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दिव्यसाधक जीवन
निषेध की पत्थरमार भाषा में नहीं, सद्भाव की फूल - सी सुकोमल भाषा में । प्रेम और करूणा के देवता ने कहा- चण्डकौशिक ! समझो, अपने को समझो तुम क्या हो, क्या कर रहे हो ? तन का विष केवल दूसरों को ही मारता है किन्तु मन का विष अपने को ही मार देता है । विष का प्रतिकार विष नहीं, अमृत है । वैर का प्रतिकार वैर नहीं, प्रेम है ।
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प्रश्न है, क्या पशु मनुष्य की भाषा समझ सकता है ? भले ही न समझता हो पशु मनुष्य की भाषा, किन्तु विश्वचेतना की एक ऐसी समान अनुभूति की दिव्य भाषा है, जिसके केन्द्र पर सभी कुछ अच्छी तरह समझा जा सकता है । चण्डकौशिक सर्प ने महावीर के स्नेहमधुर उपदेशमृत का वह. पान किया कि उसका विष उतर गया । तन का तो नहीं, मन का । महावीर की अनन्त अहिंसा ने विष को भी अमृत बना दिया । गर्त में पड़ा सागर सरिताओं के मधुर जल को खारा बनाता है, किन्तु गगनविहारी मेघ सागर के खारे जल को भी मधुर बनाकर भूतल पर बरसा देता है । महावीर ऐसे ही मेघ थे । बरसे तो सब ओर अमृत ही अमृत हो गया ।
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अपना श्रम, अपनी श्री महावीर अपनी साधना का मूल्यांकन बड़ी कठोरता से कर रहे थे । एक तरह से हर क्षण अपने को तोलते रहते थे । वे जिस सिद्धि को पाना चाहते थे, उसकी साधना का अथ से इति तक का समग्र भार अपने ऊपर ही उठाए हुए थे । अपने लिए किसी दूसरे से सहायता की कामना जैसी स्थिति उन्हें ठीक नहीं लगती थी । उनका जीवन-दर्शन परनिर्भरता का नहीं, स्वनिर्भरता
का था ।
एक बार ऐसा हुआ कि महावीर एक गाँव के बाहर जंगल में ध्यानस्थ खड़े थे । तन और मन दोनों से मौन । भावधारा में अन्तर्लीन । इसी बीच गाँव का एक गोपालक अपने पशुओं को महावीर के पास चरते छोड़कर गाँव में किसी कार्यवश चला गया और जाते हुए महावीर से कह गया कि - जरा मेरे पशुओं को देखते रहना, कहीं इधर-उधर न हो जाएँ । महावीर गोपालक की आवाज क्या सुनते, वे तो अपने ही अन्दर की आवाज सुनने में लगे थे । एक साथ दो आवाजें कैसे सुनी जा सकती हैं ?
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