SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिव्यसाधक जीवन महीनों ही खड़े रहते अचल, अडिग । न अन्न, न जल । शरीर में रहकर भी शरीर से अलग, शरीर की अनुभूति से अलग, जीवन की आशा और मरण के भय से विप्रमुक्त !' जैन साधना की भाषा में इसे कायोत्सर्ग कहते हैं । काय का उत्सर्ग, देह का विसर्जन ! अर्थात् अन्तर्लीनता की स्थिति में देहभाव की विस्मृति, देह में विदेह भाव, शरीर से सम्बन्धित मोह ममत्व का त्याग । स्व की शोध में लगा साधक स्व को ही स्मृति में रखता है, पर को नहीं । समत्वयोग की साधना I महावीर का साधनाकाल बड़ा ही विकट था । उस युग में जनमानस न जाने कैसा बन गया था ! विश्व हित की दिशा में सर्वस्व त्यागकर घर से निकले साधक को भी इतनी पीड़ा ! पीड़ा नहीं, उत्पीडन ही कहना चाहिए ! प्रकृति के कष्टों की बात नहीं है, वे तो थे ही, बात है तत्कालीन अबोध लोगों द्वारा दिये गये कष्टों की, दी गयी यातनाओं की । जैन भाषा में इन्हें उपसर्ग कहते हैं । इन उपसर्गों की इतनी रौद्र घटनाएँ हैं कि जिनके श्रवणमात्र से आज हजारों वर्ष बाद भी सहृदय श्रोता का तन काँप-काँप जाता है, मन सिहर - सिहर उठता है । किन्तु महावीर ऐसे थे कि जैसे एक प्रशांत महासागार, जिसमें कभी कोई तूफान उठता ही नहीं । मैत्रीभावना का सर्वोच्च आदर्श ! जिसे फूलों से ही नहीं, काँटों से भी प्यार ! सतानेवाले के प्रति भी एक सहज करुणा, कल्याण की कामना । अपनी पीड़ा और कष्ट के लिए मनुष्य अनादि काल से दूसरों की शिकायत करता चला आया है । परन्तु महावीर को अपने सतानेवालों से कोई शिकायत नहीं थी । उनका चिन्तन था जो पा रहा हूं, वह अपना ही किया पा रहा हूं | जो भोग रहा हूं, वह अपना ही किया भोग रहा हूं । दूसरों का कोई दोष नहीं, मूलतः दोष मेरा ही हैं। दूसरे किसी के सुख-दुख में निमित्त हो सकते हैं, कर्त्ता नहीं । कर्त्ता मनुष्य स्वयं ही होता है । और जो कर्त्ता होता है, वही भोक्ता भी तो होगा ही । कर्त्ता कोई, भोक्ता कोई - यह नहीं I १ जीवियासामरणभयविप्पमुक्के - भगवती सूत्र Jain Education International 23 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001336
Book TitleVishwajyoti Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2002
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy