ष ।
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आप जानते है, प्रत्यक्ष व परोक्ष बोध में अन्तर है, बहुत बड़ा अन्तर है । दूसरों की आँखो का देखा, भले ही वे आँखें कितनी ही दिव्य क्यों न हों, अपने लिए परोक्ष ही हैं। अपनी स्वयं की निर्विकार एवं निर्मल आँखों का देखा ही अपने लिए प्रत्यक्ष है । यही बात रसास्वादन के सम्बन्ध में है । सच्चा ज्ञान स्वयं की अनुभूति से ही जागृत होता है । परनिर्भरता पशुबुद्धि का लक्षण है । यह एक प्रकार की मानसिक दासता है । एक प्रकार की भिक्षा है। भिक्षा और अर्जन में अन्तर है । ज्ञान की भिक्षा नहीं, ज्ञान का अर्जन होना चाहिए । दूसरों की अनुभूतियों पर आधारित शब्दप्रमाण अमुक सीमा तक ही प्रकाश देता है, मार्ग-दर्शन करता है । आगे का लम्बा मार्ग तो स्वयं की अनुभूति से ही तय करना होता है । स्वयं की अनुभूति को जागृत करने की सहज आन्तरिक प्रक्रिया ही अध्यात्मविद्या है, जिसके लिए कहा गया है कि " अध्यात्मविद्या विद्यानाम् ।" अर्थात् सब विद्याओं में अध्यात्मविद्या ही एकमात्र श्रेष्ठ
विद्या है।
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