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दिव्यसाधक जीवन
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शासन
विधिनिषेध जैन आचारशास्त्र से मेल नहीं खाते । उग्र साधनापथ के अविचलयात्री भगवान् शास्त्रोक्त साधना के विरुद्ध आचरण करें, ऐसा कैसे हो सकता है ? इन शास्त्राग्रही लोगों को मालूम होना चाहिए, महावीर ने किसी संप्रदाय में, किसी गुरु से दीक्षा नहीं ली थी । वे किसी पुरागत तीर्थ में, I में दीक्षित नहीं हुए थे । उनके निर्णय किसी आचारशास्त्र के आधार पर नहीं, अपने सहज - स्फूर्त-विवेक के आधार पर होते थे । हम वर्तमान के शास्त्रों को, जिनका संकलन एवं निर्माण महावीर के बहुत उत्तर काल में हुआ, महावीरजैसे सुदूर अतीत के महापुरुषों के साथ जोड़ कर भूल करते हैं । महावीर की साधना किसी भी पूर्व विचार या शास्त्र आदि से प्रतिबद्ध नहीं थी । इसीलिए जैनसाहित्य उन्हें प्रारम्भ से ही, प्रव्रज्या ग्रहण के दिन से ही कल्पातीत मानता है । कल्पातीत का अर्थ है - कल्प से, विधिनिषेध की अमुक सीमाओं में बद्ध शास्त्रीय आचार से अतीत रहना, मुक्त रहना । महावीर की साधनाविधि को तथाकथित किसी भी शास्त्र से जोड़ा नहीं जा सकता । उनका साधनापथ न किसी संप्रदाय से बँधा था, न किसी गुरु से, और न किसी शास्त्र से । वह बँधा था उनके अपने अन्दर की स्वतन्त्र अनुभूति से । वे पहले के, किसी अन्य के खोजे हुए मार्ग पर नहीं चले, अपितु खुद मार्ग खोजते गए, चलते गए । जब कहीं संशोधन की जरुरत हुई तो संशोधन किया, बदलने की जरूरत हुई तो
बदला ।
महावीर की आचार साधना जड़ नहीं थी, सचेतन थी । सचेतन साधना गतिहीन नहीं होती है । साधना की सचेतनता ज्ञान पर आधारित है । इसी सन्दर्भ में एक सन्त ने कहा है- ज्ञान गुरु है, आचार शिष्य है । आचार को अनुभव सिद्ध ज्ञान के शासन में चलना होगा, कोरे शास्त्रीय जड़ शब्दों के शासन में नहीं । मुक्त चिन्तन ही सत्यान्वेषण का सच्चा साधन है, बद्ध चिन्तन नहीं । किसी ग्रन्थ-विशेष या गुरु विशेष को प्रमाण मानने वाला, उनके अनुसार चलने वाला प्राथमिक भूमिका का साधारण साधक हो सकता है, तीर्थंकर नहीं । महापुरुष किसी विशिष्ट विचार पथ के निर्माता या नेता होते हैं, सम्प्रदाय के रूप में चली आई किसी पूर्व विचारपरम्परा के अनुयायी नहीं ।
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