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विश्वशांति के तीन सूत्र
इच्छापरिमाण-एक प्रकार से स्वामित्व-विसर्जनकी प्रक्रिया थी । महावीर के समक्ष जब वैशाली का आनन्द श्रेष्ठी इच्छापरिमाण व्रत का संकल्प लेने उपस्थित हुआ, तो महावीर ने बताया-तुम अपनी आवश्यकताओं को सीमित करो, जो अपार-साधन सामग्री तुम्हारे पास है, उसका पूर्ण रूप में नहीं तो उचित सीमा में विसर्जन करो । एक सीमा से अधिक अर्थ- धन पर अपना अधिकार मत रखो, आवश्यक क्षेत्र, वास्तु रूप भूमि से अधिक भूमि पर अपना स्वामित्व मत रखो, इसी प्रकार पशु, दास-दासी आदि को भी अपने सीमाहीन अधिकार से मुक्त करो ।
स्वामित्वविसर्जन की यह सात्विक प्रेरणा थी, जो समाज में संपत्ति के आधार पर फैली अनर्गल विषमताओं का प्रतिकार करने में सफल सिद्ध हुई। मनुष्य जब आवश्यकता से अधिक संपत्ति व वस्तु के संग्रह पर से अपना अधिकार हटा लेता है, तो वह समाज और राष्ट्र के उपयोग के लिए उन्मुक्त हो जाती है, इसप्रकार अपने आप ही एक सहज समाजवादी अन्तरप्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।
भोगोपभोग एवं दिशा-परिमाण मानव सुखाभिलाषी प्राणी है । वह अपने सुख के लिए नाना प्रकार के भोगोपभोगों की परिकल्पना के माया जाल में उलझा रहता है । यह भोग बुद्धि ही अनर्थ की जड़ है । इसके लिए ही मानव अर्थ संग्रह एवं परिग्रह के पीछे पागल की तरह दौड़ रहा है । जब तक भोगबुद्धि पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक परिग्रह-बुद्धि से मुक्ति नहीं मिलेगी ।
- यह ठीक है कि मानव जीवन भोगोपभोग से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता । शरीर है, उसकी कुछ अपेक्षाएँ हैं। उन्हें सर्वथा कैसे ठुकराया जा सकता है । अतः महावीर आवश्यक भोगोपभोग से नहीं, अपितु अमर्यादित भोगोपभोग से मानव की मुक्ति चाहते थे । उन्होंने इसके लिए भोग के सर्वथा त्याग का व्रत न बताकर, भोगोपभोग परिमाण का व्रत बताया है । भोग
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