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साधना के अग्निपथ पर
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जीवनगाथा का ऐतिहासिक विश्लेषण नहीं कर रहे हैं । हमारा विवेच्य है महावीर की साधना का अध्यात्मपक्ष । यह सब वर्णन तो मात्र पृष्ठभूमि के रूप में सर्व साधारण की एक सामान्य जानकारी के लिए किया जा रहा है ।
महावीर के जीवन के प्रथम तीस वर्ष ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि के नन्दन कानन में गुजरे । जीवन यात्रा के पथ में कदम-कदम पर पुष्प बिछे थे, काँटों का कहीं नामोनिशान नहीं था । परिजन, पुरजन एवं अन्य स्नेही जनों के निर्मल स्नेह का छलकता प्रवाह था, जिसका दूसरा उदाहरण मिलना मुश्किल है । एक राजकुमार का बचपन से लेकर यौवन के प्रांगण तक खिलते-महकते कमलपुष्प के समान कितना सुन्दर, सुखद एवं उल्लासमय जीवन हो सकता है, हर कोई व्यक्ति इसकी सहज ही कल्पना कर सकता है।
साहसी वर्धमान पुराने कथाग्रन्थों में महावीर के बाल्य काल की कुछ घटनाओं का उल्लेख मिलता है, जिनसे पता चलता है कि वे बचपन से ही बड़े साहसी एवं निर्भीक थे । भय, आशंका, दब्बूपन उन्हें छू तक नहीं गए थे । वे राजमहल के सुख सुविधा से भरे पूरे स्वर्णकक्षों में बद्ध नहीं रहते थे । मुक्त मन से इधरउधर घूमना, खेलना और यथा-प्रसंग अनेकविध क्रीड़ाओं का आयोजन करना, . उन्हें पसंद था । अपने स्नेही संगी साथियों के साथ, जिनमें आस-पास के सभी छोटे-बड़े परिवारों के हमउम्र बालक होते, नगर से बाहर दूर वनों में घूमने चले जाते और खेलते रहते । एक बार उद्यान में कहीं खेलते हुए उन्होंने एक भीषण फुकार मारते काले नाग को क्रीडाक्षेत्र से उठाकर दूर फेंक दिया था, जबकि साथ के अन्य बालक भय से चीखने-चिल्लाने लगे थे, उनमें बुरी तरह से भगदड़ मच गई थी । किन्तु वर्धमान तो बिल्कुल निर्भय थे ।
एकबार ऐसे ही वन में खेलते समय एक देव ने बड़ा भयंकर रूप धारण कर महावीर को डराना चाहा, साथ के साथी डरे भी । किन्तु महावीर महावीर थे, वे डरते कैसे ? उन्होंने अपने अभय से, साहस से उस दानवाकृति देव को
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