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________________ 74 विश्वज्योति महावीर ३. अनेकांत : भगवान महावीर ने जितनी गहराई के साथ अहिंसा और परिग्रह का विवेचन किया, अनेकांत दर्शन के चिंतन में भी वे उतने ही गहरे उतरे । अनेकांत को न केवल एक दर्शन के रूप में, किंतु सर्वमान्य जीवन धर्म के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय महावीर को ही है । अहिंसा और अपरिग्रह के चिंतन में भी उन्होंने अनेकांत दृष्टि का प्रयोग किया । प्रयोग ही क्यों, यहाँ तक कहा जा सकता है कि अनेकांत-रहित अहिंसा और अपरिग्रह भी महावीर को मान्य नहीं थे। आप शायद चौकेंगे यह कैसे ? किंतु वस्तु स्थिति यही है । चूंकि प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक सत्ता, प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक विचार अनन्त धर्मात्मक है । उसके विभिन्न पहलू, विभिन्न पक्ष होते हैं । उन पहलुओं और पक्षों पर विचार किए बिना यदि हम कुछ निर्णय करते हैं, तो यह उस वस्तुतत्त्व के प्रति स्वरूपघात होगा, वस्तुविज्ञान के साथ अन्याय होगा। और स्वयं की ज्ञानचेतना के साथ भी धोखा होगा। किसी भी वस्तु के तत्त्व-स्वरूप पर चिंतन करने से पहले हमें अपनी दृष्टि को पूर्वाग्रहों से मुक्त, स्वतन्त्र और व्यापक बनाना होगा। उसके प्रत्येक पहलू को अस्ति, नास्ति आदि विभिन्न विकल्पों द्वारा परखना होगा, तभी हम उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे । अहिंसा और अपरिग्रह के विषय में भी यही बात है, इसलिए मैंने कहा-महावीर के अहिंसा और अपरिग्रह भी अनेकांतात्मक थे । अहिंसात्मक अनेकांतवाद का एक उदाहरण लीजिए । भगवान् महावीर ने साधक के लिए सर्वथा हिंसा का निषेध किया । किसी भी प्रकार की हिंसा का समर्थन उन्होंने नहीं किया ।' किन्तु जनकल्याण की भावना से, किसी उदात्त ध्येय की प्राप्ति के लिए, तथा वीतराग जीवन चर्या में भी कभी-कहीं परिस्थितिवश अनचाहे भी जो सूक्ष्म या स्थूल प्राणिघात हो जाता है, उस विषय में उन्होंने कभी एकांत निवृत्ति का आग्रह नहीं किया, अपितु व्यवहार में उस प्राणिहिंसा १. सव्वाओ पाणाइवायाओ विरमणं -सथानांग सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001336
Book TitleVishwajyoti Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2002
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Sermon
File Size5 MB
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