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विश्वज्योति महावीर की बदलती हवाओं में क्षीण हो चुकी थी । अतः व्यर्थ ही पहले उन्हें स्वीकृति देना, वचनबद्ध होना और फिर आगे चलकर यथाप्रसंग तोड़ना, उन्हें ठीक नहीं लगा । वे पहले से ही अपना पथ आप खोजने चले । कोई संगी साथी नहीं, अकेले ही।
अपने निर्माता
__पर्वत की कठोर चट्टानों को भेद कर बहनेवाले झरने को पहले का बना बनाया पथ कहाँ मिलता है ? झरना बहता जाता है और पथ बनता जाता है - पथ बनता जाता है और झरना बहता जाता है । पहले से बने पथ पर बहने वाली तो नहरें होती हैं, निर्झर या नदियाँ नहीं । महावीर भी ऐसे ही अपने साधनापथ के स्वयं निर्माता थे । आज की भाषा में वे लकीर के फकीर नहीं थे । वे आज्ञाप्रधानी साधक नहीं, परीक्षाप्रधानी साधक थे । उनका अन्तर विवेक जागृत था, अतः उन्होंने जब जो ठीक लगा, वह किया और जब जो ठीक न लगा, वह न किया । वे एक-दो बार के किए, या न किए के अन्धदास नहीं हो गए थे । साधना के सम्बन्ध में उनके परीक्षण चलते रहे और वे कभी कुछ पुराना छोड़ते, कभी कुछ नया अपनाते आगे बढ़ते रहे । स्वीकृत विधि निषेधों में उचित लगने पर उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ परिवर्तन किए । अधिक तो नहीं, पर, प्राचीन साहित्य में ऐसे कुछ प्रसंगों का प्रामाणिक उल्लेख मिलता है । प्रारम्भ में कभी गृहस्थ के पात्र में भोजन कर लेते थे, किन्तु बाद में वे उसका परित्याग कर करपात्री बन जाते हैं । एक बार करुणाद्रवित होकर अपना वस्त्र एक याचक दीन ब्राह्मण को दे देते हैं । एक बार वर्षाकाल चौमास में ही (वर्षा के दिनों में) अन्यत्र विहार कर जाते हैं । ये कुछ बातें ऐसी हैं, जो परंपरागत आचारशास्त्र की दृष्टि से भिक्षु के लिए निषिद्ध हैं । फिर भी महावीर ने ऐसा किया ।
- कल्पातीत साधक
आज के कुछ तथाकथित आचारवादी शब्दशास्त्री महावीर के जीवन चरित्र में से उक्त अंशों को निकाल रहे हैं । उनका कहना है कि महावीर के ये
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