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विश्वज्योति महावीर हो सकता, कभी नहीं हो सकता । जो कृत है, उसे भोगे बिना मुक्ति नहीं है -
कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि । . महावीर के समत्वयोग का मूल कर्मसिद्धान्त है । महावीर का कर्म सिद्धान्त था - अच्छा बुरा जो है, वह अपना किया हुआ है, और अच्छा बुरा जो भी होगा वह अपना ही किया होगा । इस प्रकार महावीर का कर्मसिद्धान्त कर्तृत्व की समग्र सत्ता मनुष्य के हाथों में दे देता है । महावीर ने इस सिद्धान्त पर अपने को जब तब खूब परखा । इस सिद्धान्त में से ही उन्हें वीतरागता का पथ मिला।
___ उपर्युक्त चिन्तन भी उनकी प्रारम्भिक भूमिकाओं में ही रहा । आगे चलकर तो वे इन सब विकल्पों से भी परे होते गए । मेरे और तेरे का कोई विकल्प नहीं,करने और भोगने का भी कोई विचार नहीं । मन निर्विकल्प, एक निस्तरंग महासागर ! अन्तर्लीनता के क्षणों में ध्यानयोगी निर्वात कक्ष में प्रज्वलित दीपशिखा की भाँति स्थिर हो जाता है । उस समय न अशुभ की लहर उठती है न शुभ की । अध्यात्मभाषा में यह शुद्धोपयोग होता है । महावीर अशुभ से शुभ में और शुभ से भी शुद्ध में चले जा रहे थे । विकल्प से अविकल्प की ओर ! चिन्तन से अचिन्तन की ओर ! यह ठीक है कि यह शुद्ध की स्थिति निरन्तर नहीं चल रही थी । गति कभी इधर-उधर हो जाती थी, कदम कभी इधर-उधर पड़ जाते थे, परन्तु लक्ष्य सतत उसी शुद्ध स्थिति की ओर था, प्राप्य वही था ।
उपर्युक्त आध्यात्मिक शुद्ध स्थिति को, अनन्त आनन्दमय दिव्य जीवन को प्राप्त करने में महावीर को साढ़े बारह वर्ष लगे । साढ़े बारह वर्ष का दीर्घ साधनाकाल साधनोत्तर जीवन की तरह ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । कथासाहित्य में इस काल की कुछ घटनाओं का उल्लेख मिलता है, उनसे महावीर की साधना की स्थिति का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है कि महावीर क्या थे, क्या हो रहे थे, और कैसे हो रहे थे?
करुणा का देवता महावीर जब प्रव्रजित हुए थे तो उनके पास वस्त्र के नाम पर केवल प्रावरण-एक वस्त्र था और कुछ नहीं - न पात्र, न धर्मोपकरण और न अन्य
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