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साधना के अग्निपथ पर
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सहज अन्तःप्रेरणा ही भविष्य की उनकी समस्त उपलब्धियों का मूलाधार है ।
गृहत्याग का कारण जीवन के प्रति उनकी उदासीनता नहीं थी, जैसा कि प्रायः कुछ साधकों में हो जाया करती है । न परिवार के प्रश्नों को लेकर कोई उद्विग्नता थी, और न अन्य कोई सामाजिक असन्तोष ही । किसी व्यक्तिगत दुःख या कुंठा के कारण घर छोड़ा हो, ऐसा भी कुछ नहीं है । वे मन से लेकर तन तक, परिवार से लेकर राज्य तक खूब प्रसन्न थे, चिन्ताओं से मुक्त थे । उनके समक्ष ऐसी कभी कोई स्थिति नहीं आई कि उन्होंने कुछ चाहा हो, और वह उन्हें न मिला हो । मूल बात यह थी कि अन्दर बाहर सुख-समृद्धि के नाम पर सब कुछ था ! फिर भी भीतर में एक रिक्तता थी । यह रिक्तता भौतिक नहीं, आध्यात्मिक थी । बाहर में चुंधिया देनेवाला प्रकाश होने पर भी, अन्दर में कहीं अन्धकार छिपा था ! और कोई समस्या नहीं थी, समस्या थी केवल एक, और वह यह कि आनन्द का भीतरी स्त्रोत अवरुद्ध था । और, इस सहज आनन्द के अभाव में सब कुछ होने पर भी, कुछ भी नहीं था । यह उनका अपना एक व्यक्तिगत प्रश्न ही नहीं था, वरन प्रश्न था समूचे जनजीवन का ।
चैतन्य-स्वरूपतः एक अखण्ड है । अतः जो एक के लिए है, वह सबके लिए है और जो सब के लिए है वह एक के लिए है । व्यष्टि के विकास के साथ समष्टि के विकास में योगदान ही तीर्थंकरत्व की अभिसिद्धि है । महावीर में ऐसे ही स्व-पर कल्याणकारी तीर्थंकरत्व की ज्योति प्रदीप्त होने को थी । अतः निश्चित ही स्व-पर में अवरुद्ध हुए इसी आनन्द स्त्रोत को मुक्त करने के लिए महावीर ने गृहत्याग किया । महावीर के गृहत्याग का यही एक हेतु था-स्व-पर के अनन्त चैतन्यको जगाने का, अनन्त आनन्द के स्त्रोत को मुक्तद्वार करने का । इसीभाव को आध्यात्मिक भाषा में यदि और अधिक स्पष्टता से कहा जाए तो कह सकते हैं - उक्त हेतुओं की छाया में महावीर का गृहत्याग हो गया । करने और होने में अन्तर है । होने में सहजता है, अनाग्रहता है और करने में कुछ न कुछ आग्रह की, हठ की ध्वनि है । महान् साधकों का साधनाक्रम सहज होता है और होता है निर्द्वन्द्व ! इसलिए महावीर का गृहत्याग एक सहज ऊर्ध्वमुखी अन्तः प्रेरणा थी। अनन्त आनन्द की रसधार से जन जीवन को आप्यायित करने की एक तीव्र
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